नोट और सिक्के भी फैलाते हैं प्रदूषण
पिछले कुछ समय से हर ओर प्रदूषण की चर्चा है। देखते ही देखते यह शब्द चारों ओर छा सा गया है। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सब के मुंह से यह शब्द सुनने को मिल जाता है। ‘प्रदूषण घटाओ, पर्यावरण बचाओ‘ आज का नारा है। अखबारों में, टी. वी. पर, गोष्ठियों में, आपसी बातचीत में बढ़ते प्रदूषण और बिगड़ते पर्यावरण की चिंता जताई जाती है।
टी. वी. पर मौसम की जानकारी के साथ अब महानगरों में प्रदूषण के प्रतिदिन घटते बढ़ते स्तर की जानकारी भी दी जाने लगी है। अब तो एनवायरनमेंट साइंस स्रातकोत्तर पाठयक्र म में एक मुख्य विषय के रूप में सम्मिलित कर लिया गया है तथा विद्यार्थियों में यही विषय लेने की होड़ सी लगी हुई है।
प्रदूषण कई प्रकार का होता है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण से ले कर शोर शराबे से होने वाले ध्वनि प्रदूषण तक हर प्रकार के प्रदूषण को नियन्त्रित करने के उपाय ढूंढे जा रहे हैं, अपनाए जा रहे हैं। इस कार्य में कोई ढिलाई न हो, इस पर उच्चतम न्यायालय तक कड़ी नजर रखे हुए है। धीरे-धीरे जनसाधारण में भी जागृति आई है। इस अभियान में जन सहयोग भी मिलने लगा है।
एक अन्य प्रकार का प्रदूषण भी है जिसकी ओर शायद किसी का ध्यान अब तक नहीं गया है और शायद शीघ्र जायगा भी नहीं। इस प्रदूषण का प्रकोप अपने यहां ही सर्वाधिक है। इस का स्रोत है करंसी नोट और सिक्के।
छोटे नोटों की आपूर्ति बंद होने तथा आवश्यक मात्रा में सिक्के उपलब्ध न होने के कारण पिछले कुछ वर्षों से छोटे शहरों और कस्बों में एक, दो और पांच रूपए के नोटों के नाम पर सड़े-गले, फटे-पुराने, मैले-गंदे चीथडेÞ नोट प्रचलन में हैं, ऐसी खस्ता हालत में कि बिना देखे अनुमान नहीं लगाया जा सकता। ऐसे भुरभुरे कि छूने भर से बिखर जाएं।
एक एक नोट पर कई कई चेप्पियां लगी हुई हैं। नोट को अंदाजे से ही नोट मानना पड़ता है वरना न उस पर रकम पढ़ी जा सकती है न नम्बर। जोड़-तोड़ ऐसा कि पांच वाले नोट पर एक और दो वाले नोटों के टुकड़े भी जुडेÞ मिल जाएंगे।
मरता क्या न करता। लोग इन्हीं को ले रहे हैं, दे रहे हैं। किसी प्रकार काम चला रहे हैं। अन्य नोटों की हालत भी कुछ अधिक अच्छी नहीं है। करोड़ों रूपयों के सिक्के वितरित किए जा चुके हैं किंतु स्थिति जैसी की तैसी ही है।
अब जरा सोच कर देखिए। यह फटे-पुराने, सड़े-गले, चीथड़े जैसे, ढेरों चेप्पियां लगे, मैले गंदे गंधाते नोट आप हाथ में लेते हैं। जेब में रखते हैं। देते लेते हैं। उन्हें गिनने के लिए बहुत से लोग विशुद्ध देसी तरीके से उंगली में बार-बार थूक भी लगाते जाते हैं। इस प्रक्रि या में न जाने कितने जीवाणु रोगाणु आप स्वयं ग्रहण कर लेते हैं, आगे बढ़ा देते हैं। हाल ही में प्रकाशित एक शोध प्रबंध के अनुसार नोटों पर लगे टेप, कागज की पटटी, चिपकी आदि में ढेरों जीवाणु छुपे रहते हैं। इस प्रकार जाने अनजाने हम कई रोगाणुओं के वाहक बन कर इस प्रदूषण को निरन्तर बढ़ाते रहते हैं।
