मानव का सबसे बड़ा शत्रु है क्र ोध
आज की भागदौड़ और व्यस्तताओं से भरी जिÞन्दगी ने मानव को भले ही कुछ दिया हो अथवा नहीं, लेकिन उसे क्र ोधी अवश्य बना दिया है। आज लगभग हर व्यक्ति में क्र ोध की अधिकता है और छोटी-बड़ी बातों पर तुरंत गुस्सा होना एक स्वाभाविक प्रक्रि या सी बन चुकी है।
क्र ोध का मनोविज्ञान जानने से पूर्व शारीरिक विज्ञान जानने के लिए उसकी प्रक्रि या को समझना आवश्यक है। क्र ोधित अवस्था में मनुष्य विचलित और विक्षुब्ध हो जाता है। उसके शरीर की सारी मांसपेशियां प्रभावित होकर तन जाती हैं, चेहरा पीला पड़ जाता है, रक्त संचार बढ़ जाता है, माथे पर बल छा जाते हैं, होंठ व नथुने फूलने लगते हैं, आंखें फैल जाती हैं और वह अपनी सारी चेतना व विवेक भूलकर असामान्य सा होकर केवल वही करता है जो सामान्य स्थिति में चाहकर भी नहीं कर सकता।
इस अवस्था में वह असंतुष्ट और विचलित ही नहीं बल्कि अत्यंत दु:खी और तनावग्रस्त भी हो जाता है। कभी-कभी यह भी देखा जाता है कि क्रोधित व्यक्ति स्वयं को बहुत निरीह व अकेला महसूस करने लगता है और अपना क्र ोध सामने वाले पर निकालकर, कमजोर पड़ने के बाद अचानक रोने लगता है। प्राय: यह भी देखा जाता है कि क्र ोधित व्यक्ति अपनी दाल कहीं न गलती देख फिजूल बातों पर चीखता-चिल्लाता और तोड़फोड़ करने लगता है। इसका अर्थ यह हुआ कि क्र ोध का रिश्ता भावनाओं व जज्बात के साथ भी जुड़ा होता है।
मनोचिकित्सकों का मानना है कि क्र ोध एक स्वाभाविक प्रक्रि या है जिसका संबंध मानव शरीर में रोने, हंसने, बोलने व देखने जैसा है लेकिन इसका प्रभाव शरीर के लिए कष्टकारी अवश्य है। प्राय: क्र ोध उस स्थिति में अधिक आता है, जब व्यक्ति को यह प्रतीत होता है कि वह समाज में अपमानित या बहिष्कृत हो रहा है अथवा उसकी बातों को नजÞरअंदाज किया जा रहा है। ऐसे में एक स्वाभाविक क्रि या द्वारा शरीर के हायपोथेलेम्प क्षेत्र और हार्मोन व तंत्रिकीय प्रणाली अव्यवस्थित हो जाती है जिससे स्वभाव में क्र ोध उत्पन्न हो जाता है।
इस स्थिति में यदि क्र ोध को पूरी तरह मन में दबा भी दिया जाये तो वह उससे भी अधिक घातक सिद्ध हो सकता है। ऐसे में व्यक्ति पागल अथवा खतरनाक अपराधी भी बन सकता है।
आयुर्वेद में क्र ोध की सटीक दवा है एक गिलास ठण्डा पानी। क्र ोधित व्यक्ति को यदि ठण्डा पानी पिला दिया जाये तो उसके मस्तिष्क में छायी गर्मी भी शांत हो जाती है और स्वभाव स्वत: ही नर्म होने लगता है।
क्र ोध से बचने में आहार की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि कहावत प्रसिद्ध है ‘जैसा खाये अन्न-वैसा रहे मन’, अत: आहार पर ध्यान देना चाहिए। अधिक मिर्च मसालों का सेवन न करें क्योंकि ये पेट में जाकर तरह-तरह की वृत्तियों को जन्म देते है, जिससे पित्त की ऊष्मा तेजÞ हो जाती है और क्रोध को बढ़ावा मिलता है।
क्र ोध से मुक्ति दिलाने में एकाग्रता भी बहुत सहायक है क्योंकि एकाग्रता चंचलता को शांत करती है। योग शास्त्र के अनुसार यदि एकाग्रता प्राप्त करनी है तो जीभ को स्थिर बनाने का प्रयास करें। इसके लिए जीभ का प्रयोग खेचरी मुद्रा में कर उसे दांतों तले दबायें या बिलकुल अधर में रखें। इससे जहां चंचलता कम होगी, वहीं एकाग्रता में बढ़ोत्तरी होने से क्र ोध भी शांत रहेगा। इसके अलावा कम बोलना, अच्छा साहित्य, अच्छा संगीत, अध्यात्म, मानवीय प्रेम आदि भी क्र ोध का मार्ग अवरुद्ध करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
यदि व्यक्ति स्वयं में समाज के साथ चलने की भावना को सर्वोपरि रखे तो क्र ोध आ ही नहीं सकता। इसके लिए आवश्यक है कि दूसरों से बात करते समय अपनी मानसिकता प्रबल और स्वभाव शांत व मधुर रखें।
क्र ोध तो क्षणिक होता है लेकिन कभी-कभी उसका परिणाम काफी घातक भी साबित हो सकता है। यदि क्र ोध पर अंकुश न लगाया जाये तो कई दुष्परिणाम सामने आते हैं। व्यक्ति समाज में हेय दृष्टि का पात्र तो बनता ही है, साथ में उसके पारस्परिक संबंध भी टूट जाते हैं, रक्त विषैला हो जाता है तथा रक्तचाप बढ़ जाता है, जिससे कभी-कभी हार्टअटैक जैसे कई प्राणघातक रोग शरीर में जमा हो जाते हैं।
परिवार व कुटुंब में कलह व झगड़े का वातावरण छा जाता है और अंत में प्राप्त होता है सिर्फ और सिर्फ पछतावा, अत: क्र ोध को स्वयं से दूर रखें अपना मन अच्छे कार्य व समाज के हित में लगायें। तभी आप हर किसी के हृदय में अपनी छवि विशेष व उच्च बनाने में सफल होंगे।
-मनु भारद्वाज ‘मनु’