पावन भण्डारा: पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी धाम, डेरा सच्चा सौदा सरसा
‘दोनों जहां छाया, देखो नूरे जलाल प्यारा, आज के दिन आया, हमरा सतगुरु सोहना प्यारा’
मालिक की साजी-नवाजी प्यारी साध-संगत जी, जैसा आप ये खुशियों भरा माहौल, खुशियों भरा ये आलम देख रहे हैं, मस्ती का ये दौर सारी जनवरी चलता है।
जिस दिन के लिए जनवरी में साध-संगत इतनी खुशियां मनाती है वो पाक-पवित्र दिन 25 जनवरी का दिन है जिसमें सच्चे मुर्शिदे-कामिल परम पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने अवतार लिया, सच्चे सौदे को लोगों तक पहुंचाया, दुनिया को समझाया, ये सर्व धर्म संगम और जो-जो कुछ बताया वो आपकी सेवा में अर्ज करेंगे पर बात है उस दिन की और इस दिन की।
इस दिन मुर्शिदे-कामिल ने इस धरा को छुआ, पाक-पवित्र किया। इसलिए इस पाक-पवित्र जन्म-दिहाड़े की, मुर्शिदे-कामिल के जन्म भण्डारे की आप सबको तहदिल से मुबारकबाद कहते हैं, बधाई देते हैं जी। और मालिक से, उस सतगुरु से यही दुआ करते हैं कि जितना हो सके साध-संगत इन्सानियत को जिंदा रखे, मानवता का प्रेम, मालिक की भक्ति-इबादत, इससे बड़ी दुनिया में और कोई चीज नहीं। यही मालिक से दुआ है कि मालिक सबको भक्ति से, अपनी दया-मेहर, रहमत से नवाजे। यही उस मालिक से दुआ, विनती है, गुजारिश है।
Also Read :-
- 25 जनवरी को जन्म दाता लीना
- सार्इं मस्ताना जी कमाल का तोड़ लेकर आए
- अरबों बार नमन है, सैल्यूट है सार्इं मस्ताना जी को | पावन भण्डारा
- संत जगत विच औंदे, है रूहां दी पुकार सुन के जी।। पावन भण्डारा : पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी धाम, डेरा सच्चा सौदा सरसा
- जिस काम लिए आए, वो काम क्यों भूल गए हो तुम। रूहानी सत्संग
जैसा कि आपकी सेवा में अर्ज किया है, आज पाक-पवित्र जन्म दिन, जन्म भण्डारा मनाया जा रहा है, पाक-पवित्र जन्मदिन है और जो भी साध-संगत आई है, आ रही है दूर-दराज से, आस-पास से आप सबका सत्संग में, नूरानी भण्डारे पर आने का तहदिल से बहुत-बहुत स्वागत करते हैं, जी आया नूं, खुशामदीद कहते हैं, मोस्ट वैलकम। जैसा यह खुशियों भरा समय है, जैसा यह पाक-पवित्र जन्म दिन है, उसी के अनुरूप आज का भजन है- ‘दोनों जहान छाया देखो नूरे जलाल प्यारा, आज के दिन है आया हमरा सतगुरु सोहना प्यारा।’
सच्चे मुर्शिदे-कामिल पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने ही सिखाया है कि इन्सानियत किसे कहते हैं, हम नहीं जानते थे कि इन्सानियत क्या होती है, हम नहीं पहचानते थे कि कौन से कर्म हैं, वो कैसे कार्य हैं जिनसे इन्सानियत जिंदा रहती है, नहीं जानते थे कि इन्सान को भगवान के बाद सबसे बड़ा दर्जा क्यों दिया है, क्यों कहा गया देवताओं, फरिश्तों को कि इन्सान के बुत को सिजदा, नमस्कार किया जाए। आखिर क्यों? ऐसा क्या है इन्सान में जो बाकी चौरासी लाख शरीरों में नहीं? इन सारे सवालों का जवाब सच्चे मुर्शिदे-कामिल परम पूजनीय परम पिता शाह सतनाम जी महाराज ने बताया। हालांकि हमने कई जगह, महाविद्यालयों, यूनिवर्सिटीज में सत्संग किए, पूछा कि बताइए इन्सानियत किसे कहते हैं? उनका जवाब ज्यादातर का यही था कि हम सब इन्सान हैं और इसी का नाम इन्सानियत है।
बड़ी हैरानी हुई, कि आप डॉक्टरेट की डिग्री कर रहे हैं, डिप्लोमा ले रहें हैं पर खुद के बारे में पता ही नहीं कि कौन हैं, तो सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने सर्व-धर्म के अनुसार बताया कि इन्सानियत का मतलब है कि किसी को दु:ख-दर्द में तड़पता देखकर उसके दु:ख-दर्द में शामिल होना और उसके दु:ख-दर्द को दूर करने की कोशिश करना ही इन्सानियत है। किसी का खून चूस कर कमाना, किसी को तड़पाना, बेईमानी, ठग्गी, भ्रष्टाचार से कमाना यह इन्सानियत नहीं, ये शैतानियत है, राक्षसीपन है। तो यह तरीका, ऐसी सच्चाई सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने बताई। अपने तो मीडिया हैं, एक माध्यम हैं जो आपको बता रहे हैं। तो भाई! तब पता चला कि इन्सान का काम सिर्फ खाना-पीना, ऐश उड़ाना नहीं। ये तो पशु-पक्षी भी करते हैं। हमने देखा एक जगह सत्संग कर रहे थे या शायद कोई टूर्नामेंट चल रहा था, एक पक्षी आता, तिनका उठाकर लाता, वह एक घोंसला बना रहा था। घोंसला बन गया।

तो क्या फायदा दौलत का अगर अंदर शांति, सुकून नहीं। तो भाई! मुर्शिदे-कामिल ने बताया कि दौलत तो कमाओ लेकिन जो धर्मों में लिखा है, उसी के अनुसार कमाओ। हिंदू धर्म में लिखा है कड़ा परिश्रम, इस्लाम धर्म में हक-हलाल, सिक्ख धर्म में दसां नहुआं दी किरत कमाई और इंग्लिश रूहानी सेंट कहते हैं हार्ड वर्क करके कमाओ। ऐसा करके आप कमाएंगे तो वो वाकई अमृत होगी, चाहे थोड़ी आएगी लेकिन जो सुकून, निडरतापन होगा वह दूसरी दौलत में कभी नहीं हो सकता। तो ऐसी सच्ची बात, कहने का मादा चाहिए जो सच्चे मुर्शिदे-कामिल में देखा। परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने साफ समझाया कि ऐसा मत करो कि खाया-पीया, सो गए, बच्चे पैदा कर लिए, ये तो पशुओं का काम है।
