Experiences of Satsangis

कर दिया जीवन सार्थक :-सत्संगियों के अनुभव -पूजनीय बेपरवाह सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज का रहमो-करम

काफी पुराने व बुजुर्ग प्रेमी निरंजन सिंह जी उर्फ हाथी राम सुपुत्र सचखंडवासी प्रेमी श्री मक्खन सिंह जी शेरगिल निवासी गांव करीवाला जिला सरसा (हरियाणा)।

प्रेमी जी अपने पूजनीय खुद-खुदा इसरार, राम-नाम के शाहूकार, शहनशाहों के शहनशाह बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज बिलोचिस्तानी की अपने पर हुई बेअंत अपार रहमतों का वर्णन लिखित रूप में बताते हैं कि सार्इं बेपरवाह सच्चे पातशाह शाह मस्ताना जी महाराज ने अपनी विशेष दया-मेहर बख्श कर इस बेहद पापी-गुनाहगार व चोर लुटेरे को (मुझे) अपनी शरण में लेकर मेरे जीवन को सचमुच ही सार्थक कर दिया है।

प्रेमी जी बताते हैं कि भारत-पाक बंटवारा होने के बाद हमें इधर (भारत में) काफी ज्यादा जमीन अलाट हुई थी। घर में धन, माल इत्यादि हर सामान था, किसी भी चीज की कमी नहीं थी। उधर मेरे ससुराल का भी काफी अमीर घराना था। अपनी कमी कोई आदमी कभी बताता नहीं है, लेकिन जब मुझे सच्चे दातार जी ने अपनी शरण में ले लिया है, तो मैं अपनी बुराइयों को क्यों छुपाऊं! उन दिनों, बुरी सोहबत कहें या मेरे संचित बुरे कर्म कहें, मुझे चोरी-चकारी की बुरी लत लग गई थी। चोरी के लिए मैं कुछ भी कर सकता था। धीरे-धीरे मेरा संग बड़े-बड़े चोरों से हो गया। मैं पुराना अंग्रेजों के जमाने का कुछ उर्दू, अंग्रेजी लिख-पढ़ लेता हूँ। वैसे भी मैं पूरे ठाठ-बाठ से रहता था और इसीलिए पुलिस के बड़े-बड़े अफसर मुझे बड़े प्यार व सत्कार से हाथ मिलाकर मिला करते।

सन् 1956 में राजस्थान के संगरिया थाने में मेरे खिलाफ चोरी का एक केस दर्ज हो गया था। यह मान लीजिए कि सतगुरु दाता जी ने मुझे अपनी शरण में लेना था, शायद इसीलिए मैं पुलिस के हाथ नहीं लग पा रहा था। वरना पुलिस रात-दिन मेरे पीछे ही लगी हुई थी। वैसे मेरा परिवार शुरू से ही धार्मिक ख्यालों का था और मुझे भी अपने धर्म, ईष्ट में बेहद आस्था थी। एक बार रात को सोते वक्त मैंने अपने अंतर-हृदय से परमपिता परमात्मा के आगे दुआ, यह प्रार्थना की कि ‘हे मालिक, अगर तू इस दुनिया में है तो मेरी चोरी की यह बुरी आदत छुड़वा दे और मुझे ऐसा पूरा कोई संत-सतगुरु मिला दे जो मेरे पाप-गुनाहों को बख्श कर मुझे स्वच्छ जीवन दे, मेरे जीवन को सार्थक कर दे। मैं उसी को ही अपना खुद-खुदा, सतगुरु मानूंगा।

कुछ दिनों बाद, उस रात जब मैं कुछ अर्द्ध जागृत अवस्था में था, मुझे एक बहुत तेज रोशनी दिखाई दी। उसी रोशनी के अंदर से ही मुझे परम पूजनीय बेपरवाह मस्ताना जी महाराज के दर्श-दीदार हुए। पूज्य सार्इं जी के सिर के केस (बाल) खुले हुए थे। नूरी आंखों में इलाही नूर चमक-दमक रहा था। पूज्य सतगुरु जी साधारण सफेद कुर्ता पायजामा पहने हुए थे। अंतर्यामी सतगुरु दातार जी ने मुझ पर अपनी दया-दृष्टि डालते हुए वचन फरमाया कि ‘जितनी देर तक तेरा वह संगरिया वाला चोरी का केस नहीं निपटता, उतनी देर तक तुझे पूरा सतगुरु नहीं मिलता।’ इतने वचन कहकर शहनशाह सार्इं जी अगले पल ही आँखों से ओझल हो गए। पूजनीय सार्इं जी के इस प्रकार रू-ब-रू दर्शन मैंने पहले कभी नहीं किए थे।

