spiritual satsang - DSS - Sachi Shiksha

रूहानी सत्संग: पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी धाम, डेरा सच्चा सौदा सरसा
मानस जन्म का फायदा, उठाता है कोई-कोई। फाही जन्म-मरण की, मुकाता है कोई-कोई।।
मालिक की साजी नवाजी प्यारी साध-संगत जीओ! साध-संगत, मालिक की रंग-बिरंगी फुलवाड़ी, एक महासागर की तरह नजर आती है। जहां नजर दौड़ाते हैं पण्डाल में आपका प्यार उमड़ रहा है, और लगातार साध-संगत अभी भी आ रही है। ऐसे समय में, ऐसे घोर कलयुग में सत्संग में आना कोई मामूली बात नहीं होती।

जहां पर स्वार्थ का बोलबाला हो, गर्जी युग हो वहां पर अल्लाह, वाहेगुरु, राम के नाम में बैठना मुश्किल है। जो आप लोग दूर दराज से चल कर आए हैं, आस-पास से चलकर आए हैं, कीमती समय निकाला है, मन से भी आप लड़े हैं मन रोकता है, टोकता है, इन सभी का सामना करते हुए यहां पहुंचे हैं, आप बहुत भाग्यशाली हैं। मालिक, वाहेगुरु, राम की दया-मेहर, रहमत है। आप सभी का सत्संग में, डेरे में, आश्रम में पधारने का तहेदिल से बहुत-बहुत स्वागत करते हैं, जी आया नूं, खुशामदीद कहते हैं, मोस्ट वैल्कम। आज जो आपकी सेवा में सत्संग होने जा रहा है,

जिस भजन, शब्द पर आज का सत्संग होगा वो भजन है:-

मानस जन्म का फायदा,
उठाता है कोई-कोई।
फाही जन्म-मरण की,
मुकाता है कोई-कोई।।

इन्सानी शरीर का सबसे बड़ा लाभ, या यूं कहें, इन्सानी शरीर से सबसे अधिक लाभ इन्सान ले सकता है। हमारे जितने भी धर्माें में रूहानी सूफी संत, पीर-पैगम्बर हुए हैं, उन्होंने यही फरमाया है कि इन्सान का वजूद, शरीर बड़ा ही जबरदस्त है। इसमें सोचने समझने, की ताकत, सहन-शक्ति और ऐसे-ऐसे अजीबो-गरीब गुण भरे हुए हैं जिसे पूर्णतय: अभी तक वैज्ञानिक भी नहीं पढ़ पाए हैं।

सबसे अधिक दिमाग, अक्ल होने की वजह से ये उस रहस्य को जो जीवन के उस पार है, जहां से जीवन शुरू होता है और मरणोपरान्त भी वहीं, उस रहस्य को इन्सान अपने विचारों से सुलझा सकता है, वहां तक पहुंच सकता है। यही इसका सबसे बड़ा उद्देश्य है कि अपने अन्दर की रिसर्च, खोज करे और ओ३म, हरि, अल्लाह, खुदा, रब्ब, वाहेगुरु जिसको लाखों नामों से बुलाया जाता है, उस मालिक की सच्चाई के बारे में, दया-मेहर, रहमत के बारे में जान सके, महसूस कर सके। ऐसा संभव है, ऐसा हो सकता है, अगर इन्सान वो युक्ति, तरीका, जाने जिसके द्वारा आत्मिक शक्तियां जागृत हो जाएं और आत्मिक तरंगों के सहारे वो उस रूहानी प्रकाश ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहेगुरु, राम के दर्शन-दीदार के काबिल बन सकता है। आत्मिक शक्तियां जागृत करना इन्सानी शरीर के अलावा किसी और शरीर को सम्भव नहीं है।

इन्सान में ही ये गुण हैं या सोचने, समझने की ताकत या दिमाग कहें जो उस प्रभु ने दिया है जिसके द्वारा ये आत्मिक चिंतन करता हुआ आत्म-विश्वास पैदा करता है, आत्मिक शक्ति हासिल करता है और उस आत्मिक-शक्ति से ही अन्दर की खोज होती है। उसकी भक्ति, इबादत करके, उसकी दया-मेहर हासिल करना, उसके दर्शन-दीदार के काबिल बनना इन्सानी शरीर में ही मालिक ने भर रखा है। भाई! आप इन्सानी शरीर से ये काम जरूर लें कि एक तो जितना हो सके सबका भला करें,परमार्थ करें, बेगर्ज, नि:स्वार्थ सबसे प्यार-मोहब्बत करें और ज्यादा समय मालिक की याद में लगाएं। काम-धन्धा करते हुए, चलते, बैठकर, लेट कर, तो यकीन मानिए! मालिक की दया-मेहर, रहमत के काबिल आप जरूर बनेंगे। ये आप पर निर्भर है कि आप मेहनत करेंगे तो उसका फल जरूर मिलेगा। यही भजन में लिखा है:-

मानस जन्म का फायदा उठाता है कोई-कोई।
फाही जन्म मरन की, मुकाता है कोई-कोई।।

आत्मा के जन्म-मरण के आवागमन की पड़ी हुई फांसी वो ही मिटा सकता है जो ईश्वर के नाम से जुड़ता है। वरन् आवागमन से आजादी नहीं मिलती। इस बारे में जो रूहानी पीर-फकीरों की वाणी में लिखा है:-

सफल बना ले जन्म मनुष्य का,
हरि का नाम ध्याले तू।
सन्तों के चरणों में अपना,
पे्रम-प्यार लगा ले तू।
कर अरजोई मालिक आगे,
माफ कसूर करा ले तू।
सत्संग कर सन्तों का भाई,
नाम-पदार्थ पा ले तू।
स्वास-स्वास में सुमिरन करके,
हृदय शुद्ध बना ले तू।।

टेक:-

मानस जन्म का फायदा, उठाता है कोई-कोई।
फाही जन्म-मरण की, मुकाता है कोई-कोई।।

1. जन्म से लेकर मरने तक,
काम करता तन लिए।
काम आत्मा के आने वाला
करता है कोई कोई। मानस….