फर्क इतना है कि वो चाहते हुए भी दोनों जहान के मालिक ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहिगुरु, राम को नहीं पा सकते जबकि इन्सान चाहे तो इस मृत्युलोक में रहता हुआ मालिक से रू-ब-रू हो सकता है। इसलिए इन्सान को हमारे धर्मों में खुदमुख्तयार या सरदार जून कहा है। तो भाई! ये इन्सानियत की ये पाक-पवित्र बातें सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने समझाई, सिखाया कि मानवता क्या है, इन्सानियत क्या है और जिन्होंने वचनों पर अमल किया, जिनके घर पहले नशों व बुराइयों से नर्क जैसे थे, आज स्वर्ग से बढ़कर बन गए। आप जाइए, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान या और स्टेटों में जहां सच्चे मुर्शिदे-कामिल के मुरीद हैं और उनसे पूछिए एक-एक घर की कहानी।
कैसे उन्होंने पहले बर्बादी की और कैसे अब मुर्शिदे-कामिल के उस पाक-पवित्र नाम से, कलमा से वे अपने आप में परिवर्तन ला पाए हैं। जो नशों के बिना पल भी नहीं रहते थे, जो अपनी बुरी आदतों पर कंट्रोल नहीं कर सकते थे, कैसे अपने आप पर कंट्रोल किया और कैसे सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ऐसे हजारों, लाखों घर होंगे जो नर्क से स्वर्ग बन गए। उस मुर्शिदे-कामिल के लिए गुणगान गाते हैं, शुक्राना करते हैं, धन्यवाद करते हैं, जो कि हमारा फर्ज है। तो भाई! अगर आप मालिक अल्लाह, वाहिगुरु, गॉड, खुदा, रब्ब की दया-मेहर, रहमत का नजारा देखना चाहते हैं, दया-दृष्टि का कमाल देखना चाहते हैं तो मैथड आॅफ मेडिटेशन जिसे हिंदू धर्म में पुराने समय में गुरुमंत्र, सिक्ख धर्म में नाम शब्द और मुसलमान फकीर कलमां कहते थे, आधुनिक युग में कहें या इंग्लिश में कहें तो उसे मैथड आॅफ मेडिटेशन कहा जाता है, उससे अगर जुड़ा जाए तो पता चलता है कि इन्सान के अंदर कितनी आत्मिक शांति है, कैसी आत्मिक शक्तियां हैंं जो इन्सानियत को चर्म सीमा पर ले जाकर भगवान से भी मिला सकती हैं। तो ये सब तरीके सच्चे मुर्शिदे-कामिल परम पूजनीय परम पिता शाह सतनाम जी महाराज ने बताए, समझाए और चलना सिखाया। तो उन्हीं के लिए आपकी सेवा में भजन बनाया है-
‘दोनों जहां छाया, देखो नूरे जलाल प्यारा,
आज के दिन आया, हमरा सतगुरु सोहना प्यारा’
आज का वो पाक-पवित्र दिन, जिसमें हमारे गुरु, मुर्शिदे-कामिल, सतगुरु-मालिक जिन्होंने हमें राह दिखाया, ये सिखाया कि सर्व-धर्म एक ही है, हम सबसे पहले इन्सान हैं और ईश्वर ने हममें किसी में कोई भेदभाव नहीं किया। साइंटिस्टों से चाहे आप अपने शरीर का चैकअप करा लीजिए, सभी धर्मोें के लोग जो तंदुरुस्त हों, उनमें कोई फर्क नहीं मिलेगा। वेशभूषा का फर्क है, पहनावे का फर्क है,खान-पान का फर्क है, बोलचाल का फर्क है और मालिक ने कोई फर्क नहीं किया। ये नहीं है कि किसी एक धर्म वाले को सींग लगाया है और किसी दूसरे धर्म वाले को पूंछ लगाई हो कि जिससे पता चला कि ये सींग वाला बड़ा है और पूंछ वाला छोटा है। ऐसा कुछ भी नहीं है।
ये सब इन्सान का किया-धरा है। ये बड़ा है, ये छोटा है, ये नीचा है वो बड़ा है। ऐसा नहीं हैै। धर्म जो बने हैं वो भी सही बने हैं, धर्मों में कोई कमी नहीं। ज्यों-ज्यों संत-फकीर आते गए उन्होंने मालिक की चर्चा की, अपने मुरीदों, शिष्यों को अलग पहनावा दिया ताकि वो लोग समाज में रहते हुए अगर जब कोई बुरा कर्म करें तो उन्हें शर्म आए कि तू तो फलां गुरु का मुरीद है, तेरा पहनावा तो उन जैसा है। हां, मुरीद न माने तो बात अलग है। ये भेदभाव सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने मिटाया। हम सब इन्सान हैं, एक ही मालिक की औलाद हैं, हम सबके अंदर वो ही मालिक है, वो दो नहीं हंै। किसी भी धर्म को पढ़ लो, हर धर्म में लिखा है-वो एक है।
तो ये सच्ची शिक्षा हमारे धर्मों में लिखी, सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने हमें समझाया और चलना सिखाया, जिसका नजारा आप यहां देख रहे हैं। सभी धर्मों के लोग आए हुए हैं सभी एक जगह इकट्ठे बैठे हुए हैं, कोई भेदभाव नहीं। तो उस मुर्शिदे-कामिल का धन्यवाद भी करेंगे, शुक्राना जितना हो सका- ‘जैसी मै आवै खसम की बाणी तैसड़ा करी गिआनु वे लालो। जैसा मुर्शिदे-कामिल करवाएंगे वैसा आपकी सेवा में अर्ज करेंगे। तो भजन है-
दोनों जहां छाया देखो नूरे जलाल प्यारा,
आज के दिन आया हमरा सतगुरु सोहना प्यारा।
भजन के शुरू में आया-
धन जमीं-आसमान दाता जी पधारे,
खुशियों के गीत गाए दो जहान में सारे।
धन माता-पिता जी प्यारे,
जिनके जी आज हैं दयाल पधारे॥
नूर नूरानी दाता का, दो जहां से न्यारा-न्यारा
जहां मालिक स्वरूप, संत अवतार लेते हैं वह जगह, वह स्थान वास्तव में खुशनुमा हो जाता है। वो रूहें जो व्याकुल हो जाती हैं, परेशान होती हैं उन्हें एक ऐसा सुकून मिलता है, ऐसा चैन मिलता है, जिसका वर्णन लिख-बोल कर नहीं, बल्कि महसूस किया जा सकता है, अहसास हो सकता है, अनुभव हो सकता है। तो भाई! सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम जी महाराज की परम पूजनीय माता आस कौर जी, पूजनीय पिता सरदार वरियाम सिंह जी जिनके यहां जन्म लिया वो बहुत बड़ा घराना, जैलदार थे, कोई कमी नहीं थी, कमी थी तो औलाद की।
