roohaanee satsang dera sacha sauda - Sachi Shiksha

रूहानी सत्संग: पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी धाम, डेरा सच्चा सौदा सरसा
मीठी धुन हो रही, तू सुन भाई कन्न ला के…

मालिक की साजी नवाजी प्यारी साध-संगत जीओ! आप बहुत ही ऊंचे भागों वाले हैं जो सत्संग में चलकर आए हैं। उस वाहेगुरु, अल्लाह, राम, ईश्वर, गॉड, खुदा, रब्ब की दया-मेहर रहमत का कमाल है कि ऐसे घोर कलयुग में, काम-धन्धे के समय में आप लोग मन से लड़ कर और मनमते लोगों का सामना करते हुए सत्संग में अल्लाह, वाहेगुरु, राम-नाम की कथा-कहानी में पधारे हैं। मुर्शिदे-कामिल सतगुरु, परमात्मा की रंग-बिरंगी फुलवाड़ी नजर आ रही है। जो भी साध-संगत यहां आकर सजी है, पधारे हैं आप सबका यहां पधारने का तहेदिल से बहुत-बहुत स्वागत करते हैं, जी आया नूं, खुशामदीद कहते हैं, मोस्ट वैल्कम! आज जो आपकी सेवा में सत्संग होगा, जिस भजन पर सत्संग होगा, रूहानी मजलिस होगी, वो भजन है:-

मीठी धुन हो रही, तू सुन भाई कन्न ला के।।

धुन मालिक की आवाज को कहा है। उस ओ३म, गॉड, खुदा, रब्ब की धुन कण-कण में, जर्रे-जर्रे मे चल रही है। कोई जगह ऐसी नहीं है जहां मालिक की रोशनी न हो, उसकी आवाज न हो। हर जगह मालिक की धुन, वो मीठी आवाज चल रही है। उस धुन को संत, पीर, पैगम्बर, महापुरुषों ने अलग-अलग नाम दिया है। मालिक की पाक-पवित्र धुन, आवाज, रोशनी को कबीर साहिब ने ‘धुनात्मक-नाम’ कहा है।

हिन्दू धर्म में उसे प्रभु की नूरे-किरण, अमृत के झरने, अनहद-नाद कहा है। सिक्ख धर्म में गुरु साहिबानों ने पाक-पवित्र गुरुवाणी में आद शब्द, आजाप शब्द धुर की वाणी इत्यादि नामों से नवाजा है। इसी को मुसलमान सूफी फकीर बांगे इलाही, कलमा-ए-पाक कहते हैं। इंग्लिश रूहानी सेंट इसे ‘गॉडस वॉईस एण्ड लाईट’ के नाम से बुलाते हैं। इसके छोटे नाम भी हैं। धर्माें में पांच शब्द, धुनें, किरणें, बांग, कलमा, पंज बाणियां, लाईट, वॉईस आदि ये सब मालिक की उस रोशनी, उस आवाज के नाम हैं। ये रोशनी, आवाज सुनी जा सकती है, देखी जा सकती है पर लिख-बोल कर इसे कोई बता नहीं सकता।

यानि वो सुनने में आ सकती है, देखने में आ सकती है, पर लिखने, बोलने में नहीं आती। दुनिया का कोई ऐसा इंसान है जो सूरज जैसा दूसरा सूरज बना दे? चलो! सूरज को छोड़िए, उसकी धूप जैसा कोई रंग बना दे? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। कोई कलाकार, कोई दुनिया का इंसान सूरज जैसा सूरज नहीं बना सकता। वो बेमिसाल है। बात आती है कि ओ३म, हरि, अल्लाह, गॉड, खुदा, रब्ब, वाहेगुरु दोनों जहान का मालिक, दाता है।

उसने ऐसे लाखों सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह बनाए हैं। अगर एक इन्सान सूरज को नहीं बना सकता, सूरज की तुलना आप किसी से नहीं कर सकते तो उस ओ३म, हरि, अल्लह, राम की तुलना किससे करोगे? उसकी जो आवाज, रोशनी है वो कहने-सुनने से परे है। महापुरुषों ने इस बारे में जिक्र किया है, जैसे बीन बजती हो, झरनों का पानी गिरता है, मन्दिर में घण्टियां बजती हैं, शंख बजता है, नाद है, रबाब है और सब साजों को मिलाया जाए फिर भी इनसे अरबों-खरबों गुणा मालिक की मीठी धुन है। ये तो उनकी बहुत छोटी नकल मात्र है। उस रोशनी, उस आवाज का कैसे कोई वर्णन करे। क्योंकि वो आवाज तो ओ३म, हरि, अल्लाह, गॉड, खुदा, रब्ब की है।