2. काम-काज खाने सोने में,
समय है गुजारता।
कीमत कदर समय की,
करता है कोई-कोई। मानस…

3. बड़ी मुश्किल के बाद,
यह जन्म मिलता है।
कदर कीमत इस जन्म की,
पाता है कोई-कोई। मानस …

4. भूल कर उस दातार को,
दातों को पकड़ बैठा।
जाने है दयाल दातार को,
बन्दा है कोई-कोई। मानस…

5. मायक पदार्थाें लिए,
फिरता है भागता।
सच्चा नाम का है धन जो,
कमाता है कोई-कोई। मानस जन्म…

भजन के शुरू में आया है:-

जन्म से लेकर मरने तक,
काम करता तन लिए।
काम आत्मा के आने वाला,
करता है कोई-कोई।

इन्सान का अगर जीवन देखा जाए तो शुरू से लेकर आखिरी स्वास तक अधिकतर लोग अपने तन के लिए करते रहते हैं। तन के लिए, शरीर के लिए सब कुछ बनाया जाता है। खेलता-कूदता है, मनोरंजन करता है यानि शरीर की खुशी के लिए दौड़ता रहता है। बाल-बच्चे पैदा होते हैं और शरीर को ही तकलीफ आती है। जब ज्यादा पैदा हो गए फिर कमाने के लिए दौड़ता है, भागता है, फिर कोई धर्म, दीन-ईमान नहीं देखता। बस! माया का गुलाम होता जाता है। अपने अपने द्वारा बनाए हुए जाल में आप ही इन्सान फंसता चला जाता है।

जो आत्मा के काम आए, आत्मा को आत्मिक शक्ति दे ऐसा कार्य कोई कोई ही जीव करता है। आगे भजन में आया है:-

काम-काज खाने सोने में, समय है गुजारता।
कीमत कदर समय की, करता है कोई-कोई।

संसार में अधिकतर लोगों ने यह असूल बना रखा है कि खाओ, पीओ, ऐश उड़ाओ। ये जग मिठ्ठा, अगला किसने देखा है। खाने-पीने में अधिकतर लोग, मांस, अण्डे का सेवन करते हैं, पीने में शराब, नशे का। जहां तक मांस-अण्डे की बात है, डॉक्टर, वैज्ञानिक भी काफी हद तक मानते हैैं कि इंसान शाकाहारी है। इसके दांत, इसकी आन्तड़ियां, जबड़ा है और अन्य भी बहुत से बिन्दु हैं जो शाकाहारी जीवों से मिलते हैं।

रूहानी सूफी संत ये कहते ही आए हैं कि मांस-अण्डा मत खाइए। आपके अन्दर ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहेगुरु, राम, खुदा, रब्ब, भगवान है वो ही परमात्मा हर किसी के अन्दर है। आप किसी को तड़पाते हैं समझिए मालिक को तड़पा रहे हैं। अगर आप के काटने में दर्द होता है तो दूसरों के काटने में मरहम-पट्टी नहीं होती। कई लोग उसको गेहूं से जोड़ देते हैं। गेहूं में भी जान है, फल है, फ्रूट है उसमें भी जान है, उसे क्यों खाया जाता है! जहां तक गेहंू का सवाल है उसे न काटें तो उसका बीज नाश हो जाता है, ये हमने स्वयं प्रैक्टीकल किया है।

ऋतुएं यहां बदलती हैं उस ऋतु में जब गेहूं सूख जाती है फिर गेहूं को काट लिया जाता है। अगर नहीं काटते तो बरसात, हवा में बल्ली-छल्ली में से गेहूं के दाने बिखर जाते हैं। जो धरती में गए, पैदा हो गए और वो पौधा आठ-नौ इंच का बन गया। उसके बाद वो पौधा जड़ से खत्म हो गया क्योंकि उसकी ऋतु नहीं थी, मौसम उसके अनुकूल नहीं था। इसीलिए उसे काटते हैं तब जब वो मृत प्राय: होता है। उसको निकालते हैं, खाते हैं, बीज भी रखते हैं। एक तरफ गेहूं को काट कर देखिए, एक तरफ बकरे की गर्दन उड़ा कर देखिए। यहां खून की धार बहेगी और वहां कुछ नहीं होगा। अगर आप इंसान हैं तो आपका दिल जरूर दहल उठेगा जब वो खून बहेगा और अगर हैं ही बेरहम तो फिर क्या कहना।