हां, फोटो-स्वरूप पूज्य बेपरवाह जी को मैंने एक-दो बार जरूर देखा था। सच्चे दातार जी के इस प्रकार पावन दर्शन करके मेरी अंर्तात्मा एकदम प्रसन्न हो उठी और मुझे बड़ा आनंद आया, बड़ी खुशी मिली, जिसका मैं वर्णन कर नहीं सकता। पूजनीय बेपरवाह दाता जी के उपरोक्त इलाही वचनों को मैंने गांठ बांध लिया। मैंने अगली सुबह ही खुद संगरिया थाने में जाकर अपना आत्म-समर्पण कर दिया। मेरे इस व्यवहार से पुलिस के अधिकारी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने मेरे साथ बहुत अच्छा सलूक किया।

मैं हवालात में बंद था। वहां पर मेरी मुलाकात गांव भुकर के एक भले इन्सान हरपतराम से हुई। उस भले इन्सान ने पूजनीय बेपरवाह मस्ताना जी महाराज सच्चे सार्इं जी की उपमा, उनकी महिमा की चर्चा करते हुए बताया कि पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज इन दिनों (यहां अपने दरबार) डेरा सच्चा सौदा ‘सच्चा सौदा बागड़’ गांव कीकरांवाली (राजस्थान) में पधारे हैं। उसने यह भी बताया कि सार्इं जी पूर्ण सतगुरु, स्वयं परमपिता परमात्मा का स्वरूप है। वो लोगों को सोना, चांदी, कपड़े कम्बल, नोट आदि बांटते हैं। वो पूर्ण सच्चे रूहानी फकीर हैं, वो हर किसी की जायज इच्छा पूरी कर देते हैं।
उस भाई की बातों में मुझे काफी हद तक सच्चाई महसूस हुई।

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मैंने उसी दिन पूज्य सतगुरु सार्इं मस्ताना जी महाराज का अपने अंतर में ध्यान कर पवित्र चरण-कमलों में अरदास की कि ‘सच्चे सतगुरु जी, अगर आप पूरे सतगुरु हैं तो मुझे इस हवालात से आज़ाद करवा दो और इसी हफ्ते रविवार को नाम-शब्द देकर मुझे अपनी शरण में ले लो जी।’ सतगुरु बड़ा डाहढा है। मालिक की ऐसी मौज हुई कि सर्व-सामर्थ सतगुरु सार्इं मस्ताना जी महाराज ने स्वयं ऊपर तक की पहुंच वाले एक चौधरी का रूप धारण किया और मेरा हवालात से छुटकारा करा दिया। वो चौधरी-वेश में स्वयं खुद-खुदा शाह मस्ताना जी महाराज आप ही थे। उन्होंने मेरे दिल की सच्ची अरदास को प्रवान कर लिया था। मैंने सच्चे मुर्शिदे-कामिल के इस परोपकार के लिए पूज्य सार्इं जी का कोटि-कोटि शुक्राना, धन्यवाद किया।