रोशनी के बारे में जिक्र आया है। अब बात आती है रोशनी की। उस मालिक की रोशनी का वर्णन भी असम्भव बताया गया है। पर कुछ जिक्र सन्त-महापुरुषों ने किया है।
हिन्दू धर्म में आता है, जैसे आपकी चमड़ी में छोटे-छोटे रोम, छिद्र हैं, एक छिद्र की उस उतनी जगह में से उस ईश्वर के प्रकाश का, रोशनी का वर्णन किया जाए तो करोड़ों सूरजों से बढ़ कर उसमें रोशनी, प्रकाश है। सिक्ख गुरु साहिबानों की पाक-पवित्र गुरुवाणी में भी एक जगह आता है कि उस परमात्मा की, वाहेगुरु की रोशनी का वर्णन करें तो बाल जितनी जगह में अरबों सूरजों से बढ़ कर रोशनी है।

मुसलमान फकीर फरमाते हैं, जैसे बारीक सूई हो और सूई का नक्का यानि जहां धागा डालते हैं, वो छिद्र, उस बारीक नक्के से अल्लाह के नूरे जलाल का वर्णन करें तो करोड़ों सूरजों से बढ़ कर नूरे-जलाल है, सारे में कितना है, ये कहीं भी कोई चर्चा नहीं मिलती क्योंकि उस ओ३म, हरि, अल्लाह, गॉड, खुदा, रब्ब, वाहेगुरु के स्वरूप का वर्णन कोई कर नहीं पाया, कर नहीं सकता और न ही कर पाएगा।

कबीर साहिब ने लिखा है कि अगर सारी धरती का कागज बना लूं और सारे पर्वतों को पीस कर समुद्र में डाल कर स्याही बना लूं, सारे पेड़-पौधों वनस्पति की कलमें बना लूं और वायु को कह दूं कि इन सब वस्तुओं का इस्तेमाल करके तू ओ३म, हरि, अल्लाह, गॉड, खुदा, रब्ब, वाहेगुरु, राम के नाम का वर्णन कर दें, तो हे मालिक! धरती का कागज कम पड़ जाएगा, समुद्रों की स्याही खत्म हो जाएगी पर तेरे स्वरूप का, तेरे नाम का वर्णन असम्भव है।

रूहानी पीर, फकीर झूठ नहीं बोलते। इंसान पैसे के लिए, अपनी इज्जत-शोहरत बढ़ाने के लिए, अपना रुतबा हासिल करने के लिए, अपनी वाह-वाह करवाने के लिए झूठ बोलता है। पर रूहानी संत, पीर-फकीरों को तो इन बातों से कुछ लेना-देना नहीं है। न कोई पैसे का चक्कर, न अपनी वाह-वाह करवाना, सवाल पैदा ही नहीं होता वो ये कहें कि हम सब कुछ हैं। वो तो उस मालिक की रजा में रहते हैं। फिर वो झूठ क्यों लिखेंगे? किसलिए? वो झूठ नहीं लिखा करते। उनकी वाणी में सच होता है। कबीर साहिब जी ने जो देखा, महापुरुषों ने बताया कि उस मालिक के स्वरूप का वर्णन असम्भव है। वो निराकार है। आकार में ढाला नहीं जा सकता, आकार में उसे बताया नहीं जा सकता।

उस परम पिता परमात्मा का वर्णन नहीं हो सकता। उसकी रोशनी का, आवाज का वर्णन भी असम्भव है। कोई ऐसी रोशनी नहीं जिसकी तुलना करके कहा जाए कि उस परमात्मा, अल्लाह, राम की रोशनी इस तरह की है। दुनिया में ऐसी कोई आवाज नहीं जिसकी तुतना करके कहा जाए कि भगवान, ईश्वर, अल्लाह, राम की आवाज ऐसी है। वो एक ऐसी मीठी सुरीली धुन है, ऐसी मीठी आवाज है जो गम, दु:ख, दर्द, परेशानियों को मिटा डालती है। हिन्दू धर्म में रूहानी संत-फकीर इस बारे में लिखते हैं:-

धुन आ रही गगन से तुझको बुलाने के लिए।
दु:ख दर्द मिटाने के लिए।।
उल्टा कुआं गगन में तिस में जलै चिराग।।

ये हिन्दू फकीरों की वाणी है। गगन से धुन आ रही है। गगन उस आसमान को नहीं इंसान के शरीर को, ऊपरी हिस्से की जगह को गगन बताया है कि यहां से वो धुन, आवाज आ रही है। उल्टे कूएं की तरह जगह है जहां वो चिराग, वो आवाज चल रही है।

हे जीवात्मा, हे रूह! वो धुन तुझे बुलाने के लिए आ रही है। धुन तुझे गम, दु:ख, दर्द मिटाने के लिए क्यों बुलाती है, ताकि तेरे दु:ख-दर्द दूर हो जाएं। बिना वजह की टैंशन, परेशानी, चिंताए दूर हों और उनसे निकलने का अंदर से हल मिल जाए। इसलिए वो आवाज आ रही है।

सिक्ख गुरु साहिबानों ने भी यही फरमाया है:-
धुर की बाणी आई।। तिनि सगली चिंत मिटाई।।
उस वाहेगुरु, राम से आने वाली आवाज जिसको सुनते ही आपके सारे गम, दु:ख-दर्द, परेशानियों दूर हो जाएंगी, आप उस आवाज को सुनें।
मुसलमान सूफी फकीर भी लिखते हैं:-

