अक्सर यह सवाल उठता है, ‘मनुष्य श्रेष्ठ जीव है पर वह तो जन्म से कोरा कागज होता है। उसे हर काम सिखाना पड़ता है।
Sanskar बार-बार याद कराना पड़ता है कि उसे क्या खाना है, क्या नहीं खाना। खाना भी है तो कैसे खाना है। क्या बोलना है और क्या हर्गिज नहीं बोलना। कहां जाना है, कहां नहीं जाना। किस मौसम में कैसे रहना है।
आचार विचार संस्कार जैसे अनेकों झमेले हैं जबकि पशु, पक्षियों को कुछ नहीं सिखाना। उनमें सभी गुण जन्मजात होते हैं जैसे मधुमक्खी को सिखाना नहीं पड़ता कि छत्ता कैसे बनेगा, शहद कैसे बनेगा।
जीवों को तैरना, उछलना कूदना, फूल को सुगंध बिखेरना, फल को स्वाद और मिठास बांटना कोई नहीं सिखाता। फिर भला मनुष्य श्रेष्ठ जीव कैसे हुआ? काहे तुलसी बाबा कह गए, ‘बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सद् ग्रन्थन्हि गावा।’
देख सकते हैं कि पत्थर यत्र तत्र बिना निगरानी के पड़े हैं लेकिन सोना तिजोरियों में बंद है। सोना ही क्यों, पीतल, तांबा, एल्युमिनियम, लोहा आदि आदि की भी निगरानी करनी पड़ती है क्योंकि इन धातुओं की उपयोगिता है। इनके गुण धर्म, विशेषताएं अनेक संभावनाएं समेटे हुए हैं इसलिए इनकी संभाल करनी पड़ती है।
जैसे हमारी माता, बहनें, बहुएं घर के बर्तनों की संभाल करते हुए उन्हें धूल, मौसम आदि के प्रभाव से बचाने और उनकी चमक बरकरार रखने के लिए उन्हें यदा कदा मांजती रहती हैं, उसी तरह मनुष्य के स्वाभाविक गुणों को संभालना पड़ता है।
जब तक उसके मन, वचन, कर्म में एकरूपता नहीं आती, उसे बार-बार याद कराना पड़ता है कि उसे क्या, कब, कैसे करना है क्योंकि वह केवल जीव नहीं, विवेकशील जीव अर्थात् मनुष्य है। सरल भाषा में कहें तो मनुष्य रूप में जन्मे बालक को उसके स्वाभाविक गुणों से भटकने से रोकना और मानवता का मस्तक ऊंचा करने वाले ज्ञान का नाम ही संस्कार हैं।’
‘बच्चे में स्वाभाविक, नैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक गुणों के विकास का प्रयास उसे संस्कारित करना ही तो है। अपने समाज के रीति-रिवाजों और श्रेष्ठ परम्पराओं के बारे में उसके मन मस्तिष्क में भाव रोपण ही संस्कार है। संस्कार ही उसे करणीय, अनुकरणीय का बोध कराता रहे।
यदि उसे ‘मनुष्य और मनुष्य’ से ‘मनुष्य और प्रकृति’ के बीच के संबंधों का समीकरण समझ में आ जायेगा तो पर्यावरण प्रदूषित होने का प्रश्न नहीं हो सकता, क्योंकि वह पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं से मित्रता करने लगेगा। उनके जीने के अधिकार को स्वयं के अधिकार पर अधिमान देगा।
तब वह सदैव कोयल की कूक और आम की मंजरी से स्वयं को जोड़े रखने में सफल होगा क्योंकि उसके प्रकृति से संबंध द्वंद्वात्मक नहीं, स्रेहात्मक होंगे। वह प्रकृति का रक्षक होगा, विनाशक नहीं लेकिन यह तभी संभव है जब उसे प्रकृति में आस्था हो। प्रकृति-प्रेम का संस्कार हो।’
‘संस्कार सामाजिक संबंधों को रेखांकित करते हैं। उन संबंधों के महत्त्व और उनकी प्रतिबद्धता के सरल सूत्र मन-मस्तिष्क में स्थापित करते हैं जो बिना किसी भेदभाव सबके हित-रक्षण के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं। संस्कार ही हमें बताते हैं कि धर्म-संस्कृति कोरा विधि विधान या धार्मिक कर्मकांड नहीं, जीने की कला के टूल हैं जो हमारे हृदय के भावों को पवित्रता प्रदान कर उनमें आस्था के रंग भरते हैं और जहां आस्था होती है, वहां आसपास रास्ता भी होता है।
जीवन के ये सूत्र अपने पूर्वजों के प्रति हमारी श्रद्धा और कृतज्ञता से और प्रबल होते हैं। सामाजिक समरसता से हमारे आचरण की स्वीकार्यता बढ़ती है, इसलिए मनुष्य को बार-बार स्मरण कराना पड़ता है कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना।
अपने प्रबुद्ध पूर्वजों द्वारा संस्कारों पर बल देने के कारणों को समझने का प्रयास करो। जो जितना संस्कारवान है, वह उतना ही नान रिएक्टिव होता है। सुख- दुख, आंधी-तूफान, मिलन-बिछोह जीवन का अपरिहार्य अंग है। अगर संस्कार प्रबल है तो स्वाभाविक रूप से हर परिस्थिति का सामना करने की क्षमता और शक्ति विकसित होती है।’
‘वे हमारे श्रेष्ठ संस्कार ही हैं जो हमें संसार को एक परिवार समझकर व्यवहार करने की प्रेरणा देते हैं जबकि संस्कारविहीनता परिवार के प्रति भी गैरजिम्मेदार भाव पैदा करती है। दया, करुणा, आर्जव, मार्दव, सरलता, शील, प्रतिभा, न्याय, ज्ञान, परोपकार, सहिष्णुता, प्रीति, रचनाधर्मिता, सहयोग, समन्वय, प्रकृति प्रेम, राष्टÑप्रेम उस वाटिका की अदृृश्य लेकिन सशक्त सुगंध है जिसे संस्कार कहा जाता हैं।
संक्षेप में कहें तो संस्कार किसी अनघड़ पत्थर में छिपे देवत्व को उभारना है वरना तो उस पत्थर में दैत्य भी हो सकता है। अगर संस्कारों पर बल न दिया जाए तो भयावह दैत्य की आकृति भी उभर सकती है। संस्कार से देवत्व अर्थात् सत्यं शिवं सुन्दरं की साकारता है। धन, यश, वैभव नहीं केवल सत्यं शिवं सुन्दरं भाव ही मानव होने की कसौटी है।
-विनोद बब्बर
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