परम पूजनीय माता जी बहुत ही दयालु स्वभाव के थे और दया करना, भला करना जिन्होंने अपना लक्ष्य बना रखा था, लेकिन अंदर कहीं ये भी ख्याल कि औलाद नहीं है। एक दिन कोई फकीर आए और कहने लगे कि माता! परेशान हैं। माता जी कहने लगे, आप खाना खा लीजिए। फकीर ने खाना खाया। फकीर कहने लगा, नहीं माता कुछ बात है, आप बताइए। तो माता जी ने बताया कि औलाद नहीं है। उस फकीर ने कहा माता! औलाद तो आपके हो जाएगी पर एक शर्त है। वो हमेशा आपके पास नहीं रहेगी। जितनी देर आपके पास रहना है, रहने के बाद अपने काम के लिए जाएगी, जिस काम के लिए आएगी। तो माता जी कहने लगे जी! कोई बात नहीं।

नन्हे-नन्हे चरणों से जी धरती को जिन छुआ,
जर्रा वो आफताब उसी पल हुआ।
देखे जो एक टक देखता ही जाए,
उनका क्या कहना, जिन्होंने जी छुआ।
चारों तरफ छाया रब्ब का नूरे जलाल जी भारा।
इसमें कोई शक नहीं, जिन साध-संगत ने ऐसा देखा है, पाक-पवित्र जन्म स्थल श्री जलालआणा साहिब में साध-संगत जाती है तो साध-संगत उस पाक-पवित्र धरती को नमन करती है, उनको सिजदा करती है। उस धरती में और अन्य धरती में क्या फर्क है कि वहां पर सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने अपने नन्हे-नन्हे चरणों को सबसे पहले छुआ है तो वो आफताब हो गए। सबके लिए उससे भी बढ़कर हो गई। ऐसा तीर्थ स्थान हो गई,हर किसी के दिल में जगह है, कोई बाहरी पाखंडवाद नहीं है। प्रत्येक की भावना जुड़ी हुई है कि यहां पर हमारे मुर्शिदे-कामिल, सतगुरु ने जन्म लिया है।
‘देखे जो एक टक देखता ही जाए,
उनका क्या कहना, जिन्होंने जी छुआ।’
इस बारे में बुजुर्गवार बहुत सी बातें बताया करते कि बचपन में ही मुर्शिदे-कामिल जब पालने में लेटे हुए थे तो झींवर जो घरों में पानी भरा करता, वहां पर आया और मुर्शिदे-कामिल को देखने लगा, एकटक। लगातार देखता ही रहा। तो परम पूजनीय माता आस कौर जी ने कहा-‘क्यों भाई! क्या देख रहा है? तू अपना काम कर।’ माता जी को लगा कि ये लगातार क्यों देख रहा है, कहीं इसकी भावना में कोई और ख्याल न हो, कोई और विचार न हो। पूज्य माता जी के ऐसा कहने पर वो झींवर कहने लगा, माता! कितना ख्याल होता है माता को अपने बच्चे का, मेरे अंदर कोई ऐसी बुरी भावना या बुरी नजर के ख्याल नहीं हैं, इनमें मुझे महापुरुषों के दर्शन होते हैं और इनमें मुझे मेरा भगवान नजर आता है, इसलिए मैं एकटक देख रहा हूँ और मेरा कोई मतलब नहीं है।
ऐसे ही एक बार एक साधु-फकीर आया और वो भी पालने की तरफ देखने लगा, देखा तो एकटक देखता ही चला गया। पूज्य माता जी ने देखा कि ये साधु लगातार क्यों देखे जा रहा है! और हमारे इधर ये रीत है लोगों में, आम समाज में, कि काला टीका लगाते थे ताकि नजर न लगे। तो माता जी ने ऐसा ही किया। कोमल चेहरे पर कहीं पर काला टीका लगाया तो वो साधु हंसने लगा, कहने लगा, हे माता! मैं कोई बुरी नजर से नहीं देख रहा, आपके इस लड़के के पांव में पूरा पद्म चिह्न है और मुझे मेरा सतगुरु-मालिक इनके अंदर नजर आ रहा है, मैं तो दर्शन कर रहा हूँ। तो भाई! जिन्होंने दर्शन किए एकटक देखते रहे। ‘चारों तरफ छाया रब्ब का नूरे जलाल जी था’ और चारों तरफ खुशियों के फुहारे फूटने लगे। क्योंकि जब औलाद नहीं होती वहां औलाद हो तो खुशियों का क्या कहना लेकिन जिसके घर कुल मालिक आ जाएं तो उस घर में तो फिर कहना ही क्या, माता-पिता की खुशी का ठिकाना ही क्या, उसका कैसे वर्णन किया जाए। इस बारे में लिखा-बताया है-
मौलवी रूम साहिब जी फरमाते हैं कि पीर के अंदर प्रभु का नूर दिखाई देता है, हम उसकी जाहरी इन्सानी शक्ल को देखते हैं इसलिए हम ये नहीं जान सकते कि वो अंदर से प्रभु होता है, देखने में वो इन्सानी सूरत रखता है पर वो प्रभु आप होता है।
रूहों ने तड़प के दातार को बुलाया,
आओ जी दाता, हमें काल ने सताया।
सुनके पुकार जी शताबी चला आया,
साथ में नाम की चाबी जी लाया।
करने आए दाता रूहों का भव से पार उतारा॥
रूहें जब मालिक की याद में तड़पती हैं, बेचैन होती हैं तो उनकी इच्छा को देखते हुए मालिक अपना स्वरूप, संत-सतगुरु को इस धरत पर भेजते हैं ताकि उनको सीधा राह दिखाया जाए। जब रूहों को कोई रास्ता नजर नहीं आता, जिधर देखो माया का पसारा है, बोलबाला है, हर कोई पैसा चाहता है। आशीर्वाद चाहिए तो पैसा, बड़ा आशीर्वाद चाहिए तो बड़ा पैसा और हैरानी इस बात की है कि लोग ये नहीं समझते कि जो आशीर्वाद हमें मिल रहा है और उसका हम पैसा दे रहे हैं तो आशीर्वाद बड़ा है या हम बड़े हैं? जब हमने पैसा दिया तभी आशीर्वाद मिला।