‘बांग-ए-इलाही’। बात वही है, यानि अल्लाह की आवाज। जब वो सुनते हैं, वो आप तक पहुंचती है और सुन लेते हैँ तो आपके गम खत्म हो जाते हैं और आप बेगम हो जाते हैं यानि आपके जेहन में जो बुरे विचार होते हैं, बुरी सोच होती है वो जड़ से खत्म हो जाती है। भाई! मीठी सुरीली आवाज जो कण-कण, जर्रे-जर्रे में हो रही है पर उस तक जाने के लिए इंसान को मेहनत करनी पड़ेगी। आवाज आपके अंदर है, धुन आपके अंदर है, सुनने के लिए अंदर चढ़ाई करनी होगी, रिसर्च-खोज करनी होगी। और वो खोज पैसे से नहीं होती।

तो भाई! वो कण-कण, जर्रे-जर्रे में है उसकी मीठी धुन, आवाज चल रही है। तू उसे सुन जो तेरे गम, दु:ख-दर्द को दूर कर देगी और परमानन्द से तुझे मिलवा देगी, यही भजन में आया है:-
मीठी धुन हो रही, तूं सुन भाई कन्न ला के।
इस बारे में लिखा है:-

काया के अन्दर बड़ी सुरीली और मनमोहनी धुन है जिसको सुनकर सुरत आत्मिक मण्डलों की तरफ खींची जाती है। जिस तरह लोहे की सूई मिकनातीस की तरफ खींची जाती है। क्यों जो हमारी सुरत, नाम और मालिक एक ही जौहर के नाम हैं। नाम की कशिश से रूह इस शरीर रूपी कब्र को छोड़कर बाहर आ जाती है। मौलाना रूम साहिब कहते हैं, यदि उन रागों का तुझे थोड़ा सा भी हाल बताऊं तो कब्रों से रूहें उठ खड़ी हों।

वो ऐसी मीठी धुन है जिसकी मिठास का कोई अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। तो यही राम-नाम की चर्चा आपकी सेवा में चलेगी कि ओ३म, हरि, अल्लाह, खुदा, रब्ब के बारे में रीत क्या है और कुरीतियां कौन सी हैं। हम प्रत्येक धर्म को मानते हैं, धर्माें में गलत नहीं है। इन्सान के दिमाग में गलत हो गया है। उसने भगवान को भी खिलौने की तरह मान लिया। ‘लोगन रामु खिलउना जानां।’ लोगों ने मालिक को खिलौना समझ रखा है। अपने-अपने तरीके बना रखे हैं, अपने-अपने तरीकों से पाना चाहते हैं। ये कुरीतियां हैं। रीत क्या है यही आपकी सेवा में चर्चा करेंगे। साथ-साथ भजन चलता जाएगा और साथ-साथ जैसा विचार आएगा, आप की सेवा में अर्ज करते चलेंगे। हां जी, चहिए भाई

टेक:- मीठी धुन हो रही, तू सुन भाई,
कन्न ला के।।
1. मीठी धुन को भूल के सुरता,
बाहरमुखी हो बैठी।
मात गर्भ से बाहर आते,
धुन दौलत खो बैठी। मीठी धुन…

2. मात लोक की हवा लगते,
दु:ख-चिंता में हो गई।
घर-काम भूल के अपना देखो,
नींद विषयों में सो गई। मीठी धुन…

3. इन्द्रियों के साथ है मिल के,
उन जैसी है होई।
भेडों-बकरियों में चरती,
हस्ती अपनी खोई। मीठी धुन…

4. मांस-शराब के बिना पदार्थ,
और कोई न भाए।
रसों-कसों में फंस के इसको,
नाम का रस ना भाए। मीठी धुन…

5. या फिर माया इकट्ठी करता
और काम न सूझे।
श्वासा पूंजी घटती जाती,
जिन्दगी दीवा बूझे। मीठी धुन…

भजन के शुरू में आया है :-

मीठी घुन को भूल के सुरता,
बाहरमुखी हो बैठी।
मात गर्भ से बाहर आते,
धुन-दौलत खो बैठी।

उस मालिक की धुन जबरदस्त मीठी है। रूहानी संत, पीर-फकीरों का मानना है कि जब माता के गर्भ में सबसे पहले रूह आती है तो चारों तरफ एक नरक की तरह वातावरण होता है, जठर अग्नि होती है, गन्दा खून होता है और वो जीवात्मा जो ओ३म, हरि, अल्लाह, राम की अंश, है, जैसे ही वहां पहुंचती है तो तड़प उठती है, बेचैन हो जाती है। तड़पती है, रोती है, चिल्लाती है और अपने परम पिता परमात्मा को याद करती है, उसके लिए तड़पती हुई परमात्मा से लिव लग जाती है, उससे ध्यान जुड़ जाता है। शरीर की वहां रचना होती है लेकिन जैसे ही बच्चा गर्भ से बाहर आता है तो अधिकतर देखने में आता है कि वो रोता है।