आगे आया है:-

समय जा रहा है, जो भी क्षण, सैकिण्ड, मिनट, घण्टा, दिन, महीना, साल आपकी जिंदगी का गुजर गया वो आपको आपकी आखिरी तबदीली के नजदीक ले जा रहा है। आप मौत के करीब होते जा रहे हैं। आपकी उम्र बढ़ नहीं रही बल्कि घट रही है। आपकी गारन्टी कुछ भी नहीं है। सामान की तो फिर भी साल, दो साल, छ: महीने, छ: साल की गारन्टी होती है पर इंसान का शरीर अति-उत्तम सन्तों ने कहा पर इसकी कोई गारन्टी नहीं है। एक कदम उठाया दूसरा उठाने का हुक्म हो या न हो।

‘तिल बढेÞ ना राई घटे जो लिखदी करतार।।’
ईश्वर की तरफ से यह भी निश्चित है कि मौत कहां जाकर आनी है।
‘पहले बने परारब्ध, पाछे बने शरीर।।’

पहले लिख दिया जाता है कहां जाकर शरीर को छूटना है, यह निश्चित है। कहां पर, किस जगह पर। कई बार इन्सान वहां कभी गया ही नहीं होता और वहां जाते हैं और जाते ही मौत हो जाती है और कोई काम वो कर ही नहीं पाते। भाई! ये सच्चाई आम उदाहरणों में देखने को मिलती है।

आगे आया है:-
बड़ी मुश्किल के बाद, यह जन्म मिलता है।
कदर कीमत इस जन्म की, पाता है कोई-कोई।

बहुत समय गुजरने के बाद जन्म मिलता है, बड़ी मुश्किल से मिलता है।
इस बारे में पीर फकीरों की वाणी में शम्स तबरेज साहिब भी यही फरमाते हैं:-

अनन्त काल गुजरने के बाद ये मनुष्य जन्म की दौलत मिलती है। यदि ये समय हमारे हाथों में से निकल गया तो फिर कब मनुष्य जन्म मिलेगा।
यही बात कबीर साहिब जी भी लिखते हैं:-
कबीर मानस जनमु दुलंभु है होइ न बारैबार।
जिउ बन फल पाके भोइ गिरहि
बहुरि न लागहि डार।।

जैसे पृक्ष की टहनी से फल पक कर धरती पर गिए जाए वो पका हुआ फल दोबारा उस टहनी पर नहीं लग सकता। कबीर जी यही कहते हैं कि इन्सान का शरीर प्रभु को मिलने के लिए पका हुआ फल है। अगर एक बार ये आत्मा के हाथ से चला गया तो बार-बार नहीं मिलता। पर कई ये कहते हैं कि आप इन्सान थे, इन्सान हैं और इन्सान ही रहेंगे। फिर राम नाम की तो कोई जरूरत ही नहीं है। सवाल ही पैदा नहीं होता। रूहानियत इस चीज को नहीं मानती, बिल्कुल नकारती है। चौरासी लाख शरीर हैं उनमें घूमना पड़ता है, जन्म लेना पड़ता है। ऐसे अनुभव भी हैं लोगों को महसूस भी होता है।

धर्म सभी सिखाते हैं कि मालिक एक है, हम सब उसकी औलाद हैं और आपस में बेगर्ज नि:स्वार्थ प्यार हो, अल्लाह-राम से प्यार हो। यहां रहते हुए अच्छे-नेक कर्म करो, हक-हलाल, कड़ा परिश्रम करो और मालिक का नाम जपो ताकि यहां स्वर्ग, जन्नत से बढ़ कर नजारे ले सको। धर्माें में एकता की बात आती है, सच्चाई की बात आती है पर कोई सुनता है, कोई सुनकर मानता नहीं और कोई सुनता ही नहीं।

भजन में आगे आया है:-
भूल कर उस दातार को, दातों को पकड़ बैठा।
जाने है दयाल दातार को, बन्दा है कोई-कोई।

मालिक के बनाए मायक-पदार्थों में इन्सान खोया हुआ है और मालिक को भूल गया। उसकी दातें हैं, उसके पदार्थ हैं उनमें खोया हुआ है। देखने में आता है कि इंसान अल्लाह, राम, परमात्मा को तब अधिक याद करते हैं जब कोई आफत आ जाती है। जान जाने का डर हो, नौकरी जाने का डर हो या नौकरी पर जाना हो, इन्टरव्यू आया हो या पैसा लगाया हो या घाटा पड़ने की खबर आ जाए तब देखो फिर जुबान पर राम-राम-राम, अल्लाह-अल्लाह-अल्लाह ही चलता है। तब ऐसे चलता है जैसे कम्प्यूटर में फीड कर दिया हो, बटन दबाया और चल पड़ा।

ऐसी भक्ति की भावना जाग पड़ती है क्योंकि माया जो डूब रही है, घाटा जो पड़ रहा है। नौकरी जाने का डर हो गया , सामने मौत नजर आ रही है, तब भक्ति जाग पड़ती है और आगे-पीछे कहता है भगवान, मैं तेरे को मानता हूं लेकिन याद तब करूंगा जब समय लगेगा। राम के लिए समय नहीं है, काम और बहुत हैं। प्रत्येक कार्य के लिए समय निश्चित है। सुबह उठते हैं, रफा-हाजत जाते हैं, मुंह धोते या नहाते हैं, नाश्ता लेते हैं अपने-अपने धन्धे पर जाते हैं, खाना खाया रात को सो गया, विषय-विकार में खो गया, सुबह उठे फिर से यही रूटीन, इन सबके लिए समय निश्चित है। समय नहीं है तो अल्लाह, वाहेगुरु, राम के लिए नहीं है। उसे तब याद करता है जब जरूरत पड़ती है। यह सच्चाई, वास्तविकता है। भाई! संतों, पीर-फकीरों ने बिल्कुल साफ लिखा है:-