हवालात से छुटकारा पाकर मैंने अपना साइकिल उठाया (मेरे पास उन दिनों एक पुराना-सा साइकिल था) और रेतीले टीलों के रास्तों से धीरे-धीरे चलते हुए गांव कीकरांवाली दरबार में पहुंच गया। दरबार के चारों तरफ उस समय कांटेदार झाड़ियों की ऊंची बाड़ बनी हुई थी। मेन गेट से अंदर प्रवेश करने पर मुझे वहां पर मौजूद सेवादारों ने बताया कि सार्इं जी कुछ देर पहले ही अंदर कमरे (तेरा वास) में चले गए हैं और हो सकता है थोड़ी देर में बाहर आएं। सेवादार ने मुझे वहां एक तम्बू में बिठाकर चाय पिलाई और आराम करने के लिए कहा। कुछ देर बाद जब पूज्य बेपरवाह जी बाहर आए, तो मैंने भी आश्रम में मौजूद अन्य साध-संगत के साथ पूज्य सार्इं जी के पावन दर्शन किए और श्रद्धा से सजदा किया। घट-घट की जाननहार प्यारे सतगुरु जी ने अपने पवित्र मुख से फरमाया, ‘बल्ले-बल्ले! वाह-बई-वाह!!’ सच्चे दातार जी के नूरी दर्शन करके व अमृतवाणी सुनकर मुझे अपने आप की भी सुध नहीं रही थी, ऐसा रूहानी नशा सतगुरु जी के अमृत-वचनों में भरा हुआ था।

सर्दी के दिन थे। उस दिन काफी ठंड पड़ रही थी। सच्चे पातशाह सार्इं मस्ताना जी ने मौके पर मौजूद एक जीएसएम सेवादार भाई को फरमाया, ‘भई, मच्च कर, सर्दी बहुत है।’ उस सेवादार भाई ने दो धूने लगा दिए। एक धूने पर गांव की संगत बैठ गई धूनी सेंकने और दूसरी पर स्वयं पूज्य सार्इं जी व एक दो सेवादार थे। सार्इं जी ने मुझे भी वहीं पर धूनी सेंकने को कहा। उपरान्त उस सेवादार भाई ने पूज्य बेपरवाह जी के हुक्मानुसार दोनों धूनों के अंगारों पर दो बड़े-बड़े रोट पकने के लिए डाल दिए। पूज्य सतगुरु जी सेवादारों से वचन-बिलास कर रहे थे। इसी बीच पूज्य शहनशाह जी ने एक कविराज प्रेमी को भजन (शब्द) सुनाने का वचन फरमाया। उस भाई ने सारंगी पर भजन बोला,‘हे री मैं तो प्रेम दिवानी मेरा दर्द न जाने कोए…..। उपरान्त सार्इं जी ने अपने वचनों में फरमाया, ‘भाई, मीरां को क्या कमी थी! वह महारानी थी। मालिक के प्रेम में ही रोती थी। दुनियावाले इस मीठे दर्द से बेखबर हैं।’’ उपरान्त पूज्य सार्इं जी ने सारी संगत को रोट का प्रशाद खिलाया।

आश्रम में उस दिन आश्रम-विस्तार के अधीन तेरावास व एक रसोई का निर्माण कार्य चल रहा था। गांव के एक छप्पड़ से कच्ची र्इंटें निकालने व डेरे में ढोने की सेवा चल रही थी। अन्य साध-संगत के साथ मैं भी र्इंटें ढोने की सेवा में लग गया। सच्चे पातशाह जी ने वचन फरमाया कि ‘यह बॉडी आग की अमानत है, साध-संगत की जितनी सेवा कर लो, वह ही बंदगी है।’ उपरान्त सारी संगत में बर्फी का प्रशाद बांटा गया।

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वह रविवार का ही दिन था। रात को बारह बजे के बाद पूज्य शहनशाह जी के आदेशानुसार नाम-शब्द लेने वाले जीवों को इक्ट्ठा किया गया। मैं भी उन्हीं जीवों में शामिल था। सच्चे पातशाह जी ने फरमाया, ‘बई बोहड़ (बरगद) का बीज छोटा-सा होता है, पर देखो, पेड़ कितना बड़ा बनता है। उसी तरह ही नाम के ये कुछ शब्द (पांच हैं या तीन या एक है) छोटे-से लगते हैं, परंतु दुनिया की कुल ताकतें इसके वश में हैं। खुद काल और महाकाल भी नाम के सेवादार हैं। मन और माया भी इसी नाम के कंट्रोल में है। ज्यों-ज्यों नाम जपोगे, ज्यों-ज्यों अंदर प्रवेश होगा तो इसका रंग देखना, बई क्या रंग लाता है! गुफा ‘तेरावास’ व रसोई की चिनाई का कार्य पूरा हो गया था। उस पर छत डालना बाकी था।