रूहानी पीर-फकीरों का मानना है कि आत्मा भी एक तरह से रोती है जैसे ही उसे मातलोक, माया की हवा लगती, है वो ईश्वर, अल्लाह, राम से जुड़ी हुई धुन टूट जाती है और एक पल के लिए लगा कि सब कुछ खो गया लेकिन फिर ऐसा माया का प्रभाव पड़ता है, ऐसे लगता है कि सब कुछ मिल गया। अब वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं, लेकिन रूहानी सन्तों ने हजारों साल पहले, महाभारत से भी पहले की बातें हैं, ये लिखा था कि एक माता जिसके गर्भ में उसका बच्चा (वो लड़का है या लड़की) है, वो माता जैसे वातावरण में रहती है धार्मिक भावना में, लड़ाई-झगड़े में, कलह-कलेश में, घुटन में या खुशी में, उसका असर बच्चे पर जरूर पड़ता है।

कहते हैं कि अभिमन्यु ने चक्रव्यूह के बारे में अन्दर ही सुन लिया था। वैज्ञानिक अब मानने लगे हैं, पहले नहीं मानते थे। पहले कहते थे ये कैसे हो सकता है! अब कहते हैं कि हां, माता के गर्भ में शिशु होता है और बाहर के वातावरण का उस पर असर जरूर होता है। ये खोज सामने आ चुकी है। जबकि ये महाविज्ञान जो आपकी सेवा में अर्ज कर रहे हैं जिसे रूहानियत, सूफियत कहा जाता है, उन सन्तों ने हजारों साल पहले लिख दिया था कि माता के गर्भ में जो बच्चा होता है उस पर वातावरण का असर, माता जहां रहती है, जरूर होता है।

तो भाई! यहां उदाहरण देने का मतलब, रूहानी पीर-फकीर झूठ नहीं कहते पर उनकी बातें इतनी जबरदस्त हैं, इतनी आगे की होती हैं कि दिमाग जल्दी से समझ ही नहीं पाता। जैसे सूरज की बातें ले लो, सन्तों ने लिखा चन्द्र, सूरज, नक्षत्र, ग्रह हजारों-लाखों हैं। वाणी में सन्तों ने लिखा है। एक सज्जन ने लिखा कि ऐसा नहीं हो सकता लेकिन फिर उसकी चिट्ठी आई कि गुरु जी, ऐसा हो सकता है क्योंकि अमेरिका ने सात नए खगोल ढूंढ लिए हैं। यह दो साल की बात हो गई है। (यह सत्संग वर्ष 2003 का है।) अब तो पता नहीं कितने और ढूंढ लिए होंगे! सात नए और सूरज मिल गए हैं, अगर सात हो सकते हैं तो लाख क्यों नहीं हो सकते? लेकिन रूहानी संतों ने तो हजारों साल पहले लिखा है कि ‘जो ब्रह्मण्डे सोई पिंडे जो खोजै सो पावै’। जो ब्रह्मण्ड के अन्दर है वो शरीर के अन्दर भी है लेकिन ‘जो खोजै सो पावै’।

झालन पाटन में भीलवाड़ा की तरफ हिन्दू राजपूत राजा थे जिनका नाम महाराज पीपा था। राजस्थान में उन्हें भक्त पीपा जी कहते हैं और सिक्ख गुरुसाहिबानों की पवित्र वाणी में उनकी वाणी है, ‘जो ब्रह्मण्डे सोई पिंडे जो खोजै सौ पावै।’ बात खोज करने की, अभ्यास करने की है। वो ही सब कुछ देख सकता है। हमारे शरीर में सब कुछ है जो खण्ड-ब्रह्मण्ड में बाहर है। ऐसा मालिक ने गजब का यह शरीर बनाया है। ध्यान के द्वारा, विचार के द्वारा उसे देखा जा सकता है।

तो यही लिखा है कि मालिक से ध्यान टूट गया, धन-दौलत में लग गया, उसी में खो गया। कई कहते, हमें तो याद ही नहीं कि माता के गर्भ में लिव जुड़ी थी या नहीं। आप धार्मिक भावना रखते हैं, जब कोई कष्ट आता है, परेशानी आती है तब कैसे अनायास ही आपके मुंह से राम, अल्लाह, वाहेगुरु का नाम निकल आता है।

जबकि आप तो उसे मिले ही नहीं! सच्चाई यह है कि आपकी आत्मा उसे मिल चुकी है। जब आप तड़पते हैं, परेशान होते हैं तो आत्मा को बहुत दु:ख आता है तो वो फिर यह सोचती है कि कोई सुप्रीम पॉवर मिले जो परेशानियों से बाहर निकाले तो अनायास ही मालिक का नाम जुबान पर आ जाता है। तो भाई! ये सच्चाई है।

मात लोक की हवा लगते,
दु:ख-चिंता में हो गई।
घर-काम भूल के अपना देखो,
नींद विषयों में सो गई।

