वृद्धावस्था में भी कुछ सीखिए,कुछ कीजिए

रे एक सत्तर वर्षीय मित्र हैं श्री छोटेलाल यादव जिनके साथ मिल बैठकर दु:ख सुख की चर्चा होती रहती है। अभी मैं उनके निवास पर गया तो वे नहीं मिले। मैंने फोन लगाकर पूछा- आजकल कहां रहते हो। मिल क्यों नहीं रहे। उन्होंने जो बताया उसे सुनकर मुझे अच्छा लगा। उन्होंने कहा, ‘आजकल मैं कंप्यूटर सीख रहा हूं। इस समय मैं कोचिंग क्लास जाता हूं। इसलिए मिल नहीं पाता।

उनसे भेंट होने पर उन्होंने बताया कि आजकल कंप्यूटर ज्ञान विज्ञान का केंद्र बन गया है। बिना कंप्यूटर सीखे ऐसा लगता है जैसे हम अशिक्षित हों। कंप्यूटर सीखना समय की आवश्यकता है। फालतू समय बर्बाद करने से अच्छा है कुछ सीखा जाए। मैं उनकी इस राय से सहमत हूं। वृद्धावस्था में व्यर्थ की गपशप में समय बर्बाद करना तनाव का कारण होता है। इस समय का उपयोग अच्छे कामों को सीखने में लगाना न केवल हमारे लिए, देश के हित में भी है। सीखने के लिए कोई विशेष उम्र नहीं होती। हर उम्र में कुछ सीखा जा सकता है। इस संबंध में फारसी के एक अज्ञात विद्वान ने कहा है – ‘पी शौ बिया मोज’ अर्थात् वृद्धावस्था में भी पढ़ते जाओ। सीखना एक सतत् प्रक्रि या है।

वृद्धावस्था को जीवन का अंतिम पड़ाव माना जाता है। इसलिए वृद्धावस्था की मानसिकता कुछ नया सीखने की नहीं होती। इस अवस्था में कुछ सीखने का निर्णय लेना अत्यंत कठिन कार्य है। अधिकांश व्यक्ति सिखाए जाने के लिए तैयार नहीं होते। उनका तर्क होता है कि अब सीखने से क्या फायदा। जब पैर कब्र में लटके हैं और शमशान जाने की तैयारी है तब कुछ नये शिक्षण प्राप्त करने का क्या अर्थ है।

उससे क्या फायदा?

एक बात और है। हर नई शिक्षा एक नया विचार देती है। यह नया विचार जीवन में बदलाव लाता है।

इस उम्र में सामान्यत:

कोई बदलाव नहीं चाहता। यह बदलाव वृद्ध को तो अजीब लगता ही है, हमारे परिजनों और परिचितों को भी अजीब लगता है। इसे वे स्वीकार करने को तत्पर नहीं होते। इसलिए इस वातावरण में यदि कोई वृद्ध कुछ नया करने को तत्पर हो भी तो संकोच करता है। भारतीय दर्शन एवं शास्त्रों में वृद्धावस्था का बड़ा सम्मान है पर हमें स्मरण रखना चाहिए कि यह सम्मान उम्र का नहीं है। यह सम्मान उनके ज्ञान और अनुभव का होता है। छोटे बड़े का निर्णय त्याग, तपस्या और विद्या से होता है। अवस्था के कारण सम्मान तो अन्तिम कारण है।

हमारे ऋषियों मुनियों का सम्मान उनकी उम्र के कारण नहीं, उनके तपस्या और ज्ञान के कारण ही रहा है। वे अपने जीवन के अन्तिम समय तक ज्ञान प्राप्त करते रहे इसलिए प्राचीन ग्रंथ आचारांग में कहा गया है ‘हे आत्मविद साधक, जो बीत गया सो बीत गया। शेष रहे जीवन को ही लक्ष्य में रखते हुए प्राप्त अवसर को परख, समय का मूल्य परख’। यह एक स्पष्ट संदेश है जो कहता है बीती ताही बिसार दे, आगे की सुध ले।’ हमारे जीवन में वृद्धावस्था तक हम जो न कर सकें, उसे यदि वृद्धावस्था में कर गुजरें तो यह समय का सदुपयोग है। आज का युग विज्ञान व तकनीक का युग है। इसमें बदलाव बहुत तेजी से आते हैं।