तो पैसा बड़ा है जिसने आशीर्वाद देने के लिए मजबूर कर दिया। वो कोई आशीर्वाद है! वो तो एक बिजनेस, व्यापार है। आशीर्वाद का मतलब होता है पीर-फकीर अपना नजरे-करम करें, मालिक से दुआ करें और अपने मुरीदों को संकेत करें उसका कि मालिक से आपके लिए दुआ कर रहे हैं। वो सच्चा आशीर्वाद होता है, जिसके बदले में कुछ नहीं लेते। तो भाई! ये सब बातें मुर्शिदे-कामिल ने बताई वरना उससे पहले रूहें पाखंडवाद, दुनिया के और कारोबार में उलझ कर तड़प रही थी। तो जैसे ही रूहें तड़पी, उनकी पुकार सुन कर जल्दी ही मालिक चलकर आए, उनको समझाया कि भाई! जैसे कपड़ा होता है, उस पर मैल लग जाती है और उसको धोने के लिए साबुन, अच्छा पाउडर हो, मल-मलकर धोया जाए तो वो मैल, धब्बे उतर जाते हैं।
उसी तरह आपकी आत्मा पर मन की, बुरे विचारों की मैल लगी हुई है और उसको धोने के लिए कोई अगर साबुन है, पानी है तो वो पानी है सत्संग और वो साबुन है ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहिगुरु का नाम। वाहिगुरु के नाम का सुमिरन करो, भक्ति-इबादत करो, वो मालिक आपके अंदर बैठा है, दया-मेहर, रहमत का दाता। आप सुमिरन करेंगे तो मालिक दया-मेहर करेंगे और आपकी आत्मा पाक-पवित्र होते हुए मालिक के दर्श-दीदार के काबिल जरूर बन पाएगी। इतना सीधा राह दिखाया। कहीं भी कोई ढोंग करने की जरूरत नहीं, मालिक को याद करो, घर में रहकर करो, काम-धंधा करते हुए करो। मालिक को जिह्वा से याद करो, ख्यालों से करो उसका फल आपको जरूर मिलेगा। आसान तरीका, आसान रास्ता मुर्शिदे-कामिल ने बताया। रूहें जब तड़पती हैं, उन्हें भव से पार करने के लिए मुर्शिदे-कामिल, सतगुरु चलकर आते हैं। इस बारे में लिखा-बताया है जी-
जब रूहें मालिक की तलाश में व्याकुल होती हैं और अपने निज घर जाने के लिए बिलखती हैं तो हमारी आंखें उसको देखने के लिए तरसती हैं और भूखी होती हैं, उनकी तीव्र इच्छा पूरी करने के लिए सतगुरु अवतार धारण करता है, उनको बंधनों से छुड़वाने के लिए बंदी छोड़ बन कर आ जाता है और ऐसी रूहों को उनके अधिकार के अनुसार उपदेश देकर मालिक से जोड़ देता है।
मन का गुलाम सारा हो गया था जग जी,
कर रहे कर्म सब मन पीछे लग जी।
मन ने लगाए पीछे पांच ठग जी,
भरमाए जाल डाल-डाल कर अलग जी।
इनसे बचने का ढंग बताने आया सतगुरु प्यारा।
सबसे पहले आपको ये बताएं कि मन और माइंड एक नहीं हैं। क्योंकि इंग्लिश में लोग मन को ही माइंड या माइंड को ही मन कहकर बुलाते हैं, यह बिल्कुल गलत है। क्योंकि सभी धर्मों को पढ़कर देखा, उनमें लिखा है कि मन में बुरे ख्याल के सिवाय कोई दूसरा ख्याल आता ही नहीं, वो बुराई की जड़ है जबकि दिमाग में तो अच्छे ख्याल भी कभी-कभार आ जाते हैं, फिर इसे मन कैसे कह सकते हैं? असल में मन वो है जो इन्सानी दिमाग को निगेटिव थॉट्स, बुरे विचार, बुरे ख्याल देता है और अच्छे ख्याल जो देता है उसे हिंदू और सिक्ख धर्म में आत्मा की आवाज और मुसलमान फकीर रूह या जमीर की आवाज कहते हैं। तो मन जबरदस्त ताकत है।
हवा की गति बहुत है, प्रकाश की गति भी बहुत है लेकिन जितनी मन की गति है उतनी गति किसी और की नहीं हो सकती। आप कहीं भी बैठे हों, सैकिंड के भी बहुत कम हिस्से में आपको दुनिया के किसी भी कोने में ले जाएगा और अगले ही पल जहां बैठे हैं वहां ले आएगा। यकीन मानिए, बहुत ही जबरदस्त है। लोग दिखने में कुछ और नजर आते हैं, ऐसा भयानक कलियुग है, ऐसा भयानक समय है। कहीं आप सोचें, ये भक्त है जी, इसकी बात तो पत्थर पर लकीर है या लोहे पर लकीर है। अगर कोई रूहानियत के रास्ते से हटकर मन की बात कहता है तो वो मन का मुरीद है अपने सतगुरु का मुरीद नहीं हो सकता। ऐसे कोई भी इन्सान हैं, उनसे बच कर रहिए।
क्योंकि ये कलियुग है यहां रूहानियत का पहनावा पहन कर लोग पल में दूसरे को छल सकते हैं। क्योंकि ऐसा होता है। क्योंकि मस्त हो गए कि हम तो जी, सतगुरु की भक्ति करते हैं, मालिक को मानते हैं और चार-पांच बातें मालिक की सुनाता है और बदले में नोट लेकर चलता बनता है, बाद में रोते रहते हैं। तभी सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम सिंह जी महाराज फरमाते हैं ‘रहणा मस्त ते होणा होशियार चाहिदा’। मस्त रहो मालिक की याद में, लेकिन इतने भी नहीं कि जो आए, मालिक-सतगुरु के नाम पर आपको लूट कर चलता बने कि आप अपने दिमाग का इस्तेमाल ही न करें। मालिक ने दिमाग दिया है सोचने के लिए, इससे सोचा करो, विचार किया करो, फिर सामने वाले की बात पर विश्वास करो। बेपरवाह जी ने फरमाया-‘नाम ध्याने वाले अहंकार में न आना, करी-कराई भक्ति माटी में न मिलाना’।
हे मालिक को याद करने वाले! तू भी अहंकार में मत आ जाना। क्योंंंकि अगर अहंकार में आ गया तो करी-कराई भक्ति खाक में मिल जाएगी। तो ये मन की चालें हैं, इन्सान को तिगड़ी नाच नचा रहा है और किसी हद से भी गिरा सकता है ये मन। इसलिए मन से बचने के लिए मन से लड़ो, बुरा ख्याल आपके अंदर आता है तो सुमिरन करो, चाहे पांच मिनट ही करो, यकीन मानिए, वो बुरा विचार आना बंद होगा और उसके फल से भी आपकी बचत जरूर हो सकती है। इससे आसान तरीका और क्या हो सकता है जो सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम जी महाराज ने बताया। तो मन के बारे में लिखा-बताया है जी-