दु:ख में सुमिरन सब करे,
सुख में करे ना कोए।
जो सुख में सुमिरन करे,
तो दु:ख काहे को होए।।

जब दु:ख परेशानी आती है, मुश्किल आती है तब हर कोई मालिक का नाम लेता है। अगर सुख शान्ति में मालिक को याद करो तो दु:ख आपको नहीं आएगा, चाहे आज़मा कर देखिए। आएगा तो पहाड् से कंकर में बदल जाएगा, सूली का सूल हो जाएगा, ये लाखों लोगों ने आज़माया है। भाई! बात आजमाने की, करने की है। जब तक आप मेहनत नहीं करते, अभ्यास नहीं करते, प्रैक्टीकली खुद नहीं करते तब तक मालिक की दया-मेहर, रहमत नहीं होती।

आगे आया है:-
मायक पदार्थों लिए, फिरता है भागता।
सच्चा नाम का है धन जो, कमाता है कोई-कोई।।

दीन-ईमान, मजहब, धर्म रिश्ते नाते सब आज के युग में दौलत बन गई है। अधिकतर लोग संसार में क्यों दौड़ रहे हैंै? झूठ बोल रहे हैं, गलत बोल रहे हैं, फिजूल की बातें करते हैं, क्यों? किसलिए? केवल माया के ही कारण है। पैसे के लिए ठग्गी, बेईमानी ने जन्म लिया है, रिश्वखोरी, भ्रष्टाचार ये सब माया का ही है। आज दीन-ईमान, मजहब, धर्म केवल पैसा रह गया है। अगर कोई धर्म को मानता है तो यदि वो सच्चा हिन्दू, सच्चा मुसलमान, सच्चा सिक्ख, सच्चा ईसाई है तो वो ठग्गी, बेईमानी नहीं कर सकता, रिश्वत नहीं ले सकता पर ऐसे कितने लोग होंगे आप नजर मारें बहुत कम लोग होंगे।

बाकी कौन है, उनका धर्म कौन सा है? बुरा मत मानना, उनका धर्म, दीन ईमान माया है। सोते पैसा, जागते पैसा, चलते पैसा, खाते पैसा। कैसे आएगा, आज ऐसे ठग्गी मारी कल को कौन सा तरीका निकालें, कैसे जेब काटें कि सामने वाले को पता ही न चले, ये तरीके चलते रहते हैं।

भाई! इस घोर कलयुग में माया के यार अधिक हैं, अल्लाह-राम का तो कोई-कोई है। मालिक से मालिक को मांगने वाला कोई है। मालिक से मालिक को मांगें तो कोई कमी न रहे।

एक बार एक राजा था, उसने नुमाइश लगा दी। अपने किले के मैदान में सारा सामान रख दिया। चावल, आटे से लेकर हीरे-जवाहरात सब कुछ रख दिया और ये घोषणा करवा दी कि जो भी जनता आए और इस मैदान में जो कुछ भी रखा है आप कुछ भी ले जा सकते हैं। राजा खुद भी मैदान में बैठ गया। कोई आया चारपाई ले गया, कोई आटा ले गया, कोई पैसे, सिक्के ले गया, कोई सोना, कोई हीरे-जवाहरात, कोई घोड़े हाथी ले गया। ऐसे धीरे-धीरे करके ले जाने लगे। इतने में एक आदमी आया और राजा से पूछने लगा कि हे राजन्! यहां मैदान में जो कुछ भी है, क्या हम ले सकते हैं? राजा कहने लगा हां, आप कुछ भी ले सकते हैं। उस आदमी ने राजा की बाजू पकड़ ली। राजा कहने लगा, ये क्या करता है! कहता, मैंने तो आपको ही लेना है। वचनों में फंस गया क्योंकि मैदान में राजा खुद भी बैठा था।

 राजा कहने लगा, ठीक है मैं तेरा हुआ। कहता, अगर आप मेरे हो गए तो ये लूट क्यों मचा रखी है? जब आप मेरे हैं तो साजो-सामान तो अपने-आप मेरा हो गया।
कहने का मतलब अगर अल्लाह, वाहेगुरु, राम, सुप्रीम पॉवर को उसी से मांग लें तो क्या बाकी साजो-सामान पीछे रह जाएगा। सवाल पैदा ही नहीं होता। उसको पाने के बाद कोई दुनियावी इच्छा, परेशानी उसको सता नहीं सकती, गमगीन नहीं कर सकती क्योंकि उसकी दया-मेहर, उसके दर्श-दीदार में ऐसी लज्जत, ऐसी खुशी है कि इन्सान का चेहरा नूर से माला-माल रहता है। वो राम, अल्लाह, वाहेगुरु, गॉड, खुदा तक जाने के लिए मेहनत करनी जरूरी है।

