बच्चों पर रखें कंट्रोल – कोई भी अभिभावक यह नहीं चाहेंगे कि उनके बच्चों पर लोग उंगली उठाएं, उनकी शिकायत करें। ऐसा तभी होता है जब बच्चों में मैनर्स नहीं होते। वे असभ्य और उद्दंड होते हैं। बिजनेसमैन दिनेश की पहली बीवी की शादी के साल भर में ही मृत्यु हो गई थी। उसके बाद दस वर्ष तक दिनेश ने शादी नहीं की। फिर अपने से उम्र में आधी लड़की से उसने विवाह कर लिया। दिनेश का लाखों करोड़ों का बिजनेस था। पत्नी मामूली परिवार से थी। वो पढ़ी लिखी भी ज्यादा न थी। दो साल में दो बेटों को जन्म देकर वो सातवें आसमान पर थी।
बड़ी उम्र की संतान के वैसे भी बिगड़ने के चांस ज्यादा होते हैं। बेइंतिहा पैसा और अनुचित लाड़ प्यार में दिनेश के दोनों लड़के भी बहुत ही असभ्य और बदतमीज हो गए थे। एक बार एक बड़ी पार्टी में जब पार्टी गेम्स में किसी कपल को प्राइज दिया गया तो दिनेश का छह-सात बरस का बेटा मिस्टर वर्मा से कहने लगा-साले, मेरे पापा मम्मी को इनाम क्यों नहीं दिया? उसके मुंह से ये सुनकर सभी लोग स्तब्ध रह गए लेकिन दिनेश और उसकी पत्नी ने उसे बेहद हल्केपन से लिया।
कसूर बच्चों का नहीं, मां बाप का ही माना जाएगा कि उन्होंने बच्चों को यह शिक्षा दी है लेकिन ऐसा नहीं कि उन्हें सुधारा नहीं जा सकता।
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रोल मॉडल बनें
अपने बच्चों को दुनियादारी सिखायें। उन्हें बतायें कि उनकी हर इच्छा पूरी ही हो, यह जरूरी नहीं। बचपन में ही अगर इच्छाओं पर अंकुश लगाना सीख लिया जाए तो बड़े होकर अपनी जिन्दगी को बेहतर हैंडल कर पायेंगे यानी हर ख्वाहिश पूरी न होने पर डिप्रेशन में नहीं आएंगे और निराशा से नहीं भर जाएंगे। मां-बाप को चाहिए कि वे बच्चों के अच्छे रोल-मॉडल बनें। बच्चों से जुड़ने के लिये उन्हें केवल तोहफों व चीजों से ही न खुश करें बल्कि उन्हें क्वालिटी टाइम देकर उनसे अपना बंधन मजबूत बनाएं। उनसे भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप से मजबूती से जुड़ने का प्रयत्न करें।
इच्छाओं पर कंट्रोल भी सिखाएं
नवधनाढ्य लोगों में प्रदर्शन की खपत कुछ ज्यादा ही देखने में आती है। बच्चे के मुंह से कोई डिमांड निकली नहीं कि उसे तुरंत पूरा कर वे आत्म-संतुष्टि से भर जाते हैं, यह सोच कि हम आदर्श माता-पिता हैं। हम ही बस बच्चों को प्यार करना जानते हैं। जो लोग आर्थिक तंगी के कारण बच्चों की इच्छाएं पूरी नहीं कर सकते, वे तो मानों अपने बच्चों को प्यार ही नहीं करते हैं। यह सरासर गलत रवैय्या है। बच्चों को जो भी चीजें उन्हें प्राप्त हैं, उनकी वैल्यू को समझना सिखायें। साथ ही यह भी कि जिद्द करके शोर मचाके, सामान तहस-नहस कर टैंपर दिखाने से ही उन्हें हर चीज नहीं मिल जाएंगी, न ही माता पिता को सामान न दिला सकने की सूरत में अपराध-बोध कराने से उनकी जिद्द पूरी होंगी।
खुशी के असली मायने
यह सच है कि बच्चों में भौतिक चीजों को लेकर बेहद आकर्षण होता है। उनकी उम्र का तकाजा है और बड़े बुजुर्गों जैसी सोच उन पर नहीं लादी जा सकती लेकिन बार-बार बातों ही बातों में यह समझाए जाने पर कि जो वे पहनते हैं, जिस गाड़ी में वो सफर करते हैं, ये ही जीवन में सब कुछ नहीं है और किसी को भी इन्हीं चीजों से नहीं आंकना चाहिए, बच्चों में निस्संदेह अच्छे संस्कार पड़ेंगे। आखिर मां बाप उनके रोल मॉडल हैं, वे झूठ तो नहीं कहेंगे। जीवन में बुद्धि, कौशल, रचनात्मकता, केयरिंग होना, शेयर करना नैतिकता क्या मायने रखती है, यह रोजमर्रा की बातों में धीरे-धीरे आप उन्हें सिखा सकते हैं, किसी घटना का वर्णन किसी कहानी द्वारा या किसी उदाहरण से। इस मामले में अच्छी किताबों का भी महत्त्व कम नहीं।
बच्चों को मोटिवेट करें
बच्चों को बाह्म और आंतरिक मोटिवेशन का फर्क समझाएं। अंतर्मन से मोटिवेट होने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करें। अंतर्मन से मोटिवेट होने का अर्थ है कि कार्य तब किया जाता है जब उससे गर्व महसूस हो, कार्य समाप्त होने पर उपलब्धि का मान हो। बाह्म मोटिवेशन एक तरह से लालच से संबद्ध होता है। उदाहरण के लिये कोई गिफ्ट, पैसा या सुविधा का मिलना मोटिवेशन का कारण होता है। हमेशा यही सब दे कर अगर बच्चे को मोटिवेट किया जाए तो वे आंतरिक मोटिवेशन की अहमियत नहीं जान पाएंगे।
पैसा जरूरी है मगर सब कुछ नहीं
आज पैसे के बगैर इन्सान की इज्जत कुछ भी नहीं है। जीने के लिये, पैसा निहायत जरूरी है लेकिन बच्चों के लिये यह जानना भी जरूरी है कि पैसा ही जीवन में सब कुछ नहीं। पैसे को इसलिए अपने पर कभी हावी न होने दें। जो बच्चे शुरू से यह बात नहीं समझ पाते, उनकी पैसे की आरी सबसे पहले मां बाप के पवित्र रिश्ते पर ही चलती है।
-उषा जैन ’शीरीं‘