Make old age healthy and respectable

बुढ़ापे को स्वस्थ व सम्मानजनक बनायें

जिस तरह जन्म लेना दु:ख है, उसी तरह मृत्यु भी एक महान दुख है। जन्म लेना, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और फिर वृद्धावस्था को प्राप्त करना, रोगी होना और मृत्यु को प्राप्त होना, सभी देहधारियों के लिये जरूरी है। इसे टाला नहीं जा सकता। यह प्रकृति का अटल नियम है।

जो व्यक्ति प्रकृति के निकट रहकर उसके नियम संयम का पालन करते हैं, वे वृद्धावस्था में पहुंचने के बाद भी स्वस्थ और फुर्तीले बने रहते हैं परन्तु ऐसे गिने-चुने व्यक्ति ही होंगे नहीं तो आज तो जवानी में ही बुढ़ापे के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगते हैं।

अगर बुढ़ापे में मनुष्य के सभी अंग अवयव स्वस्थ बने रहें और जीवनी शक्ति शिथिल न पड़े, हाथ-पैर सही ढंग से काम करते रहें, आंखों से ठीक ठाक दिखाई दे और कानों से सुनाई पड़ता रहे तो बुढ़ापे को अभिशाप नहीं, कुदरत का वरदान मानना चाहिये। यह वह समय है जब मनुष्य की अवस्था परिपक्वता को प्राप्त होती है। जीवन के ढेर सारे खट्टे-मीठे अनुभव, स्थिर बुद्धि, ज्ञान, सूझबूझ और निर्णय लेने की शक्ति तथा नई पीढ़ी को सही मार्गदर्शन करने की क्षमता वह पा चुका होता है।

बुढ़ापा मनुष्य के लिये अभिशाप उस समय बनता है जब उसने अपने जीवन काल में असंयम बरत कर काया को रोगों का घर बना दिया हो। जीवन तब भार स्वरूप लगता है और जीने की इच्छा मर जाती है। ऐसी अवस्था में दूसरों के सहारे, सहायता और सहयोग की आवश्यकता पड़ती है।

बुढ़ापा न तो कोई रोग है और न ही अभिशाप बल्कि यह मानसिक क्रि याओं, भावनाओं और विचारणाओं के साथ शरीर में होने वाली विशेष प्रकार की प्रक्रि या है। बुढ़ापे के आगमन का समय हर व्यक्ति के लिये अलग अलग होता है। भारतवर्ष में पचास वर्ष की आयु के बाद ही बुढ़ापे के लक्षण झलकने लगते हैं जैसे पाचनतंत्र और रक्तपरिवहन में अव्यवस्था उत्पन्न होने लगती है। त्वचा, पैर, आंख, कान आदि इन्द्रियों की क्षमता घटने लगती है। जीवनी शक्ति का अभाव होने लगता है। स्फूर्ति और सक्रि यता सिमटने लगती है। यही बुढ़ापे के लक्षण हैं।


मनुष्य में जल्दी बुढ़ापा आने का कारण उसकी मन:

स्थिति से भी अधिक जुड़ा हुआ है क्योंकि परिवार के असहनीय दु:ख दर्द अथवा शरीर को प्रभावित करने वाली अप्रत्याशित घटनाएं जीवन में अचानक नीरसता, निराशा, अवसाद और मानसिक दु:ख भर देती हैं जो अन्दर ही अन्दर उसे दीमक की तरह चाटती रहती हैं किन्तु इसका अपवाद भी है। जो दृढ़ हृदय के व्यक्ति होते हैं और हानि-लाभ, दु:ख-सुख तथा मृत्यु और जीवन को शाश्वत नियम मानकर निश्चित रहते हैं, उन्हें बुढ़ापा देर से आता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार हृदय, फेफड़ा और अस्थियों में इस प्रकार की क्षमता है कि वे पांच सौ वर्ष तक सहज रूप में काम कर सकती हैं बशर्ते जीवन को प्राकृतिक नियमों के अनुसार जिया जाये तथा नशे और अभोज्य पदार्थों के सेवन से बचा जाये। इसमें सन्देह नहीं है कि प्रकृति के विरुद्ध चलकर ही मनुष्य अपने पैरोें पर कुल्हाड़ी मार लेता है। काम-काज और पैसा बटोरने की ललक में मनुष्य इस कदर व्यस्त है कि उसे अपने स्वास्थ्य और लम्बा जीवन जीने के साधनों को अपनाने का समय ही नहीं है। कृत्रिम खाद्यान्नों और नशीले पदार्थों का सेवन ही उसके जीवन का आधार बन गया है।