वहां तक पहुंचना जरूरी है। तो भाई! वहां तक पहुंचने के लिए एक बार आपको मेहनत करनी होगी, अभ्यास करना होगा। जब आप वहां पहुंचेंगे फिर आपका ध्यान जल्दी लगने लगेगा। मान लो, पहले कई महीनों में जाकर टिका, फिर कुछ दिनों में, फिर घण्टों में, फिर मिनटों में और लगातार अभ्यास करते हुए सैकिण्डों में ध्यान जमना शुरू हो जाता है। ये अभ्यास की बात है। राम, अल्लाह, वाहेगुरु, गॉड है, लेकिन वो किस तरीके से मिलता है और लोगों ने क्या-क्या तरीके बना रखे हैं? बनाने वाले तरीके गलत हैं। कोई पैसे से चाहता है, कोई तरह-तरह के कपड़े पहन कर कोई कुछ करके, कोई कुछ करके ऐसा करने, से मालिक नहीं मिलता। उसको पाने के लिए अभ्यास, लगन की जरूरत है, तड़प की जरूरत है। उसके लिए तड़प बनाओगे, अभ्यास करोगे तो मालिक की दया-मेहर के काबिल बनोगे।

इस बारे में लिखा है:-

केवल नाम का धन ही निश्चल है और धन सब नाशवान हैं। इस धन को न आग जला सकती है, न ही पानी बहा सकता है और न ही चोर उचक्का चुरा सकता है।
एको निहचल नाम धन होरु धनु आवै जाइ।।
इसु धन कउ तसकर जोहि न सकई
ना ओचका लै जाइ।।

राम-नाम, अल्लाह की इबादत, गॉडस परेयर, वाहेगुरु की याद का जो धन है उसे पानी डुबो नहीं सकता, चोर-उचक्का चुरा नहीं सकता, हवा उड़ा नहीं सकती और चिता की अग्नि उसे जला नहीं सकती या धरती में दफनाने के बाद भी वो गलता सड़ता नहीं है। वो आत्मा, रूह के साथ रहता है और आप नाम का अभ्यास करके देखिए। आपका धर्म नहीं छुड़ाते, पैसा नहीं लेना, कोई आपसे कुछ भी नहीं लेना। आपको वो तरीका बताएंगे जो करके देखा है, आप करके देखिए।

हाथ कंगन को आरसी क्या।
पढ़े लिखे को फारसी क्या।

अपको वो तरीका बताना है, आप को लूटना नहीं। केवल वो तरीका जान कर देखिए, अभ्यास करके देखिए परिणाम जरूर पॉजिटीव आएगा अगर आप तड़प, लगन बनाएंगे और उस शब्द से तड़प, लगन जरूर बनती है। तो भाई! मालिक के नाम, मालिक की चर्चा के बारे में और बताएंगे, पहले थोड़ा भजन रह रहा है।
6. यह जहान कूड़ा, इसके सामान झूठे हैं।

सच्चा नाम का वणज,
करता है कोई-कोई। मानस…
7. जोड़ जोड़ कारूं तरह,
माया के ढेर लगाए।
करता खजाना इकट्ठा,
आगे का कोई-कोई। मानस…
8. रिश्तेदार संबंधी मीत, जग में बनाए।
साथी अगले जहान का,
बनाता है कोई-कोई। मानस…
9. देवें नाम गुरु, और बनाएं झट चेले।
अंत साथ जाने वाला,
होता है कोई कोेई। फाही जन्म…
10. ‘शाह सतनाम जी’ ने भी गुरु बहुत देखे हैं।
पर मिलता ‘शाह मस्ताने’ जैसा ,
गुरु है कोई-कोई। फाही जन्म…
भजन में आया जी:-
यह जहान कूड़ा, इसके सामान झूठे हैं।
सच्चा नाम का वणज करता है कोई कोई।

सभी रूहानी सूफी सन्तों का यह मत है कि जो कुछ नजर आता है सब तबाहकारी है। इसको देखते-देखते या तो एक दिन ये आंखें खत्म हो जाएंगी या फिर आपके देखते-देखते इनमें परिवर्तन आता जाएगा, बदलाव आता जाएगा और ये खत्म हो जाएंगी। यहां पर कुछ भी ऐसा नहीं है जो आत्मा के साथ जाए। ये इंसान जानता है कि आपके बुजुर्ग, बाप-दादा, परदादा जो अब इस दुनिया में नहीं है, उन्होंने भी जमीन-जायदाद कोठियां-बंगले, पैसा, बाल-बच्चे, औलाद सब कुछ बनाया। जब वो इस संसार से गए तो जो कुछ उन्होंने बनाया था क्या उसमें से एक नया पैसा उनके साथ गया? आप उनके बेटे-बेटियां हैं क्या आप में से कोई बेटा या बेटी उनके साथ गया कि पिताजी अकेले जा रहे हैं, चलो, अपने भी साथ चलते हैं।

नहीं! कोई नहीं गया और उनका वो जिस्म, शरीर जो सबसे अधिक उनका अपना था क्या वो उसको अपने साथ ले जा सके? नहीं, बल्कि उनके अपनों ने, यानि आप में से ही किसी ने, उनके बड़े बेटे ने चिता पर रख काम तमाम कर दिया या धरती में दफना दिया। ये रीति है। ये आपने सुना होगा, बहुत भाई बुजुर्ग, माता-बहिनों ने देखा होगा कि ऐसा होता है। तो आप क्या सोचते हैं आपके साथ ऐसा नहीं होगा? आप जो बना रहे हैं, जो इकट्ठा कर रहें हैं क्या वो साथ ले जा पाएंगे? क्या सन्तों का ये मत है कि कुछ इकट्ठा नहीं करना चाहिए? नहीं, संत, पीर-फकीर कहते हैं इकट्ठा करो।