जैसे ही दुनिया की हवा लगी दु:ख, चिन्ता, गम, परेशानियां सब इकट्ठी होती चली गर्इं और इसी में वो रूह खो गई, परेशान हो गई, बंधनों में जकड़ी गई क्योंकि मायक-पदार्थ देख कर रूह तड़प जाती है लेकिन मन की वजह से दबी रहती है। मन फिर इसे बाहर नहीं आने देता। ख्यालों से, विचारों से दुनियावी विचार चलते रहते हैं और राम-नाम का विचार कभी-कभी आता है। सारे दिन में अगर आधा घण्टा भी मालिक को बैठकर देना निश्चित कर लिया जाए। अगर लगन से, तड़प से मालिक को बुलाएंगे तो आधा घण्टा, पन्द्रह मिनट में लगता है जैसे कई घंटे बीत गए हों।

लोगों को लगता है जैसे कैद कर लिया हो! झट से आंख खोलता है कहीं गड़बड़ न हो जाए। किसी की चुगली करनी हो, किसी की निंदा करनी हो, किसी को बुरा कहना हो, टांग खींचनी हो सारा-सारा दिन चटकारे ले-लेकर बातें करता रहेगा, समय का पता नहीं चलता कैसे बीत गया! क्या ऐसा दुनिया में नहीं होता? ऐसा ही होता है, तभी तो कलयुग है, काल का युग है। काल का अर्थ नैगेटीव पॉवर, युग का मतलब समय है। ये बुराई का समय है, जहां अल्लाह, राम की चर्चा करना एक तरह से बहुत बड़ी फतह हासिल करना है। मन से, अपने विचारों से लड़ना पड़ेगा।

राम-नाम की बात सुनने को आओगे तो मन तरह-तरह के विचार देता है कि आज तो तेरा इतना काम खराब हो जाएगा! इतनी गैर-हाजिरी लग जाएगी! ये होगा, वो होगा। अगर शादी (साले की शादी) में जाना हो तो कोई बात नहीं, दो दिन की जगह सप्ताह लगा आएंगे क्योंकि ससुराल में जाना है। सब जीजा जी जो कहेंगे। फूल कर कुप्पा हो जाता है। सारा मान-बड़ाई का चक्कर है और झूठ-गुड़ के लेप की तरह है।

तो भाई । इसी का नाम कलियुग है यानि झूठ का बोलबाला है। सच्ची बात पर विश्वास करने वाले हैं तो, पर चन्द लोग। जनसंख्या के अनुसार बहुत कम लोग हैं। झूठी बात पल में सभी मान लेते हैं। जैसे कई बार आपको बात सुनाई, आज भी ख्याल में आ गई। एक इन्सान था। उसकी बैलगाड़ी थी। वो बालू रेत में फंस गई। वो गांव में चला गया। गांव में गप्प मारने वाले बैठे होते हैं। आप बुरा मत मानना भाई! हमने तो उनको देखा कि ताश खेल रहे होते हैं, गप्प मार रहे होते हैं। कोई भी वहां से गुजरता उसका अगला-पिछला सब पिरो के रख देते हैं। उनका यही काम होता है। वो वहां बैठे थे। उनके पास वो सज्जन गया। कहने लगा, मेरी बैल गाड़ी फंस गई है, आप मेरे साथ चलो, थोड़ा-सा धक्का लगा दो गाड़ी निकल जाएगी। कोई ज्यादा दूर नहीं है। वो लोग तो खाना खाने बड़ी मुश्किल से जाते हैं। एक अगर चला गया तो कहते, जल्दी आना क्योंकि चुगली करने में कहीं घाटा न पड़ जाए।

वो धक्का लगाने कैसे जाएं? कहने लगे, नहीं, हम तो काम-धन्धे में व्यस्त हैं। काम-धन्धा तो आपको बता ही दिया कि कौन सा होता है। उसने सोचा, ये ऐसे नहीं जाएंगे। सच पर तो गए नहीं, उसने झूठ का सहारा लिया। कहने लगा, नहीं जाना मत जाओ, मैं तो एक और बात दिखाना चाहता था। कहने लगे, क्या ? कहने लगा, मेरे खेत में चालीस-चालीस किलो की लौकी-कदूदू लगे हुए हैं। वे कहते, सच। वह कहता, अभी चलो दिखा देता हूं। सभी उठकर भाग लिए। दिखा, चालीस किलो की भी कभी लौकी, कद्दू होता है? कहां है? रास्ते में गाड़ी थी। कहने लगा, खेत थोड़ी दूर है जहां लौकी लगी हुई हैं। अब आप आ ही गए हो, थोड़ा धक्का लगा दो गाड़ी निकल जाएगी।

