Satguru spared grandchildren on the pretext of goats

सत्संगियों के अनुभव
पूजनीय सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज का रहमो-करम
सतगुरु जी ने बकरों के बहाने पोते बख्शे Satguru spared grandchildren on the pretext of goats

सचखण्डवासी सेवादार मक्खन सिंह पुत्र श्री भाग सिंह गाँव श्री जलालआणा साहिब जिला सरसा ने निम्नअनुसार अपना यह निजि अनुभव किसी समय पहले सांझा किया था।

हम तीन भाई थे। बड़ा मैं, बीच वाला खिल्लन सिंह व छोटा मल्ल सिंह था। मैं और खिल्लन सिंह तो ज्यादा समय डेरा सच्चा सौदा में ही बिताते थे, सेवा करते थे। छोटा भाई मल्ल सिंह घर का कारोबार भी करता था व डेरा सच्चा सौदा में भी सेवा करता था।

सन् 1958 में एक दिन बेपरवाह मस्ताना जी डेरा सच्चा सौदा चोरमार में पधारे हुए थे। साध-संगत बहुत दूर-दूर से आई हुई थी। बेपरवाह जी ने प्रभावशाली सत्संग फरमाया और बेशुमार दातें बांटी। दाता जी ने किसी को सोने की मोहरें, किसी को भैंस, किसी को गाय व किसी को बकरियां दी। अन्तर्यामी सतगुरु जी ने मेरे से (साधु मक्खन सिंह से)पूछा, ‘भाई! तूं की लैणा है?’ मैंने कहा कि जी! जो मर्जी दे दो। शहनशाह जी ने मुझे दो छोटे-छोटे बकरे दे दिए। बड़े बकरे का रंग काला था और छोटे का रंग लाल था। मैं यह इलाही दात प्राप्त करके बहुत खुश हुआ और खुशी-खुशी बकरों समेत घर पहुंच गया।जब मैं अपने घर पहुंचा और कुल मालिक द्वारा दी हुई दातों व खुशियों का जिक्र किया तो मेरी माँ मेरे से नाराज हो गई। वो मुझे कहने लगी कि हमने इन बकरों का क्या करना है? सार्इं जी ने किसी को सोना, किसी को दूध पीने के लिए भैंस, गाय, बकरियां दी पर हमें क्या दिया?

मेरी माता जी अगले दिन सुबह ही गुस्से में ही सच्चा सौदा चोरमार चली गई और दयालु सतगुरु जी के चरणों में पहुंच कर अर्ज कर दी कि साई जी, आप ने हमें क्या दिया? लोग हमें मजाक करते हैं कि जैसे सभी भाई आप कुंवारे थे वैसे ही बाबा जी ने बकरे दे दिए हैं। सतगुरु जी ने वचन फरमाया, ‘भाई! सुख नहीं सुखदी कि मेरे पोते होण। इन बकरों को न किसी को देना है, न ही इन्हें रेवड़ में छोड़ना है। इनकी घर में ही सेवा करनी है। जब ये शरीर छोड़ जाएंगे तो ये तुम्हारे घर जन्म लेंगे।’ मेरी माता दयालु दातार जी के वचन सुनकर बहुत खुश हुई और खुशी-खुशी घर लौट आई। उस समय हम तीनों भाई कुंवारे थे। मेरी माता को आशा हो गई कि मेरे पोते होंगे।

अब मेरी मां उन बकरों को थाल भर कर चने डाला करे और सेवा किया करे।
मैं और खिल्लन सिंह डेरा सच्चा सौदा में सेवा करने के लिए समर्पित हो गए। हम दोनों भाईयों ने विवाह करवाने का ख्याल छोड़ दिया। हमारे छोटे भाई मल्ल सिंह से 1965 में कत्ल हो गया था जिस में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट चण्डीगढ़ की तरफ से उसे फांसी की सजा हो गई थी। सतगुरु के वचन भी युगों-युग अटल होते हैं जैसे कि महापुरुषों का वचन है कि ‘सन्त वचन पलटे नहीं पलट जाए ब्रह्मण्ड।’ मालिक ने खेल खेला। मल्ल सिंह जेल से फरार हो गया। इस समय के दौरान मल्ल सिंह का विवाह हो गया सन् 1975 में बड़े बकरे ने शरीर छोड़ दिया तो सन् 1976 में मल्ल सिंह के घर एक बच्चे ने जन्म लिया। सन् 1977 में छोटे बकरे ने शरीर छोड़ दिया तो सन् 1978 में दूसरे लड़के ने जन्म ले लिया।

मालिक के वचनों से मल्ल सिंह की फांसी भी टूट गई। क्योंकि बेपरवाह मस्ताना जी ने सन् 1958 में मल्ल सिंह की सेवा से खुश होकर वचन किए थे, ‘मल्ल सिंह! तेरी सेवा सतगुरु को मंजूर हो गई है। भाई! ऐसी सेवा तो सूली को भी तोड़ सकती है! दुनिया में रड़ मच जाएगी।’ ग्यारह वर्ष बाद मल्ल सिंह पकड़ा गया। सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए 90 दिन होते हैं पर अब तो ग्यारह वर्ष हो चुके थे। प्रेमी मल्ल सिंह को फांसी लगनी निश्चित थी पर सतगुरु के वचनों के अनुसार फांसी नहीं लग सकती थी।