मन का ये काम है कि किसी को अपने दायरे से बाहर नहीं जाने देता। इसने जीवों को एक तरह का जादू करके फरेब से काबू में रखा हुआ है और हम अपने निज घर को भूल बैठे हंै और दर-ब-दरी हमारे भागों में लिखी गई। नाम के जपने से सारे सांसारिक बंधन और बाहर वाली खींचें हट जाती हैं। मन नीच गतियों को छोड़ देता है और इन्सान काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार रूपी पांच वैरियों को जीत लेता है। जब सुरत इनसे आजाद हो जाती है तो वो आत्मिक मंडलों की तरफ उडारी मारती है और अपने निज घर पहुंचकर सदा सुख पाती है।
‘पड़े पीछे पांच ठग जी, भरमाए जाल डाल-डाल के अलग जी।’
काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ये पांच ऐसे वैरी हैं दोस्त बन कर धोखा देते हैं। ये मन इंद्रियों को फैलाव में रखते हैं, उनमें जोश भरते हैं और इन्सान बुरे कर्मों की तरफ प्रेरित हो जाता है इनसे बचने का ढंग भी वो ही है जो मन से बच निकलता है। ये मुर्शिदे-कामिल ने बताया- ‘इनसे बचने का ढंग बताने आया सतगुरु प्यारा।’ कि आप अपने विचारों को काबू कर सकते हैं, ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहिगुरु, गॉड, खुदा, रब्ब की भक्ति-इबादत से, उसकी बंदगी से, सुमिरन से। तो आपके विचार आपके काबू में आएंगे। तो आप से सुखी और कोई हो ही नहीं सकता। विचार ही तो हैं जो दुखी करते हैं, बैठने नहीं देते चैन से। पास में लाखों रुपया है, बहुत खुशी है कि मैं इतना अमीर हूँ, धन-दौलत है पर पड़ोसी के पास अगर करोड़ है तो लाखों की खुशियां गायब उन करोड़ों का दु:ख दोगुना आता है।
इसके क्यों हो गया? फिर अरदास करता है कि हे भगवान! मैं भूखा सो लूंगा, पड़ोसी के आग लगा देना, मेरी तो कोई बात नहीं। अरे, मांगना ही है तो कुछ अच्छा ही मांग ले कि भगवान सबका भला कर। तेरे हिस्से में से तो काट कर देगा नहीं। पर नहीं, जो ईर्ष्या, नफरत में फंस जाते हैं वो ऐसा ही करते हैं और मन जालिम पीछा नहीं छोड़ता। आप भक्ति नहीं करते, सुमिरन नहीं करते, सिर्फ बातें ही करते हैं तो मन कभी भी दगा दे सकता है। जब तक सुमिरन भक्ति-इबादत नहीं करोगे, ये जाता नहीं। ये जालिम अंदर ही अंदर कचोटता रहता है। इससे बचना है तो सुमिरन कीजिए, भले-नेक कर्म कीजिए तभी ये आपका पीछा छोडेÞगा, वरना इस मन का पता नहीं कब दांव चला दे। किसी की बात पर विश्वास मत कीजिए, मनमते लोगों की सोहबत में मत बैठिए और मालिक की याद में समय लगाइए तो मालिक की दया-मेहर, रहमत से आप इससे बच सकते हंै, बुराइयों से पीछा छूट सकता है। आगे भजन में आया-
नशे की रोगी हुई कंचन सी काया,
नशों से घर को जी नरक था बनाया।
मांस लगे खाने, अच्छा खाना ना भाया,
दया-रहम का होने लगा जी सफाया।
सब बुराइयां छूट गई जब दिया संदेश प्यारा।
नशे लोगों को मस्त करते हैं लेकिन खुशी के लिए नहीं बल्कि आने वाले समय में शरीर को दु:ख देने के लिए। पहले मस्ती लगती है। ‘नशा पीकर सारी दुनिया भूल जाओ, भांग का रगड़ा लगाओ, मालिक पाओ’ ऐसे नारे सुनने को मिलते हैं। पर सच्ची बात यह है, ‘भांग को रगड़ा लगाओ तो शरीर को मार मुकाओ’। कोई भी नशा है बर्बादी का घर है। बहुत ही भयानक नशे हैं। कोई भी नशा कभी भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि नशा इन्सान को गुलाम बना लेता है। नशा बर्बादी का घर है और आपको अपने मन के ख्यालों में घुमाता रहता है।
मन के पास नकल बहुत है, जैसे मालिक ने रचना की है काल ने भी रचना की है। नशे में आकर कई लोग भक्ति में बैठते हैं तो अंदर ही अंदर मन उन्हें नकली ढांचे में फंसा लेता है, जिसे मुसलमान फकीर कहते हैं कि शैतान के चंगुल में फंस गया, हिन्दू धर्म में कहते हैं काल के दायरे में फंस गया। उसका भी दायरा जबरदस्त है। दुनिया में रंग-बिरंगा कितना सामान है, ये सब दयाल की नकल है। यहां तो कुछ भी नहीं, वहां पर यहां से अरबों-खरबों गुणा बढ़कर स्वाद, लज्जत आनंददायक साजो-सामान है। लेकिन कोई यहां से जाने का नाम नहीं लेता। जरा सा कोई ऐसा डर हो, चाहे कितनी भक्ति की हो, कैसा भी हो, कहता कि ना भाई, मालिक सही, वहां मिलेगा ये भी सही है, वहां सुख भी बहुत है, ये भी सही है पर यहां से जाने को दिल नहीं करता। तो वाकई देखिए, आप सोचिए, काल ने एक नकल तैयार की है उसमें कितना बुरी तरह से फंसा हुआ है ये इन्सान और उस नकल में फंसाने का काम करता है नशा। असल में आना है तो राम-नाम का नशा करो। एक बार अगर असल की चमक नजर आ गई तो आपको पता चलेगा कि यूं ही उम्र झूठ में गुजार दी। क्यों नहीं मालिक की याद में समय लगाया। वो नजारे, वो लज्जत मिलेगी जो वर्णन से परे है। ऐसी मस्ती, ऐसी खुमारी जो वर्णन से परे है। सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने बताया, संदेश दिया नाम का, जिससे आप नशों से बच सकते हैं।
पाखंड का फैला हुआ था अंधेरा,
अंधविश्वास का था छाया काला अंधेरा।
रब्ब नाम पे लूट रहे थे बतेरा,
झूठ छाई रात, खोया सच का सवेरा।
सत्संग लगाकर दाता जी ने उड़ाया पाखंड जी सारा।
