make daughter independent - sachi shiksha hindi

बेटी को आत्मनिर्भर बनाइए

प्रत्येक माता-पिता का यह नैतिक दायित्व होता है कि वे अपनी प्यारी-दुलारी बिटिया को उच्च शिक्षा दिलाएं ताकि वह कोई नौकरी अथवा व्यवसाय करके आत्मनिर्भर बन सके। इससे वह आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी। स्वयं को किसी से हीन न समझें। इस प्रकार उसे किसी के भी सामने हाथ फैलाने नहीं पड़ेंगे। उसकी परेशानी का सबसे बड़ा कारण समाप्त हो जाएगा।

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यदि वह आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर नहीं रहेगी तो उसे दिन-प्रतिदिन अपमानित नहीं होना पड़ेगा। चाहे अपना जीवन साथी ही क्यों न हो, उससे भी धनराशि मांगने पड़ती है तो बहुत संकोच होता है। कई ऐसे पर्सनल खर्च होते हैं, जो हर महिला को करने पड़ते हैं और पति को जिन्हें बताना उसे गवारा नहीं होता। उसके लिए वह घर खर्च के लिए मिली राशि से कुछ बचत करती रहती है।

कई बार एक मां को अपने बच्चों की छोटी-छोटी जरूरतों को भी पूरा करना पड़ता है जो किसी हिसाब में नहीं आ पाते। यदि वह उन खर्चों की चर्चा पति से करती है तो घर में महाभारत हो जाती है। तब पति द्वारा उसे बच्चों को बिगाड़ने का ताना दिया जाएगा। कभी-कभार दोस्तों के साथ उसे कुछ धन व्यय करना पड़ जाता है। उसके पास धन होगा, तभी तो वह खर्च करेगी।

अपने घर से मांगेगी तो उसे भला-बुरा कहा जाएगा। उस पर फिजूलखर्ची करने का आरोप लगाया जाएगा। इससे भी बढ़कर यह कहा जाएगा कि घर के खर्चे पूरे नहीं होते तो उसके दोस्तों का खर्च कैसे उठाया जाए? यह एक घर की नहीं, सबकी कहानी है। पति अपने दोस्तों के साथ पैसा उड़ाए, व्यसनों में धन बर्बाद करे अथवा पैसे को कहीं भी खर्च करे, सब जायज है। उसे टोका जाए तो कहेगा मेरी कमाई है, मैं जो मर्जी करूँ पर पत्नी का जायज खर्च भी उसे नाजायज लगता है।
घर-गृहस्थी में भी कई ऐसे खर्च हो जाते हैं जो उसे मजबूरी में करने होते हैं। यह पैसा ही सारे फसाद या झगड़े की जड़ है। इसके चक्कर में मनुष्य जानवर तक बन जाता है। इस कारण आपस में मारपीट और खूनखराबा तक हो जाता है। कई बार घर में झगड़ा इतना बढ़ जाता है कि पति और पत्नी में अबोलापन होने लगता है। फिर बढ़ते-बढ़ते अलगाव की स्थिति बन जाती है।

बेटी यदि पढ़-लिखकर आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर नहीं होगी तो उसे इन समस्याओं से दो-चार नहीं होना पड़ेगा। कई बेटियाँ ऐसी भी होती हैं जो अपने माता-पिता की खराब आर्थिक स्थिति के चलते छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी ओटना चाहती हैं। इस दायित्व को तभी निभा सकती हैं, यदि उनके पास अपनी कमाई होगी। हालांकि इस कार्य के लिए भी बहुत से परिवार उसे ऐसा न करने के लिए बाध्य करते हैं।

कुछ बेटियाँ अपने ससुराल और अपने पति का विरोध सहन करके भी मायके की सहायता करती हैं। वृद्धावस्था में अपने माता-पिता के लिए सदा ही चिन्तित रहने वाली बेटियाँ उनका सहारा बनती हैं और उनकी देखभाल करती हैं। हमारे पुरुष प्रधान समाज की यह त्रासदी है कि पति चाहे धन का उपयोग करे या दुरुपयोग कर उसे खुली छूट दे दी जाती है, इसे उसका हक माना जाता है, परन्तु यदि पत्नी अपनी इच्छा से कुछ भी खर्च दे तो वह कटघरे में खड़ी कर दी जाती है। उस पर दोषारोपण करके, उसे तिरस्कृत किया जाता है।

बेटी अपने घर में प्रसन्न रहती है, तो उसके माता-पिता सन्तुष्ट होते हैं अन्यथा बेटी के साथ उनका जीवन भी नरक बन जाता है। इन विकराल स्थितियों से अपनी बेटी को बचाने के लिए उसको स्वावलम्बी बनाना बहुत आवश्यक है। हर माता-पिता को इस विषय में सजग रहने की बहुत आवश्यकता है। चन्द्र प्रभा सूद

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