पिछले एक सौ पचास वर्षों में जो बदलाव आए हैं उसने दुनिया की जीवन शैली बदल ली। पिछले एक सौ पचास वर्ष में जितने बदलाव आए, उससे अधिक अब प्रतिवर्ष आ रहे हैं। दुनियां में बदलाव की हवा चली है। इस वातावरण में यदि वृद्ध व्यक्ति खाली बैठा रहा और निकम्मी बातों में समय खर्च करता रहा तो सोचिए उसका सम्मान किस आधार पर होगा। इसलिए आज के इस परिवर्तनकारी युग में सबके साथ वृद्ध को भी बदलना होगा और बदलते समय में अपने अनुभव के आधार पर मार्गदर्शन की मशाल को जलाए रखना होगा।

सीखना किसी भी कार्य में बहुत महत्व रखता है। वृद्धावस्था में शरीर भले ही कठिन श्रम न कर सके पर सीख वह जल्दी जाता है क्योंकि उसके साथ अनुभव होता है। याद कीजिए महात्मा गांधी और बिनोवा भावे को जो अपनी वृद्धावस्था में भी उर्दू और संस्कृत सीखते रहे। इतना ही नहीं, महात्मा गांधी तो जेल यात्रा में अपने सहयोगियों को नई भाषा, चरखा चलाना, गीता पढ़ाने का कार्य करते रहे। ये दोनों संत महात्मा अपने जीवन के अंतिम क्षण तक क्रि याशील रहे। वे सीखते भी रहे, सिखाते भी रहे। यही है जीवन का आनंद अंग्रेज निबंधकार बेकन इसको समय चुनना कहते हैं। वे कहते हैं – समय चुनना समय बचाना है।

सीखने के लाभ:

वास्तव में कुछ भी सीखना हमारी रूचि पर निर्भर करता है। मनौवैज्ञानिक कहते हैं कि हमारी रूचि के अनुसार यदि कुछ सीखा जाए तो उत्साह, उमंग बना रहता है। वृद्धावस्था में यह उत्साह और उमंग ही हमारे स्वास्थ्य का रक्षक होता है। यदि हम लगन के साथ कुछ भी करते हैं तो वृद्धावस्था भले ही बनी रहे, वह हमें परेशान नहीं करती। हम तनाव में नहीं रहते। हमारे परिजन हमारा अधिक सम्मान करते हैं। हम प्रेरणा के केंद्र बनते हैं।

नया न सीखने की हानि:

यदि हम वृद्धावस्था को केवल विश्राम के लिए सुरक्षित समझते हैं तो उसके बड़े खतरे हैं। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हम एक क्षण भी बिना कुछ किए रह नहीं सकते। हमें हमारी प्रकृति के अनुसार कुछ न कुछ करने को बाध्य होना ही पड़ेगा। जब हम कुछ उपयोगी कार्य की ओर प्रवृत नहीं होते तो हम निठल्ले समझे जाते हैं और टूटने लगते है। एक जगह देर तक बैठे रहने, लेटे रहने और कारण की मन्दता के कारण वृद्ध की कूल्हे की हड्डी टूट सकती है। अक्सर हम ऐसा देखते भी हैं। निष्क्रि य व्यक्ति के पास न तो स्वस्थ शरीर रहता है न संपत्ति।

इसलिए सदा सक्रि य बने रहिए। कुछ न कुछ सीखिए।

अपनी रूचि के अनुसार कुछ कीजिए। ध्यान सीखिए, योग सीखिए, प्रार्थना कीजिए। बीमारी से छुटकारा पाने और प्रसन्न रहने का यही एक मार्ग है। वृद्धावस्था में भी कुछ कीजिए।
-सत्यनारायण भटनागर

दुनियां में बदलाव की हवा चली है। इस वातावरण में यदि वृद्ध व्यक्ति खाली बैठा रहा और निकम्मी बातों में समय खर्च करता रहा तो सोचिए, उसका सम्मान किस आधार पर होगा! इसलिए आज के इस परिवर्तनकारी युग में सबके साथ वृद्ध को भी बदलना होगा और बदलते समय में अपने अनुभव के आधार पर मार्गदर्शन की मशाल को जलाए रखना होगा।

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