Dronacharya: पर उपदेश कुशल बहुतेरे : द्रोणाचार्य के शिष्य दोनों ही थे कौरव और पांडव। वे दोनों को समान रूप से शिक्षित एवं विविध कलाओं में प्रशिक्षित करते थे। एक दिन शिष्यों के मध्य उन्होंने कहा, ‘हमें कभी भी क्र ोध नहीं करना चाहिए क्योंकि क्र ोध से बुद्धि का क्षय होता है और बुद्धिहीन मनुष्य अच्छे, सृजनात्मक कार्य नहीं कर सकता।’
द्रोणाचार्य ने आगे कहा कि मेरे उपरोक्त कथन को आप लोग कंठस्थ करें और कल याद करके आएं। आपको यह कथन कक्षा में दोहराना होगा। अगले दिन आचार्य द्रोण ने कक्षा में सभी छात्रों से एक-एक कर पूछा, ‘तुम्हें याद है मैंने कल क्या कहा था?’ युधिष्ठिर को छोड़कर सभी ने कहा, ‘जी, याद है।’ द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से कहा, ‘कल अवश्य याद करके आना।’ युधिष्ठिर ने अगले दिन भी कहा कि उन्हें कथन याद नहीं हुआ। द्रोण ने कहा, ‘तुम निरे मूर्ख हो।
तुमसे छोटे बच्चों को कथन याद है और तुम्हें नहीं। आज तुम्हें क्षमा कर रहा हूं लेकिन प्रात: जरूर याद करके आना।’ अगले दिन द्रोण ने पूछा, ‘आज तुम अवश्य याद करके आए होगे!’ युधिष्ठिर ने उदास से स्वर में कहा, नहीं गुरूवर। क्या करूं याद ही नहीं होता।’ द्रोणाचार्य को गुस्सा आ गया। उन्होंने युधिष्ठिर को एक चांटा मारा और बोले, ‘मुझे यह अनुमान नहीं था कि तुम इतने मूर्ख हो।’
युधिष्ठिर थप्पड़ खाकर भी शांत रहे और कहा, ‘याद आ गया गुरूजी। असल में मैं अपनी परीक्षा ले रहा था कि जब आप मेरे मुंह से बार-बार न सुनेंगे तो मुझे एक न एक दिन अपमानित और प्रताड़ित करेंगे, तो क्या मैं शांत रह पाऊंगा? आज थप्पड़ खाने पर भी मुझे क्र ोध नहीं आया। तब मैंने सच बोल दिया कि मुझे कथन याद आ गया जबकि वास्तव में मुझे वह पहले दिन से ही याद था।’
युधिष्ठिर की बात सुनकर द्रोण को अपने पर ही लज्जा आई कि क्र ोध न करने का उपदेश उन्होंने ही दिया था और उसका पालन वे खुद ही न कर पाए जबकि उनके शिष्य ने खुद पर उसका कठिन प्रयोग भी किया। उन्होंने युधिष्ठिर को गले लगाकर कहा, ‘तुमने तो मुझे ही दर्पण दिखा दिया। तुमने ही विद्या का सही उद्देश्य जाना है। विद्या वास्तव में तभी पल्लवित होती है जब वह मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में उतरे’।
-अयोध्या प्रसाद ‘भारती’