फकीरों का ये वचन है कर्म करो, बनाओ लेकिन किसी का दिल दु:खा कर नहीं। किसी को तड़पा कर नहीं बल्कि मेहनत से बनाओ। जाएगा तो वो भी साथ नहीं पर उन अच्छे कर्माें की वजह से आपके अन्दर अच्छे विचार आएंगे, वो विचार जरूर आपको एक दिन मालिक से जोड़ देंगे, जो परमानन्द की प्राप्ति का साधन है।

तो भाई! कमाओ जरूर लेकिन सही तरीके से कमाओ। बाकी यहां का सब कुछ झूठ है। हर चीज में परिवर्तन है। क्या सूर्य, नक्षत्र, ग्रह, धरती जो भी कुछ नजर आता है सभी में परिवर्तन निश्चित है, उनमें कुछ भी स्थायी नजर नहीं आता। जैसे सूक्ष्म लोक है उसमें भी परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन नहीं होता तो उस ओ३म, हरि, अल्लाह, मालिक में परिवर्तन नहीं आता। उस तक जाने के लिए सच्चे काम करें, अच्छा वणज-व्यापार करें। आजकल झूठ के वणज व्यापार हो गए हैं। अधिकतर लोग सब झूठ ही बोलते हैं। बड़े-बड़े महानगरों में हमने देखा कि सन्तों, पीर-फकीरों की, धर्मों के महापुरुषों की फोटो, बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगी होती हैं और वो लोग उनकी तरफ हाथ करके सौगंध खाते हैं कि हमें फलां संत, फलां महापुरुष की सौगंध लगे अगर हम आपसे ठग्गी मारें और बाद में ये देखा गया कि पांच-दस हजार का सामान पांच-चार सौ का भी नहीं होता। इतनी बड़ी-बड़ी ठग्गियां मारते हैं। सन्तों ने सच ही कहा है कि ‘इसु कलजुग माहि करम धरमु न कोई।।’

इस कलयुग में धर्मांे के अनुसार कर्म करने वाला कोई ही होगा। अधिकतर अपने मन इच्छा के अनुसार मान-बड़ाई के लिए, अपनी वाह-वाह के लिए कर्म करते रहते हैं, भ्रमते रहते हैं। अलग- अलग उन्होंने स्तर बनाया हुआ है। माया के लिए सब दौड़ रहे हैं, भाग रहे हैं।

सच्चा राम नाम का वणज-व्यापार कोई-कोई ही कर पता है। भाई! राम-नाम के वणज व्यापार के लिए अल्लाह-राम, मालिक की भक्ति करने के लिए कोई जंगलों, पहाड़ों, उजाड़ों में जाने की जरूरत नहीं है। घर परिवार में रहते हुए विचारों से अगर आप उसका सुमिरन करते हैं, अभ्यास करते हैं तो घर-गृहस्थ में रहता हुआ इंसान मालिक की दया-मेहर, रहमत के काबिल बन सकता है।

जोड़ जोड़ कारूं तरह, माया के ढेर लगाए।
करता खजाना इकट्ठा, आगे का कोई कोई।

यहां माया, दौलत के ढेर लगा देते हैं लेकिन आगे आत्मा जब शरीर छोड़ेगी वहां जो काम आने वाला है ऐसा धन कोई कोई प्राणी ही इकट्ठा करता है। वो धन है राम-नाम का धन। इस बारे में सन्तों की वाणी में लिखा है:-
जीव इस दुनिया में तन मन से लगा हुआ है। जहां इसने जाकर रहना है उसकी कोई चिंता दिल में नहीं रखता।

जो घरु छडि गवावणा सो लगा मन माहि।
जिथै जाइ तुधु वरतणा तिसकी चिंता नाहि।।

इसलिए यह जरूरी है कि इंसान चलाना करने से पहले-पहले ही इस दुनिया से परे का कुछ सामान इकट्ठा कर ले।
जैसे कोई बाहर के देशों में जाता है। पहली बार जा रहा है तो वो अपने किसी दोस्त को ढूंढेगा, गांव वाले, शहर वाले को या फिर अपने देश वाले को ढूंढेगा। कोशिश करता है कि वो आकर उसको गाइड करे। फिर पासपोर्ट, वीजा वगैरह बनता है, इधर वाला पैसा उधर कैसे चलेगा, कितने फिक्र करता है। ये सफर जो जनसंख्या के अनुसार बहुत कम लोग करते हैं। पर एक ऐसा सफर है जो हर किसी ने करना है।

राजा है, अमीर है, गरीब है, प्रजा है, कोई फकीर है, कोई भी है, हर किसी ने वो सफर करना है और वो सफर मौत के बाद का सफर है। वहां कौन सा गाईड है, कौन-सी दौलत काम आती है, यहां कौन सा धन है हमारे पास जिसे बदल लें ताकि यहां-वहां दोनों जहान में वो धन काम आ सके। यहां इंसान के पास है स्वासों रूपी कीमती धन और इन स्वासों से राम-नाम का धन इकट्ठा करें, तो वो धन दोनों जहान में, यहां भी गम, चिंता परेशानियों में और आगे भी आत्मा के साथ जरूर जाएगा, काम आएगा। भाई! मालिक का नाम ही एक सच्चा धन है पर इंसान उसे इकट्ठा कोई कोई ही करता है, सभी लोग मायक पदार्थाें में खोए हुए हैं।