उन्होंने धक्का लगा दिया, गाड़ी निकल गई। वो चलने लगा। अब कद्दू-लौकी तो दिखा दे चालीस किलो की किधर है ? कहने लगा यही तो कद्दू हैं! आप को सच कहा था धक्का लगा दो, नहीं आए। झूठ कहा तो दौड़े चले आए, ये कलियुग है। यहां पर झूठ बोलो, बिना सिर-पैर की बात चटकारें ले-लेकर सुनते हैं और अल्लाह, राम की बात सुनाओ तो यूं चुभती है जैसे किसी ने सूई चुभो दी हो या जैसे मुंह में मिर्ची डाल दी हो। सच्ची बात कड़वी लगती है। इसलिए इन्सान तिलमिला जाते हैं। वो सोचते हैं कि सच को रोकें। सच अल्लाह, राम, वाहेगुरु का नाम न कभी रुका, न रुका है और न कभी रुकेगा। राम के नाम को कोई नहीं मिटा सका और न ही कोई उसे मिटा सकता है। ये सच्चाई है। तो भाई! इन्सान विषय-विकारों में खोया हुआ है, अल्लाह, राम की तरफ ध्यान नहीं देता।

इन्द्रियों के साथ है मिल के, उन जैसी है होई।
भेड़ों-बकरियों में चरती, हस्ती अपनी खोई।
इस बारे में लिखा है :-

एक बार एक शेरनी बच्चे को जन्म देकर खुद शिकार को चली गई। पीछे से भेड़ें चराने वाला एक आजड़ी आ गया। उसने वो बच्चा उठा लिया और भेड़ों का दूध पिला-पिलाकर पाल लिया। वो बच्चा अब भेड़ों में ही रहने लगा। अचानक एक दिन शेर उधर आ गया। उसने देखा कि शेर का बच्चा और भेड़ों के साथ घूम रहा है। बड़ा हैरान हुआ। वो शेर के बच्चे के पास गया और कहा कि तू तो शेर है, तू भेड़ों में किस तरह घूम रहा है! बच्चे ने कहा कि नहीं, मैं तो भेड़ हूं। शेर ने कहा, मेरे साथ समुद्र के पास चल। जब समुद्र के पास गए तो शेर ने कहा, देख, तेरी-मेरी शक्ल एक-जैसी ही है? बच्चे ने कहा हां, शक्ल तो एक-जैसी ही है। शेर ने कहा, मैं गर्जता हूं, तू भी गर्ज। जब शेर गर्जा तो बच्चा भी गर्जा। गर्ज सुनते ही भेड़ें भी भाग गई और आजड़ी भी भाग गया और बच्चा अपनी कौम में जा मिला।

जैसे शेर का बच्चा भेड़-बकरियों में मिल कर अपने-आपको बकरी समझने लगा, वैसे ही ये रूह, आत्मा है, परम पिता का अंश होते हुए भी मन की वजह, काल की वजह से, इन्द्रियां यानि भेड़-बकरियां जो इन्द्रियां हैं, उन में फंस कर उन जैसी हो गई। यहाँ की -लज्जत, भोग-विलास, स्वाद, पैसा, मिठास, यही सब श्रेष्ठ है और कुछ भी नहीं है। ‘इह जग मीठा अगला किसने देखा है।’ लेकिन जब पीर-फकीर आते हैं, वो शेर की तरह उसको देखते हैं कि ये रूह तो मालिक की अंश है! ये इन्द्रियों की गुलाम कैसे हो गई! मन की गुलाम हो गई है, तो वो इसे सत्संग में समझाते हैं अपनी शक्ल दिखाते हैं कि तू उस परम पिता परमात्मा की औलाद है।

हमने गर्जा, यानि हमने उस ईश्वर, अल्लाह, राम का नाम जप कर देखा है। वो दया-मेहर करता है और उसकी दया-मेहर में बेशुमार स्वाद, लज्जत, आनन्द है। उसके सामने दुनियावी स्वाद सब गंदगी नजर आते हैं। जब ये बात रूंह सुनती है, इन्सान सुनता है और वो मालिक का नाम लेता है कि मैं भी वो ही गर्ज दिखाऊंगा, मालिक का नाम जपूंगा, अभ्यास करूंगा। जैसे ही वो अमल करते हैं, मान लेते हैं और जैसे ही वो सुमिरन करते हैं भेड़-बकरियां भाग जाती हैं। काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, गन्दे विचार दौड़ते हैं। मन आजड़ी के तो फिर पांव नहीं टिकते, कहीं भाग जाता है, बदल जाता है और फिर वो आत्मा के साथ हो जाता है। हां! मुझे भी इसी मिठास की जरूरत थी! तो भाई! ये मालिक का नाम ही ऐसा है जो बुराइयों से इन्सान को बचा सकता है, अन्यथा इन्सान बुरी तरह से गन्दगी में, बुराइयों में खोया हुआ है।
मांस शराब के बिना पदार्थ,