अगले दिन छत का सामान लाने के लिए पूज्य शहनशाह जी ने अपने सेवादारों के साथ मुझे भी भेज दिया। सामान नौहर से लेना था। नोहर पहुंचकर मुझे अपने घर का ख्याल आया। मैंने एक पत्र लिखकर घर भिजवा दिया कि मुझे पूरा सतगुरु मिल गया है। मेरा घर वालों से हिसाब खत्म है। उससे अगले एक रविवार को कीकरांवाली दरबार में सत्संग के दौरान पूज्य बेपरवाह जी सेवादारों को प्रेम निशानियां (दातें) बांट रहे थे। ‘मेरे मन ने ख्याल किया कि अगर सार्इं जी अपने पवित्र हाथों से मुझे पगड़ी बंधवाएं तो मानूं!’ उधर देखा तो मेरे भाई व अन्य कई रिश्तेदार मुझे घर पर ले जाने के लिए वहां दरबार में पहुंच गए। मैं जाना नहीं चाहता था, इसलिए उनसे आंख बचाकर मैं इधर-उधर कहीं छुप गया।

सच्चे पातशाह जी ने उन्हें (मेरे उन संबंधियों को) देखकर सेवादारों से पूछा कि ‘ये अजनबी लोग कौन हैं! किसलिए आए हैं? सेवादारों को मैंने पहले बता दिया था, उन्होंने अर्ज की, सार्इं जी, ये लोग निरंजन सिंह प्रेमी (हाथी राम) के रिश्तेदार उसे लेने आए हैं। पूज्य शहनशाह जी ने एक सेवादार को भेज कर मुझे वहीं पर ही बुला लिया और कड़कती आवाज में आदेश फरमाया कि ‘हुक्म मान सुख पाएगा। हुक्म नहीं मानेगा, नरको में जाएगा।’ इसके साथ ही शहनशाह जी ने मेरा साइकिल लाने के लिए एक मुख्य सेवादार को आदेश किया और उसी से ही एक नई पगड़ी भी मंगवा ली। पूज्य शहनशाह जी ने मेरे मन की इच्छा को जानते हुए पगड़ी का एक सिरा अपने पवित्र कर-कमलों में लेकर मुझे हुक्म फरमाया कि ‘ले पगड़ी बांध।’ और इस तरह मुझे स्वयं पगड़ी बंधवाई।

पूज्य शहनशाह जी ने मेरी तरफ अपनी उंगली का इशारा करके वचन फरमाया, ‘‘अब बता, ठीक है!’’ इस तरह सर्व-सामर्थ सतगुरु प्यारे ने मेरे भ्रमों की वह पीढ़ी गांठ को काट कर मुझे सदा-सदा के लिए अपना बना लिया। उपरान्त पूज्य दाता जी ने मेरे संबंधियों से कहा, ‘‘भाई, ले जाओ। सत्संग पर न रोकना। अगर रोकोगे तो नुकसान होगा।’’ मेरे लिए वचन किए, कि ‘तेरे साथ बहुत रूहें आएंगी।’

किसी महात्मा ने ठीक ही लिखा है:-

संत और पारस में, बड़ो अंतरो जान।
वह लोहा कंचन करे, वो कर लें आप समान।।

मैं अपने सतगुरु सच्चे मुर्शिदे-कामिल की अपार रहमतों का बदला कभी चुका ही नहीं सकता। कैसे गुनाहों से भरा मेरा गंदा जीवन था जो दयालु सतगुरु बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने (मुझ पर) अपना तरस कमाया और नाम शब्द देकर इस रूह को हमेशा-हमेशा के लिए अपने पवित्र चरण कमलों से जोड़ लिया और हमेशा के लिए ही अपना बना लिया।

पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज, सच्चे सतगुरु जी से हाथ जोड़कर मेरी यही प्रार्थना है कि सच्चे पातशाह जी, आखिरी स्वास तक डेरा सच्चा सौदा से जुड़ा रहूं और समय आने पर मेरी इसी तरह ही आपके पवित्र चरण-कमलों में ओड़ निभा देना जी।