रिश्तेदार संबंधी मीत, जग में बनाए।
साथी अगले जहान का, बनाता है कोई-कोई।

रिश्तेदार, दोस्ती, मित्रता ये संसार में बनते रहते हैं और इनका आधार भी स्वार्थ है। जितने भी रिश्ते-नाते संसार के हैं सभी गर्ज पर टिके हुए हैं। आप किसी को खिलाते हो आपके पास खाने-खिलाने का साधन है, अच्छा रुतबा है तो आपके यार-दोस्त संैकड़ों बन जाएंगे। जैसे ही आप पर भीड़ बनी, कोई परेशानी आ गई, मुश्किल आ गई कल तक जो आपको अपना कहते थे कि हम आपके लिए सब कुछ कुर्बान करने को तैयार हैं वो मुंह तक नहीं दिखाते। ऐसा गर्जी, स्वार्थी युग है। कोई कोई होता है जो वास्तव में सच्चा प्रेम-प्यार करता है वरन् गर्ज के संगी-साथी हैं। बेगर्ज जो आपका साथ है, हमेशा आप पर खुशियां बरसाता रहे ऐसा अगर कोई साथी है तो दोनों जहान का मालिक, वो अल्लाह, राम, वाहेगुरु, गॉड है। उसको अपना बनाने के लिए, जैसा आपको बताया, उस रास्ते पर चलना होगा, उस मंजिल को तय करना होगा ताकि आप उस मालिक, परम पिता परमात्मा तक पहुंच पाएं।

देवें नाम गुरु, और बनाएं झट चेले।
अन्त साथ जाने वाला, होता है कोई-कोई।

इस पंक्ति से ये बात सामने आती है कि आज संसार में संत, पीर-फकीर, गुरुओं की बाढ़ आई हुई है। जैसे बाढ़ का पानी आता है ऐसे ही संत, पीर-फकीर गुरु बनते जा रहे हैं क्योंकि गुरु बनने के लिए कोई डिग्री डिप्लोमा नहीं करना। थोड़ा बोलना आ जाए, पढ़ना आ जाए और थोड़ा डराना भी आता हो तो काम अपने आप हो जाता है। दिन-ब-दिन संत, पीर-फकीर बढ़ते जा रहे हैं और मानने वाले कम होते जा रहे हैं।

‘शाह सतनाम जी’, ने भी गुरु बहुत देखे हैं।
पर मिलता ‘शाह’ मस्ताने जैसा,
गुरु है कोई-कोई।

‘गु’ और ‘रू’ शब्द का अर्थ क्या है? ‘गु’ का मतलब ‘अन्धकार’ है और ‘रू’ का मतलब ‘प्रकाश’ है। ‘गुरु’ से मतलब है जो अज्ञानता रूपी अंधकार में ज्ञान रूपी दीपक जला दे वो ही सच्चा गुरु है। जो रीत बताए और कुरीतियों से पीछा छुड़ाए। सच्ची बात बताए और बदले में सभी के सामने या चुपके-चुपके किसी से कोई नया पैसा भी न ले बल्कि कर्म करके खाए वो ही सच्चा गुरु है। पर ऐसा हमने संसार में बहुत घूम कर देखा, कहीं भी नहीं मिला सिवाए यहां सच्चे सौदे में शाह मस्ताना जी महाराज, शाह सतनाम सिंह जी महाराज जैसा। पूरा ठोक बजा कर देखा, आजमा कर देखा। कोई पैसा, कोई चढ़ावा नहीं बल्कि खुद मेहनत की जाती है।

अगर कोई साध-संगत आकर यहां सेवा करती है तो उनके, यह देखा गया कि समैक, चरस जैसा नशा जिसके लिए दो महीने दाखिल रहना पड़ता है। यहां ऐसे ऐडरस उदाहरण हैं जो राम-नाम और मानवता की सेवा में लग कर सात दिन में वो नशा छोड़ कर चले गए। बात विश्वास की है। राम-नाम पर विश्वास रखा और मानवता की सेवा में समय लगाया। तो भाई! इस तरह से ये देखा गया कि जो पाखण्ड न करे, किसी को लूटे ना, राम-नाम की चर्चा करे और सभी का भला मांगे वो ही सच्चा गुरु है। जिससे मालिक मिले गुरु वह तरीका बताता है। मालिक पैसे से नहीं, चढ़ावे से नहीं, बाहरी दिखावे से नहीं मिलता। मालिक मिलने का तरीका हमारे धर्माेें में लिखा है। हिन्दू धर्म में लिखा है:-

कलयुग में केवल नाम आधारा।
सुमिर-सुमिर नर उतरो पारा।।

इस कलयुग में आत्मा का उद्धार या आधार कोई है तो वो मालिक प्रभु के नाम से है। न पैसा दो, न चढ़ावा। हे प्राणी! ख्यालों से अभ्यास करो, जाप करो तेरा पार उतारा हो जाएगा।

सिक्ख धर्म में भी यही आता है:-

अब कलू आइओं रे।।
इकु नामु बोवहु बोवहु।।
अन रूति नाही नाही।।
मतु भरमि भूलहु भूलहु।।

अर्थ वो ही हैं। और इस्लाम धर्म में भी आता है कि हे अल्लाह के रहमो करम के चाहवान बन्दे! अगर उस रहमो-करम का हकदार बनना चाहता है तो सच्चे दिल से उसकी इबादत कलमा अदा कर। रहमो-करम का हकदार जरूर बनेगा।