और कोई न भाए।
रसों कसों में फंस के इसको,
नाम का रस ना भाए।।

उस मालिक की दया-मेहर, सतगुरु की रहमत से हमने 12-13 राज्यों में जाकर देखा और जो निचोड़ निकाला कि धर्मों का पहनावा पहनने वाले सभी हैं, नकाब पहन लेते हैं वैसा कपड़ा पहनना, दाड़ी-मूंछ वैसे रखना, धर्माें का एक बुत बन जाते हैं। लेकिन धर्मों के कर्म करने वाले कहीं-कहीं नजर आते हैं। शायद आप भी सोचते हों, ऐसा कैसे? हम तो धर्म को मानने वाले हैं, सभी धर्मों को मानते हैं। सीधी-सी बात जो बहुत ही कड़वी है, क्या किसी धर्म ने सिखाया है कि ठग्गी मारो! किसी धर्म ने कहा है बेईमानी करो! किसी धर्म ने कहा है कि रिश्वत लो! और क्या किसी धर्म ने कहा है कि भ्रष्टाचार से कमाओ! अगर कहा है तो हमें ग्रन्थ लाकर दिखाइए जो हिन्दू, सिक्ख, इस्लाम, ईसाई धर्म ने ऐसी शिक्षा दी हो! सवाल पैदा नहीं होता। हम गारन्टी देते हैं। इन सभी धर्मों ने कहा है,

जैसे हिन्दू धर्म कहता है:-

कड़ा परिश्रम करके खाओ, मेहनत की रोजी रोटी खाओ। दिमागी मेहनत, शारीरिक मेहनत से अच्छे काम करके कमाई करो।

मुसलमान फकीर कहते हैं :-

हक हलाल की रोजी-रोटी खाओ।

सिक्ख धर्म में लिखा है:-

दसां नहुंआ दी किरत कमाई करो।

इंग्लिश रूहानी सेंट कहते हैं :-

हार्ड वरक करके खाओ। धर्मों में तो ये लिखा है।

फिर आप अपने समाज में निगाह मारें जो ठग्गी, बेईमानी, बुराइयां करते हैं उनका धर्म कौन-सा है, क्या वो हिन्दू हैं? क्या वो मुसलमान हैं? क्या वो ईसाई हैं? बहुत कड़वी बात है ये क्योंकि आप निगाह मारेंगे तो आपको कोई कोई ही मिलेगा जो धर्म को मानने वाला है, बाकी तो धर्म का मखोटा ओढ़ के जेब काटने वाले मिलेंगे।

सच्चाई यही है, पर ऐसी कड़वी सच्चाई हजम नहीं होती, मुश्किल आ जाती है। क्या करें, धर्मो में तो लिखा ही ऐसा है कि यही फर्ज, कर्तव्य बनता है और यही लक्ष्य है लेकिन आज कौन परवाह करता है। फिर उनका धर्म, मजहब केवल रुपया-पैसा बनकर रह जाता है, तो ये धर्मों का नकाब है और यही सन्तों ने पहले ही लिख दिया था।

इसु कलिजुग महि करम धरमु न कोई।।
कली का जनमु चंडाल कै घरि होई।।

ऐसा समय आएगा जहां धर्मों का कर्म कोई नहीं होगा बल्कि धर्मों का रूप धारण करके लोग चण्डाल नजर आएंगे, रूप बाहर से धर्माें का होगा। बुरा मत मानिए! सन्तों के वो वचन आज सार्थक हो रहे हैं, सामने आ रहे हैं। आज बाहर से लोग जैंटलमैन नजर आते हैं पर काम वो ही करते हैं जो आपको बताया यानि बुरे कर्मांे में बुरी तरह से फंसे हुए हैं।

खाने-पीने में मांस-शराब, अण्डा, इसको सबसे बड़ा मानते हैं। धर्म भी कह रहे हैं:-

मांस मछुरिया खात है, सुरा पान के हेत।
ते नर जड़ से जाएंगे, ज्यों मूरी का खेत।।

जो मांस, अण्डा बुरे कर्म करते हैं, वो ऐसे चले जाएंगे जैसे गाजर-मूली को उखाड़ लें तो पीछे क्या रहता है, कुछ भी नहीं! पक्का नर्काें में अड्डा होगा। यकीन करो न करो। तो भाई! वो आत्मा, रूह उस मालिक की अंश है और उसके लिए खाना नापाक मत खाइए, बुरा ना खाइए। फिर कहते, शराब में क्या होता है, इसमें तो कुछ भी नहीं होता। कई देशी लोग कहते हैं कुछ भी नहीं, गुड़ होता है इत्यादि। फिर कहते, अंगूरों की बनती है, ये तो अंगूरों की बेटी होती है। इसमें क्या हर्ज है। हर्ज क्या है? हिन्दू धर्म के अनुसार आपको बताते हैं।

हिन्दू धर्म में लिखा है:-

‘शराब नर्कों में ले जाने के लिए मां की मां का काम करती है यानि नर्कों की नानी है।’

इस्लाम धर्म कहता है:-

शर+ आब ‘शर’ का मतलब उर्दू में शरारत या शैतान और ‘आब’ का मतलब पानी। खुदा की इबादत करने वालो! शराब शैतान का पानी है इसे पीना मत, दोजख में जलोगे।

सिक्ख धर्म में आता है:-

पोस्त भंग अफीम मद, नशा उतर जाए प्रभात।
नाम खुमारी नाानका, चढ़ी रहे दिन-रात।।

पोस्त, भांग, अफीम, शराब सभी बेकार हैं। शाम को पीया सुबह उतरा, सुबह पीया शाम को उतर जाता है। नर्क में ले जाने वाले नशे मत पीजिए। अरे पीना है तो राम, वाहेगुरु के नाम का प्याला पीओ जिसकी खुमारी कभी नहीं उतरती।
आगे आया है:-