वैसे भी सामान्य रूप में हमारे यहां नोटों का उपयोग बड़े बेढंगे और भद्दे तरीके से ही होता है जिससे उनकी जीवन अवधि बहुत कम रह जाती है। लोग नए नोट को भी तोड़ मरोड़ कर ही जेब में रखते हैं। गांव देहात वाले तो गांठ में बांध कर नोट का कचूमर ही निकाल देते हैं। साग भाजी वाला पानी से तर बतर बोरे के नीचे ही नोट भी रखता जाता है। चाट के ठेले वाले नमक-मिर्च, खटाई से सने हाथों से ही नोट लेते-देते हैं। इन मसालों की तीखी बू-बास नोटों में समाती जाती है। किरयाने वाला घी तेल सने हाथों से ही पैसों का लेन-देन करता है।
इस के अतिरिक्त भी नोटों का उपयोग (दुरूपयोग) भान्ति-भान्ति से किया जाता है। आप ने भी लोगों को नोट को कोन का रूप और आकार दे कर दांत कुरेदते और कान खुजाते देखा ही होगा। रिजÞर्व बैंक के स्पष्ट निर्देशों को दरकिनार करते हुए अच्छे भले पढ़े लिखे लोग भी वाटरमार्क वाले खाली स्थान पर न जाने क्या-क्या लिखने से नहीं चूकते। अत: जब कोई ठीक-ठाक नोट भी हमारे आपके हाथ में पहुंचता है तो उस पर कई प्रकार की लिखावट, तरह-तरह के दाग-धब्बे और भिन्न-भिन्न बू-बास समाहित होती हैं।
सिक्कों की दशा तो और भी अवर्णनीय व दयनीय है। कल ही हम ने देखा कि हमारे सामने बैठे सज्जन अपनी पिण्डली के एक्जीमा के बहते घाव को पहले तो नाखूनों से खुजाते रहे। फिर शायद खुजली का आवेग अधिक बढ़ जाने पर उन्होंने जेब से 2 रूपये का सिक्का निकाला और बड़ी देर तक उससे खाज मिटाने का आनन्द लेता रहा। फिर वह सिक्का उन्होंने वापस जेब में डाल लिया।
अंदाजा लगाइए, सामान्य प्रचलन में वह संदूषित सिक्का न जाने कितने हाथों में, जेबों में जाएगा और कहां कहां संक्र मण फैलाएगा। नितांत संभव है कि कोई शिशु खेल-खेल में उसे मुंह में भी डाल ले। नोटों की भान्ति सिक्के भी प्रचलन की अपनी यात्र में पूजा की थाली में भी जा पहुंचते हैं और छूत के रोगी के हाथों में भी।
करंसी नोटों और सिक्कों के इस प्रदूषण को कम करने में हम आप सहायता कर सकते हैं-नोटों का भली भान्ति रख-रखाव करके, उन्हें बेकार की तोड़-मरोड़ से बचा कर, (पर्स में रखने से ऐसा किया जा सकता है), नोटों और सिक्कों का संग्रह न करके, उन्हें प्रचलन में ला कर, धर्मस्थलों में चढ़ाए गए सिक्कों को नियमित रूप से नोटों में बदलने का प्रबंध करके, नदियों सरोवरों में सिक्के को न फेंक कर समय समय पर उनको बैंक खाते में जमा करवा कर, चैक द्वारा लेनदेन को बढ़ावा दे कर तथा ऐसे ही अन्य उपाय अपना कर। काफी हद तक इस प्रदूषण को रोका जा सकता है।
-ओम प्रकाश बजाज