तुलसी जी ने लिखा है:-
है घट में सूझे नहीं, लाहनत ऐसी जिन्द।
तुलसी इस संसार को, भया मोतिया बिंद।।

वो कण-कण में और हमारे शरीर में है लेकिन फिर भी नजर नहीं आता। लाहनत है ऐसी जिंद पर। ये मोतिया बिंद की दवा भी एक है और कोई आॅप्रेशन नहीं है और वो दवा है ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहेगुरु, खुदा, रब्ब के वो शब्द हैं जिसे नाम, गुरमंत्र, शब्द, वो तरीका है, जो अनमोल होते हुए भी फकीर जिसका कोई दाम नहीं लेते।

ईश्वर नाम अमोल है, बिन दाम बिकाए।
तुलसी ये आश्चर्ज है, ग्राहक कम ही आए।

ईश्वर का नाम अनमोल है वो बिना दाम के पीर-फकीर देते हैं पर हैरानीजनक बात होती है कि मालिक का नाम लेने वाला ग्राहक कम ही आता है।

इस बारे में लिखा है:-
गुरु शिष्यों से मैं बलिहारी,
जिन्होंने प्रीत निभाई है।
गुर शिष्यों से मैं बलिहारी,
जिन्होंने खुदी मिटाई है।
बलिहारी गुरु शिष्यों से मैं,
जो तन मन अर्पण करते हैं।
बलिहारी गुर शिष्यों से मैं,
जो भवजल तरते हैं।
भजन के आखिर में यही आया है:-
‘शाह सतनाम जी’ ने भी, गुरु बहुत देखे हैं।
पर मिलता ‘शाह मस्ताने’
जैसा, गुरु है कोई कोई।।

भाई! ऐसे मुरीद तो तन-मन-धन उस परमात्मा की याद में लगाते हैं। कई बार इसकी व्याख्या समझ नहीं आती। लोग इसका गलत अर्थ निकालते हैं, तो इसका अर्थ क्या है!
तन की सेवा से मतलब, आपका जो शरीर है वह बुरे कार्याें के लिए नहीं, इससे अच्छे काम करो। किसी जीव को, चाहे वो आदमी है या जीव-जन्तु है, उसको तड़पता देख कर उसके दु:ख-दर्द में शरीक हो जाओ और जितना हो सके उसको अपनी बातों से, अपने ख्यालों से उसके दु:ख-दर्द को दूर करने की कोशिश करो, ये इंसानियत है।

इसको सेवा में लगाना, परमार्थ में लगाना यानि दूसरों के भले के लिए नेक काम करना इसको तन की सेवा कहा गया। यही तन की सच्ची सेवा है।  मन की सेवा, मतलब मन तो अल्लाह, राम के नाम में बैठने नहीं देता फिर भी आप सत्संग में बैठे हैं, मालिक की याद में बैठे हैं। ज्यों त्यों चाहे कैसे भी बैठे हैं। कई तो प्रेम से बैठे हैं सुन रहे हैं, कोई कोई भाई ऐसा भी होता है कि फलां आदमी ने लाकर मुझे फंसा दिया। चलो! जैसे-तैसे बैठा हूं। अब क्या करूं! उठ के जाऊंगा तो अच्छा नहीं लगेगा। हालांकि यहां सच बोला जा रहा है पर सच कड़वा होता है, पसीने अधिक छूटते हैं, परेशानी अधिक आती है।

निकलने की सोचता है, बड़ी प्यास लगी है, गला सूख गया, बिल्कुल ही सूख गया आदि ये हो गया, वो हो गया, भागने की सोचता है पर फिर भी बैठा है, ये मन की सेवा है। न चाहते हुए भी आप उससे सेवा ले रहे हैं यानि अल्लाह, राम की बात उसे सुनवा रहे हैं, अच्छे काम करते हो, भले काम करते हो, नेक काम करते हो क्योंकि मन कभी नहीं चाहता किसी का भला करना, ये तो बुराई के ख्याल देता है। यही मन की सेवा है कि इसे अच्छाई, भलाई मालिक के नाम में लगाओ।

धन की सेवा से मतलब किसी को विद्या-दान देना, भूखे को खाना खिलाना, फटेहाल को कपड़ा पहना देना, लाचार को उसका सहारा बना देना और नशों व बुराइयों की दल-दल में फंसे हुए इंसान को नशों से या बुरे कर्माें से छुड़वा देना, धन की सेवा है। इस तरह से तन-मन-धन के गलत अर्थ निकालना मनमते लोगों का काम है। यही अर्थ उसका रूहानी संत आदिकाल से कहते आए हैं कि तन-मन-धन उस मालिक की याद में लगाइए। तन से अच्छे, नेक, भले कर्म करो, बुरे कर्म न करो, किसी को सताओ मत।

नेकी करो और मन मालिक की याद में लगाओ ताकि ये बुराई से रुक सके और धन अपनी औलाद के लिए कमाते हो उसमें भी लगाइए लेकिन कुछ हिस्सा परमार्थ, भले कार्याें में, प्रभु की प्रकृति की सेवा में अपने हाथों से लगाया गया धन सच्चा दान है। उसके बदले में आत्मिक-शान्ति जरूर मिलती है। तो भाई! ऐसे मुरीद जो तन-मन-धन उस मालिक, परमात्मा की याद में लगाते हैं, आत्मिक-शान्ति, दोनों जहानों की खुशियों और मालिक की रहमत से झोली भी वही इन्सान लबालब करता है।

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