पाखंडवाद का क्या कहना। जगह-जगह पर पाखंड चले हुए हैं और इन्सान पाखंडवाद में फंसा हुआ अपने प्रभु, अपने मालिक, अपने परमात्मा को भूल जाते हैं। पाखंड बहुत तरह का है। कहीं भी निगाह मारिए अपने समाज में, अलग-अलग स्टेटों में पाखंडवाद में लोग उलझे हुए नजर आएंगे। कहीं जाते हैं कोई छींक मार दे तो गलत काम, नया कपड़ा पहनना है वो चढ़ते सूरज की तरफ मुंह करके पहनो आदि पाखंड बनाए हुए हैं। छिपते सूरज की तरफ मुंह करके नया कपड़ा पहन लिया तो क्या वह फट जाएगा? पर नहीं, पाखंड बना हुआ है। दांत निकलता है बच्चों का तो मां-बाप सिखाते हैं कि रूई में छिपाकर चंद्रमा को पहुंचा दे, उसको राम-राम भी बोल दे नया दांत दे जाएगा।
वो बच्चा वाकई सोचता है, दांत क्यों यूं ही फैंका, और चंद्रमा पर फैंकते हैं कि चंद्रमा पर गया है, नया आने वाला है। ये है तो छोटी-छोटी बातें पर, है तो पाखंड। जूती इधर-उधर या आगे-पीछे हो जाए, आम कहावत है कि ‘जुत्ती राह पै गई’ (जूती राह पड़ गई है) अब कहीं जाना पड़ेगा। अगर ऐसी बात होती तो सास-बहू में अगर लड़ाई होती है तो बहू तो सास की जूती आगे-पीछे ही रखेगी, वो घर में सास को क्यों आने देगी कि तू बाहर ही रह या फिर बहू की जूती सास आगे-पीछे करती पर ऐसा होता नहीं। यह निरा पाखंड है।
और भी बहुत से पाखंड हैं। अगूठियां हैं या फिर ये बताना कि आपके ग्रह चक्कर सही कर दूंगा। हम चैलेंज करते हैं कि सिवाय भगवान के ऐसा कोई नहीं है जो आपके ग्रह चक्कर सही कर सकता है। एक पल के लिए सोचो। अगर कोई आपके ग्रह चक्कर सही करके आपको रुतबा दिलवा सकता है तो वो खुद के ग्रह चक्कर सही कर ले और सारी दुनिया का राजा बन कर बैठ जाए। क्यों नहीं करता, खुद के ग्रह चक्कर सही! असल में वो ग्रह चक्कर सही नहीं करता, अगर सही हो गए बाईचांस तो आपके लिए वो भगवान है, सही नहीं हुए तो कहेगा, तेरे कर्माें में फर्क है। मैंने तो राहू का इंतजाम कर दिया था अब केतू आ गया, मैं क्या करूं।
तो इस तरह से केतू गया शनि आया, शनि गया बृहस्पति आया, बृहस्पति गया मंगल आया। या तो आप नहीं आएंगे या फिर जेब नहीं, वो खाली हो जाएगी। तो भाई! इन पाखंडों में मत पड़िए। ‘हिम्मत करे अगर इन्सान तो सहायता करे भगवान’। ‘हिम्मते मर्दां मददे खुदा’। आप हिम्मत कीजिए। ‘थितवार ना जोगी जाणै रुत माह न कोए॥ जा कर्ता सिरठी कउ साजै आपै जाणै सोए॥’ वो सृष्टि का रचने वाला भोला नहीं है, उसने दिनों के नाम नहीं रखे, उसने दिन और रात बनाए हैं और वो भी फायदे के लिए। कहते हैं ये दिन अच्छा, ये दिन बुरा।
ये आपका भ्रम है। कोई भी दिन बुरा नहीं अगर अच्छे कर्म करो और कोई बुरे कर्म करने लगे तो आने वाला समय बुरा हो जाता है। मालिक की भक्ति-इबादत करो तो उस समय से छुटकारा मिल जाता है। तो भाई! पाखंडों में कभी न उलझो। लोगों में डर का भूत ज्यादा है। भूत-प्रेत की अगर कोई जूनि मानी भी गई है तो वो इन्सानी शरीर के लिए तड़पते हैं, उनको शरीर नहीं मिला इसलिए किसी को क्या करेंगे लेकिन लोग ऐसे ही उनके लिए भ्रम पैदा कर देते हैं। बस, अपना रोजगार चलाते रहते हैं, तो ऐसा ठगों का पसारा फैला हुआ था। पाखंडवाद में पड़ने से इन्सान सब कुछ गंवा बैठता है।
गुनाहगारों को दाता प्यार जो दिया,
वर्णन उसका जाए न किया। ऐसा प्रेम का जाम दिया,
चढ़ी रहे खुमार जिसने एक बार पीया।
प्रेम दिया सोहने दाता जी दोनों जहां से न्यारा।
गुनाहगार, अपने गुनाह से तौबा नहीं करता, तब तक उसे अहसास नहीं होता, जब तक उसे ठोकर नहीं लगती। पर ऐसे मुर्शिदे-कामिल, जिसने ठोकर की नौबत आने नहीं दी और गुनाहगारों को माफ ही नहीं किया, बल्कि मालिक के दर्श-दीदार के काबिल बना दिया। ऐसे सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम जी महाराज, जिन्होंने सच्चाई का राह दिखाया। आज यहां पर बहुुत लोग सेवा कर रहे हैं, ऐसे-ऐसे सज्जन हैं जो सेवा में बहुत आगे हैं और उनकी जिंदगी का वो हाल सुनाते हैं तो सुनने वाले दंग रह जाते हंै। कई सज्जन ऐसे भी हैं जो बताते हैं कि हमारे पास सारे स्टेट का ठेका हुआ करता था, सारे स्टेट को शराब हम ही दिया करते थे और हम सुबह पीने लगते और शाम तक पीते थे, पीते चले जाते, पेटियां खत्म हो जाया करती और डाक्टरों ने ये कह दिया कि आप खत्म होंगे लेकिन सच्चे मुर्शिदे-कामिल की शरण में आए, खत्म तो क्या, आज वो सेवा भी कर रहे हैं और नशे के नजदीक जाते भी नहीं बल्कि लोगों को नशे से बचाते हैं।
यह एक उदाहरण नहीं, ऐसे लाखों उदाहरण हैं, जो बुराइयां छोड़कर नेक बन गए। ऐसे मुर्शिदे-कामिल का कोई देन कैसे दे सकता है, जिसने कुछ भी तो नहीं मांगा, कुछ भी नहीं। न अपना आराम, न सेहत की परवाह किसी भी चीज की परवाह नहीं की। कई बार सर्दी हुआ करती, नजला चलता, साध-संगत को पता तक भी न चलता और सच्चे मुर्शिदे-कामिल सत्संग, अपनी ड्यूटी कभी नहीं छोड़ा करते। हर समय अपनी ड्यूटी देना, सत्संग करना और यही कहना कि मालिक तू रजा में रखता है, तू ही धन्य है, हे बेपरवाह मस्ताना जी महाराज! तू धन्य है, धन्य है, धन्य है और सच्ची बात यही है कि वो सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम जी महाराज धन्य हैं, धन्य हंै, धन्य हैं। सब कुछ वो ही करवा रहे हैं, कर रहे हैं और करते रहेंगे, ये उन्हीं की दया-मेहर, रहमत है।
