Now mall instead of fair -sachi shiksha hindi

अब मेले की जगह मॉल

कभी हमारा वक्त आपसी इंटरएक्शन करते हुए रिश्तों को प्रगाढ़ बनाने, एक दूसरे को समझने व पहचान का दायरा बढ़ाने में गुजरता था। ऐसे में भावनाओं की भरपूर अभिव्यक्ति होती थी और इमोशंस की हेल्दी एक्सरसाइज हो जाया करती थी।
मगर आज की उपभोक्ता संस्कृति ने सारा परिदृश्य ही बदल के रख दिया है। महानगरों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए मॉल आज पब्लिक के लिए तीव्र आकर्षण बन गए हैं। महानगरों से अब ये छोटे शहरों तक पहुंचने लगे हैं। मॉल के कारण आज खरीदारी आसान हो गई है।

जहां पहले खरीदारी एक बेहद मुश्किल ऊबाऊ, थकाने वाला काम हुआ करती थी जिसमें बच्चे, बुजुर्ग अगर साथ होते, तो और भी ज्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। मॉल संस्कृति के पनपने से सारी परेशानियां दूर हो गई हैं। अब छुट्टी के दिन जब मॉल जाने का प्रोग्राम बनता है तो बच्चे सब से ज्यादा उत्साहित फील करते हैं। उनके मनोरंजन का वहां पूरा इंतजाम होता है। प्ले कॉर्नर उनके लिए सबसे बड़ा आकर्षण होता है।

दरअसल क्या बच्चे, क्या बड़े, सभी यहां भरपूर एंजॉय करते हैं। कपड़े एक से एक लेटेस्ट डिजाइन के यहां मिल जाएंगे। गृहणियों के लिए रसोई के सामान की भी खूब वैरायटी मिलती है। यहां दुकानें इस तरह तैयार की जाती हैं कि शॉपर्स आराम से खरीदारी कर सकें। मॉल में कई फ्लोर्स होते हैं जिन पर जाने के लिए लिफ्ट या एस्केलेटर की सुविधा होती है।
दुकानों पर सेल्समैन या सेल्सगर्ल्स का बिहेवियर भी काफी डिसेंट होता है। आपको किसी चीज को खरीदने के लिये वे फोर्स नहीं करते। चीज पसंद न आने पर वे आपका अपमान करने की गुस्ताखी नहीं करते।

इस तरह एक खुशनुमा वातावरण बना रहता है। यहां पर आपको सिनेमा हॉल भी मिल जाऐगा, फूड कोर्ट भी। बड़े से मॉल में घूमते-फिरते भूख भी अच्छी-खासी लग आती है। हां, शॉपिंग के दौरान पैसा अच्छा-खासा खर्च हो जाता है। ब्रांडेड चीजें दामी तो होती ही हैं, लेकिन साथ ही ‘ब्राय वन गेट वन फ्री’ का फंडा भी खूब चलता है। डिसकांउट के आॅफर भी साथ-साथ चलते हैं।

मॉल में सुबह से शाम कैसे गुजरती है, पता ही नहीं चलता। यह एक बढ़िया आउटिंग का जरिया बन गया है बल्कि एक अच्छी-खासी पिकनिक हो जाती है यहां आकर।

एक मल्टीनेशनल कंपनी की सी ई ओ मिस राधिका छजलानी जो कि अविवाहित हैं, कहती हैं, मैं अपनी छुट्टी का दिन मॉल में ही बिताती हूं, कभी किसी फ्रैंड के साथ या फिर अकेले ही। जरा भी बोरियत नहीं होती है यहां आकर। मेरी फ्रेंड रत्ना जो लेखिका हैं वे मॉल में वक्त गुजारना बहुत पसंद करती हैं। उनका कहना है उन्हें यहां से लिखने के लिये बहुत मसाला मिल जाता है।

मिस्टर आहूजा एक इकोनॉमिस्ट और सोशल वर्कर कहते हैं कि मॉल में शॉपिंग करने से समय और मेहनत दोनों की बचत होती है हालांकि, एक नुकसान ये है कि जरूरत से ज्यादा शॉपिंग हो जाती है। रूमाल लेने जाओ तो सूट आ जाता है। ऐसा अमूमन होता है। बजट से कुछ ऊपर ही चले जाते हैं हम यहां। कैश कम पड़ता है तो डेबिट या क्र ेडिट कार्ड निकल आता है। कभी-कभी शॉपिंग पर पॉइंट्स मिलने की स्कीम के लालच में आकर फ्यूचर में डिस्काउंट मिलने का आकर्षण भी शॉपर्स को लुभाता है। ये सब मार्केटिंग के फंडे हैं जिनमें व्यक्ति उलझ जाता है।

लेकिन यह भी सही है कि मॉल में हर सामान पर टैग लगा होने से मन में ठगे जाने का संशय घर नहीं करता जबकि मार्केट में खरीदी गई चीज कीमत को लेकर संशय के दायरे में होती हैं।

बहरहाल हर चीज के फायदे, नुकसान दोनों ही हैं लेकिन ये सच है कि बाजार ने लोगों का जीवन ढर्रा ही बदल दिया है। जहां महंगाई बढ़ी है, लोगों की स्पेंडिंग पावर भी बढ़ी है, उनका स्टेंडर्ड आॅफ लिविंग भी बढ़ा है। मॉल कल्चर ने लोगों की नब्ज पकड़ ली है। आज ये बिग बाजार आम बाजार पर हावी हैं। यहां नौचंदी और प्रदर्शनी का सा मजा भी है और पिकनिक का भी।

गाड़ी पार्क करना भी यहां प्राब्लम नहीं है। पार्किंग लॉट तक सामान लिफ्ट से आराम से लाया जा सकता है। कोई धक्का मुक्की नहीं, कोई ईव-टीजिंग नहीं। फिर क्यों न मॉल कल्चर के लोग दीवाने बनें और वहां उतना ही लुत्फ उठायें जैसे कि कभी मेले-ठेलों में उठाते थे।
-उषा जैन ‘शीरीं’

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