अक्टूबर 1979 में जब प्रेमी का केस सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए लगा तो सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि मृत्यु की सजा प्राप्त मल्ल सिंह की अपील पर अन्तिम फैसला होने तक देश भर में (ऐसे मृत्यु की सजा प्राप्त) दोषियों की सजा पर रोक लगाई जाती है। यह आदेश लगभग छ: महीने तक लागू रहा। अदालत ने मल्ल सिंह की सजा फांसी से कम करके बीस साल कर दी। अपने अच्छे चाल-चलन व अच्छे व्यवहार के चलते कुछ वर्षाें में ही मल्ल सिंह वापिस घर अपने बच्चों में आ गया। इस तरह सतगुरु के वचनों ने उसकी सूली सूल में बदल दी। दुनिया में रड़ मच गई। अर्थात् इस बात की चर्चा सारी दुनिया में हुई व दुनिया भर के समाचार पत्रों, रेडियो स्टेशनों ने इस खबर को प्रसारित किया गया।

जब सन् 1979 में मल्ल सिंह की फांसी तुड़वाने के लिए अपील की गई थी तो उन्हीं दिनों में परम पिता शाह सतनाम जी महाराज श्री जलालआणा साहिब में पधारे हुए थे। परम पिताजी ने चन्द सिंह सेवादार(जो डेरा सच्चा सौदा श्री जलालआणा साहिब में रहता था)को पूछा, ‘मल्ल सिंह दे बच्चे इत्थे जलालआणा आ गए?’ तो उसने कहा कि हां जी! आ गए। परम पिताजी ने फरमाया, ‘उहनां नूं इत्थे सद के लिआओ।’ मल्ल सिंह की घरवाली ने अपने दोनों लड़कों को लेकर परम पिताजी के पवित्र चरण-कमलों में सजदा किया। परम पिताजी हँसते हुए फरमाने लगे, ‘बेटा! मल्ल सिंह नूं कुछ नहीं हुन्दा। (बच्चों की तरफ इशारा करते हुए) तुहानूं पता है इह कौण हन?’ मल्ल सिंह की पत्नी ने कहा कि जी मुझे कोई पता नहीं। परम पिताजी ने बड़े लड़के की तरफ इशारा करते हुए फरमाया, ‘इसदा गुदाम खोल!’ मल्ल सिंह की पत्नी ने उसके गले वाला बटन खोल दिया तो अन्तर्यामी सतगुरु जी ने वचन फरमाए, ‘बेटा, मक्खन सिंह नूं बकरे दित्ते सी। ओह आह निशान (गले की तरफ इशारा करते हुए) है जिहड़ा वड्डे बकरे दे गल ते सी।

वड्डा बकरा तकड़ा ते छोटा लिस्सा (कमजोर) सी। इह वड्डा लड़का तकड़ा ते छोटा लिस्सा है।’ वर्णनीय है कि बड़े लड़के के गले पर अब भी निशान देखा जा सकता है।इसी तरह एक सरसा शहर का निवासी जिसका नाम केसर राम है, डेरा सच्चा सौदा सरसा में बेपरवाह मस्ताना जी महाराज के चरणों में अर्ज करने के लिए आया था। उसने अर्ज की, सार्इं जी! हमारे घर औलाद नहीं है। बच्चे की कृपा करो। बेपरवाह जी ने वचन फरमाए, ‘घर से चलते ही यही आशा लेकर आया है, तेरे मन में और कोई ख्याल नहीं है। यह ख्याल छोड़कर मालिक का भजन-सुमिरन कर।’

कुछ दिन के बाद उसने दोबारा शहनशाह मस्ताना जी के चरणों में अर्ज कर दी। दयालु दातार जी के दिल में दया आ गई। बेपरवाह जी ने एक साधु को हुक्म फरमाया, ‘बाहर जाकर देखो एक कुतिया के बच्चे पैदा हुए हैं, उनमें से एक बच्चा उठा कर ले आओ।’ साधु कुतिया का बच्चा उठा कर ले आया। शहनशाह जी ने उस कतूरे के गले में, कानों पर और उसकी पंूछ पर कई नोटों के हार बांधे। फिर केसर राम को हुक्म फरमाया, ‘तू इसको घर ले जा और इसकी अच्छी तरह से सेवा करना। अगर मालिक को मंजूर हुआ तो तेरे घर बच्चा पैदा हो जाएगा।’जब केसर राम कतूरा लेकर अपने घर गया और अपनी पत्नी को सारी बात बताई तो वह गुस्से में आ गई व कहने लगी कि सार्इं जी के पास तेरे लिए यही कुत्ते का बच्चा था? इसको क्या करना है? मैं इसकी सेवा नहीं कर सकती।

इसको वापिस छोड़ आओ। दूसरे दिन केसर राम वह कुत्ते का बच्चा लेकर बेपरवाह जी के चरणों में पेश हो गया। कहने लगा कि मेरे घरवाली इसकी सेवा नहीं कर सकती। बेपरवाह जी ने वचन फरमाया, ‘कोई बात नहीं! तुम्हारी मर्जी है।’ साधु को हुक्म फरमाया, ‘इसको जहां से लाए हो वहीं छोड़ आओ।’ साधु उस कतूरे को उसी कुतिया के पास छोड़ आया। उस केसर राम को अब तक भी बच्चे का मुंह देखना नसीब नहीं हुआ है। अगर वह सतगुरु के वचनों को मान लेता तो मालिक ने उसको खुशियां दे ही दी थी। पर वह दयालु सतगुरु जी की रमज को समझ नहीं सका।

उपरोक्त साखी प्रमाण से स्पष्ट है कि सतगुरु जीव को जो भी दात देवे या जो भी हुक्म देवे। जीव को उसे खुशी-खुशी परवान कर लेना चाहिए। इसी बात में ही जीव की भलाई है व बेअन्त खुशियां मिलती हैं। जो जीव सतगुरु के हुक्म को नहीं मानते, वह खुशियों से खाली रह जाते हैं।

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