जिसको सतगुरु नवाज देता है, दुनिया में हिम्मत नहीं होती उसे मिटा सके। वो मालिक जिस पर रहमत करता है, दया-मेहर करता है, उसकी झोलियां दया-मेहर, रहमत से लबालब जरूर भर देता है। ये उसकी दया-मेहर का कमाल है। वो जिसको नाम देता है, नवाजने का मतलब, जिसे वो सुमिरन का तरीका बताता है और मुरीद वचनों पर अमल करे, तो बेपरवाह जी के वचन हैं, शाह सतनाम जी महाराज ने साफ फरमाया है-‘‘जे बंदा आखे तेरा हां, तां घाट नी रहंदी बंदे नूं’’ कि कह दे कि मैं तेरा हूँ, कहने का मतलब बुराइयां छोड़ दे, वचनों पे अमल करे, सुमिरन करे तो उस इन्सान को कमी नहीं रहती। तो भाई! ऐसे पाक-पवित्र वचन शाह सतनाम जी महाराज के पाक-पवित्र मुखारविंद से सुने।
गुनाहगारों को दाता प्यार जो दिया, वर्णन उसका जाए न किया।
ये तो एक जुबां है, किसी की बात नहीं, हम अपनी बात कर रहे हैं, चर्चा कर रहे हैं जो उस मालिक की दया-मेहर, रहमत,प्यार-मुहब्बत का वर्णन करें तो ये एक जुबां क्या, रोम-रोम जुबां हो, साल, 10 साल या 15 साल या 60-70 साल क्या, हजारों साल हों तो भी ऐसे मुर्शिदे-कामिल का वर्णन लिख-बोल कर करना असंभव है, नहीं किया जा सकता। उस अहसास के लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं हैं। बस एक ही शब्द है, हे मुर्शिदे-कामिल! हे शाह सतनाम सिंह जी महाराज! तू धन्य है, धन्य है, धन्य है, तेरी महिमा अपरम्पार है।
तू दया-मेहर का सागर है और जीवों का आधार है, ऐसे ही उद्धार करना, सब को दया-मेहर, रहमत बख्शना, हर कोई तेरा बंदा है, हर कोई आपस में प्रेम करे बेगर्ज-नि:स्वार्थ और तू दया-मेहर, रहमत से उनकी झोलियां भरे। हे मालिक! ये यकीन है, तू दया-मेहर में कमी नहीं छोड़ता। कमी इन्सान में आ जाती है पर तू फिर भी माफ करता है, क्षमा करता है। एक बार अगर कोई तेरे को छुप कर याद करता है तो तू उसकी झोलियां दया-मेहर से भर देता है ऐसा होते देखा है। तो ऐसे मुर्शिदे-कामिल का बहुत-बहुत शुक्र करते हैं, धन्यवाद करते हैं, धन धन कहते हैं जी। ऐसे मुर्शिदे-कामिल जिनका प्यार-मुहब्बत सबसे न्यारा है। जैसे अगर कोई ये पूछे कि पानी और मछली का क्या संबंध है तो पूछने वाले की कमी है, जाहिरा तौर पर साफ नजर आता है, शमा-परवाने का संबंध है, कोई बताने की जरूरत नहीं है।
उसी तरह एक मुरीद अपने गुरु-मुर्शिदे-कामिल के साथ जुड़ा रहता है, उसके लिए सब कुछ उसका सतगुरु, मुर्शिदे-कामिल है, जो उसको राह दिखाता है। क्योंकि वो अपने स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि परमार्थ के लिए वचन करता है और मुरीद हमेशा अपने मुर्शिदे-कामिल के लिए हर समय परवाने की तरह तड़पता है, उसकी याद में समय लगाता है और फिर गुरु जब नाम बख्शता है, उसी की दया-मेहर से वो सतगुरु, अल्लाह, राम मालिक का स्वरूप जरूर नजर आता है जो अमल करते हैं। भजन के आखिर में आया जी-
‘शाह सतनाम जी’ मालिक प्यारे, खण्ड-ब्रह्मण्ड सब तेरे सहारे।
खाक दास को मीत बनाया, हउ बलिहारे जाउं दाता तिहारे।
सब किया कर रहे, करना सब कुछ तू ही यारा, यारा, यारा।
इस बारे में लिखा-बताया है जी-
सतनाम सच्चे मालिक का नाम है जो खण्डों-ब्रह्मण्डों को लिए खड़ा है और हर एक के अंदर धुनकारें दे रहा है।
तो उस मुर्शिदे-कामिल का प्यार-मुहब्बत को ब्यान नहीं किया जा सकता। यहां पर ‘यार’ शब्द प्रयोग करके सुनाया, इसके साथ एक बात जुड़ी हुई है, मालिक का पर-उपकार, रहमत, दया-मेहर की। एक बार सेवा करके हम आ रहे थे और मुर्शिदे-कामिल से मिले। बातचीत चली तो बेपरवाह जी ने इशारा किया, हमें बुलाया और कहने लगे, आपको प्रेम की निशानी देते हैं, आगे तो आप भक्त थे लेकिन आज से हम आपस में पक्के ‘यार’ हैं। तो उस मुर्शिदे-कामिल की कहानी वो जाने। कोई समझ नहीं पाया क्या बात है, समझ तब आया जब उन्होंने सबको समझाया। वो मालिक जाने, उनके पाक-पवित्र वचन। डेढ़ साल बेपरवाह मुर्शिदे-कामिल के साथ बैठा करते बॉडी स्वरूप में, बाकी तो वो जाने उनका काम जाने। तो हर बात पर फरमाया करते कि भाई! हम थे, हम हैं और हम ही रहेंगे।
ये मत सोच लेना कि हम बदल रहे हैं। डेढ़ साल, एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, 15 दिन नहीं। फिर भी इन्सान कोई न समझे, वो जाने उसका मालिक जाने, मालिक सबका भला करे पर उस मुर्शिदे-कामिल ने क्या समझाया है, ग्रंथों में क्या लिखाया है, क्या बताया है, ये कहने की बात नहीं है और रूहानियत की किताब में ऐसा कभी भी पढ़ा नहीं, ये तो हमने पढ़ा, क्योंकि मुर्शिदे-कामिल की ही दया-मेहर, रहमत से बहुत ही पाक-पवित्र ग्रंथों को पढ़ने का मौका मिला। ये तो हमने पढ़ा कि जब भी सतगुरु, मुर्शिदे-कामिल शरीर रूप से इस दुनिया से अपने निज मुकाम जाते हैं तो ये कहते हैं कि मेरे बाद ये, मेरे बाद वो या फिर कोई प्रसाद देते हैं लेकिन ये पहली बार सुना शायद आपने भी पहली बार सुना हो बाकी पता नहीं। हम तो पहली दफा सुन रहे हैं कि हम हैं, हम थे और हम ही रहेंगे तो ऐसे मुर्शिदे-कामिल का परोपकार, एक जर्रे को, हम तो खाक हैं, इस खाक को आफताब बना दिया।