अगर मनुष्य का आहार-विहार, संयम और मानसिक सन्तुलन सही बना रहे तो शरीर की रसायनिक प्रणाली को क्षति नहीं पहुंचती और उसके अंग अवयव आसानी से लम्बे समय तक कार्य करते रह सकते हैं। उनका कहना है कि अधिक चिन्ताएं, असंयम, थकावट और परेशानियों के झंझावात ही शरीर को झकझोर देते हैं।

इसके अतिरिक्त क्र ोध, वासना, उत्तेजना, नशा और अन्य दुर्व्यसन भी उतनी ही हानि पहुंचाते हैं, इसलिये शान्त, सरल, सन्तुष्ट और प्रसन्न स्थिति में ही जीवनी शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। शरीर के अवयव निरोग और स्वस्थ बने रहें, इसके लिये जरूरी है कि मस्तिष्क को निष्क्रि य, चिन्तित, व्यथित तथा उत्तेजित होने से बचाया जाये। निष्क्रि यता अक्सर उन्हीं लोगों में पनपती है जिन्होंने शारीरिक परिश्रम अथवा मानसिक रूप से व्यस्त रहने की आदत छोड़ दी हो।

सेवानिवृत्त कर्मचारियों का स्वास्थ्य अक्सर इसीलिये डगमगा जाता है कि उनकी नियमित दिनचर्या की व्यस्तता में कमी आ जाती है। एक सर्वेक्षण से यह भी पता चला है कि एकाकी जीवन जीने वालों का स्वास्थ्य अक्सर खराब रहता है और आयु भी अपेक्षाकृत कम होती है।

गैलेट वर्केस ने अपनी पुस्तक ‘लुक इलेविन ईयर्स यंगर’ में लिखा है कि एकान्त प्रिय मनोवृत्ति के व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक चिन्तित, खिन्न, उदास और निराश देखे गये हैं। ऐसे लोग बुढ़ापे की गिरफ्त में बड़ी जल्दी आ जाते हैं। यह तो बिल्कुल सही है कि उदासी और खिन्नता के रहते कोई भी सुखी, सशक्त और खुश नहीं रह सकता।

प्राय:

लोग बुढ़ापा आते ही घबराने लगते हैं। उनके दिमाग में यह बात बैठ जाती है कि अब तो जीवन का अन्त समय आ गया। यही बात उन्हें मानसिक तौर पर बेचैन करती है परन्तु यह एक भ्रम है। यदि महापुरुषों के जीवन पर दृष्टि डाली जाये तो अधिकांश ने अपनी वृद्धावस्था में महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित किये हैं। कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जर्मन कवि गेटे और उद्योगपति हेनरी फोर्ड जैसे नाम उल्लेखनीय हैं जिन्होंने वृद्धावस्था में ही ख्याति प्राप्त की।

निकम्मे, आलसी, सनकी, वहमी, दुष्ट और दुराचारियों का बुढ़ापा ही कष्टमय होता है अन्यथा यह अवस्था तो ऐसी है कि व्यक्ति सम्मान और श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है इसलिये हर व्यक्ति को बुढ़ापे के आगमन से पूर्व ही उसके लिये अपने आप को शारीरिक और मानसिक तौर पर तैयार कर लेना चाहिये। लोक मंगल, लोक सेवा के कामों में रूचि लेकर निष्क्रि यता से बचे रहने का प्रयत्न करना चाहिये। बुढ़ापे को अभिशाप न समझकर उसका लाभ उठाना चाहिये। –
परशुराम संबल

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