उन्हीं का प्रकाश दुनिया ले रही है और उन्हीं की दया-मेहर, रहमत से मालामाल हो रही है। हम तो आपके चौकीदार हैं, खाक हैं, करने वाला वो सतगुरु, वो मालिक है, दया-मेहर, रहमत का दाता है और कई बार इतनी भीड़ है, मुर्शिदे-कामिल के पाक-पवित्र जन्म महीने में, किसी के दिल में भी ठेस लग जाती है, महसूस होता है, क्योंकि भीड़ में धक्का भी पड़ता है, नए जीव आते हैं, धक्के में आ जाते हैं, सेवादार उनको रोकते हैं, वो आगे आना चाहते हैं, कई बार बहस, तकरार भी हो जाती है, तो भाई! अगर ऐसा किसी के साथ कोई बात हो जाती है तो अपने तो यही कहते हैं कि मालिक उनको ताकत दे और जिनसे ऐसा हो जाता है उन्हें माफ किया जाए क्योंकि सतगुरु ने माफ करना सिखाया है, किसी को ऐसा बुरा कहना नहीं सिखाया।
तो किसी से ऐसा कुछ हो जाता है तो महसूस न करे, उसके लिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि कभी भी ऐसी बात को दिल में न लगाइए। किसी के साथ भी ऐसा हो जाता है क्योंकि संगत बहुत ज्यादा आती है, तो दिल पर मत लें। उस मुर्शिदे-कामिल के प्यार का अंदर जज्बा रखें और सेवादार भी अपनी तरफ से पूरी कोशिश किया करें, जितना हो सके, प्यार से, झुक जाइए क्योंकि सच्चे सौदे का उसूल है, ‘झुक गया सो पा गया, तन गया सो गवा गया’ यानि दीनता-नम्रता रखिए, जुबां पर मिठास रखिए, हाथ जोड़कर भी वो बात कह सकते हंै जो कर्कश आवाज में कहते हैं। ऐसा सारी साध-संगत ध्यान रखे।
सच्चे मुर्शिदे-कामिल का ये पाक-पवित्र जन्म महीना है और उस मालिक, सतगुरु से हमेशा यही दुआ-प्रार्थना करते हैं कि हे मालिक! दया-मेहर, रहमत कर। जो इन्सान अज्ञानता वश कुछ कर बैठता है, कुछ कह बैठता है, जाने-अंजाने में, तू दया-मेहर, रहमत का दाता है, उनकी खताएं माफ कर और ऐसी ताकत दे कि वो तेरे प्रकाश के सहारे चलते हुए अपनी मंजिले-मकसूद पर पहुंचें और तेरे दर्श-दीदार के काबिल बन सकें, हे मालिक! सब पर रहमत कर, दया-मेहर रख।
कई सज्जनों की चिट्ठियां भी आती हैं, कई सज्जन वैसे भी पूछते हैं कि पिताजी! आप परम पिता जी के साथ अपना कोई अहसास बताएं। अहसास बताने के लिए जुबां कई बार साथ नहीं देती और आंखें भी साथ नहीं दे पाती पर फिर भी ख्याल में आया क्योंकि कई बार कई चिट्ठियों में कई सज्जन पूछते हैं। बात है 1989 की। बेपरवाह सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने एक बहाना सा बनाया कि बीमारी है। वो जानें, डाक्टर लोग जानें और बेपरवाह जी बीकानेर चले गए। वहां सच्चे मुर्शिदे-कामिल की रहमत से खाक को समय मिला, दास भी वहां पहुंचे, उनकी सेवा में चार-पांच भाई सेवादार हम पहुंचे। सेवा किया करते, हाथ में झाडू लिया करते। मुर्शिदे-कामिल एक जगह पर घूमने जाया करते। वहां बहुत कंकर थे, छोटे-छोटे पत्थर थे। तो हम जब वहां गए और देखा सभी ने कि मुर्शिदे-कामिल जाते हैं, कदमों के नीचे थोड़े कंकर आते हैं, कोई सज्जन साथ में सहारा देता है तो ख्याल आया।
हमने झाडू उठाया और अपने चल दिए वहां पर। परम पिताजी कुछ कदम 10, 20, 30 या फिर 35-40 कदम ही चला करते तो वहां तक सफाई करते कि सतगुरु यहां तक आएंगे। एक दिन, सतगुरु ख्याल देने वाला, वो जाने उसका काम जाने, ख्याल आया, साथ वाले कहने लगे कि इतना ही काफी है, साफ है। हमने कहा, नहीं! आज आखिर तक जाएंगे। साथ वाले कहने लगे कि वहां तक तो 400-500 कदम हैं, इतना तो बेपरवाह जी कभी चला ही नहीं करते, वो हंसने लगे। हमने कहा, कोई बात नहीं भाई! अपने तो चलते हैं। हमने झाड़Þू लिया और वहां तक सफाई करते चले गए। जब आगे वहां तक जगह नहीं थी, बहुत नीची जगह थी, गहरी थी तो वहां जाकर रुक गए।
वो हंसने लगे, कहने लगे कि वैसे ही मेहनत कर रहे हो, क्या फायदा? सतगुरु जी तो यहां तक आते ही नहीं। हमने कहा, भाई! वो जाने, उसका काम जाने। अपना जो काम है, अपना फर्ज अदा करो बाकी मालिक जाने। तो अगले दिन क्या हुआ अचानक, सच्चे मुर्शिदे-कामिल आए, उनके खेल की बात है, उनकी महिमा है, पहले दो सज्जन उनको सहारा देते, बेपरवाह जी चलते, उस दिन बेपरवाह जी कहते कि हटो! इतना तेज भागे कि वो पीछे रह गए और बेपरवाह जी बिल्कुल आखिर तक जा पहुंचे। 500 कदम! तो ये उनके रहमो-करम का कमाल है, कहां 15 कदम चलते थे। ये हम नहीं कहते कि हमें पहले पता चला, ये वो जाने, उन्होंने क्या किया, उनके प्यार ने क्या किया, उनकी मुहब्बत ने क्या किया।
हम तो दिन-रात उनके दर्श-दीदार के लिए बैठे रहा करते थे कि दर्श-दीदार हों, कैसे हों, कैसे झलक मिले तो वो मुर्शिदे-कामिल की रहमत, दया-मेहर जिसका कोई लिख-बोल कर वर्णन नहीं किया जा सकता। हमने तो सिर्फ सूरज को दीपक दिखाने के मानिंद आपसे चर्चा की है। करवाने वाला वही है सच्चा मुर्शिदे-कामिल। — ***–































