या फिर माया इकट्ठी करता,
और काम न सूझे।
श्वासा पूंजी घटती जाती,
जिन्दगी दीवा बूझे।

जिन्दगी रूपी जो दीया है वो बुझता जा रहा है। एक तो खाने-पीने में मस्त है दूसरा आज का हर इंसान, सिवाए कोई मालिक के प्यारे के, माया का गुलाम है। आज पैसे के लिए रिश्ते-नाते टूटते जा रहे हैं। अगर आपका रुतबा है, आपके पास पैसा है, आप के यार-दोस्त, मित्र बहुत बन जाएंगे और जैसे वो रुतबा चला गया, वो पैसा चला गया कल तक जो कहते थे तेरे लिए जान हाजिर है, वो मुंह तक नहीं दिखाते। ऐसा स्वार्थी कलियुग है, कलियुगी जीव हैं। पैसा है तो राम-राम करना पसन्द करते हैं, पैसा नहीं तो कहते हैं राम-राम भी क्यों की है। बड़े-बड़े महानगरों में उनको अगर कोई सीधी नमस्ते कह दे तो आगे से नमस्ते नहीं कहते।

कहते, बोल, क्या चाहिए? मतलब कि इसने राम-राम कहा है तो मेरे से कुछ लेना होगा! राम-राम के बदले राम-राम नहीं कहते। तो भाई! ये अजीबो-गरीब कलियुग का समय है और लोग माया के गुलाम हैं। बच्चा अभी पैदा नहीं होता मां-बाप पहले उसे नोटों की मशीन बनाना शुरू कर देते हैं। अभी माता के गर्भ में होता है कि बड़ा होकर ये बनेगा, जज, कलैक्टर बनेगा, ये बनाऊंगा, वो बनाऊंगा। क्या कभी कोई ये सोचता है बड़ा होकर ये इन्सान बनेगा, कहीं शैतान न बन जाए. कभी ये भी सोचा है या नहीं !

हमारी पढ़ाई में भी जितना सिखाया जाता है वो भी केवल यही है कि आप नोट अधिक कैसे और किस तरह से कमा सकते हैं। इन्सानियत क्या है, हमने ग्रेजुएशन, डिग्री, डिप्लोमा, डॉक्ट्रेट हासिल किए बच्चों से पूछा कि आपको पता है इन्सानियत किसे कहते हैं? कहते, हमने तो पढ़ा नहीं है, क्या पता इन्सानियत किसे कहते हैं। सारे इन्सान हैं, इसका मतलब इन्सानियत है ! हमने कहा, वाह! आपके ज्ञान का क्या कहना!

इन्सानियत किसे कहते हैं ? इन्सानियत की परिमाषा को अगर थोड़े शब्दों में कहें तो वो ये है कि किसी के दु:ख-दर्द में शामिल होना, शरीक होना और उसके दु:ख-दर्द को दूर करने की कोशिश करना, इसी का नाम इन्सानियत, मानवता है। किसी को तड़पाना, किसी को सताना, इन्सानियत नहीं, ये तो राक्षसीपन, शैतानियत है।

तो भाई ! ये भी पढ़ाई में एक पाठ होना चाहिए कि इन्सान इन्सान बना रहे। चलो देवता नहीं बनता कोई बात नहीं, राक्षस तो न बने! पर ये बहुत बड़ी कमी है, इसीलिए समाज में इन्सानियत मरती जा रही है। इन्सान पैसे के लिए एक-दूसरे का दुश्मन बन जाता है और पल में उसे खत्म कर देता है तथा वो (कत्ल करने वाला) भी सारी उम्र भय के साए में जीता है, तड़पता रहता है, खुशी उसे भी नहीं मिलती। तो भाई! ये सब इन्सानियत मरने की वजह से हो रहा है। इन्सानियत जिन्दा है तो मालिक के प्यारों के अन्दर, जो प्रभु, अल्लाह, वाहेगुरु, खुदा, रब्ब से जुड़े हैं। उनके मां-बाप ने उन्हें अच्छे संस्कार दिए हैं, उनके अन्दर इन्सानियत है अन्यथा आज इन्सानियत मरती जा रही है।

हिंदू धर्म में आता है ‘हिम्मत अगर आप करोगे तो मदद भगवान आपकी जरूर करेंगे।’ इस्लाम धर्म में आता है ‘हिम्मते मर्दां मददे खुदा।’ अर्थ वो ही है कि आप हिम्मत करें, कर्म करें। लेकिन साथ में अगर ईश्वर का नाम जपें तो आत्मबल आएगा और कर्मयोगी बनते हुए आप बुरे कर्म नहीं करोगे। इसलिए ज्ञान-योगी और कर्म-योगी बनना इन्सान के लिए जरूरी है। मांग कर खाना हराम है।

भाई! थोड़ा सा भजन रह रहा है। उसके बाद फिर से आपकी सेवा में अर्ज करेंगे।

6. मोह-ममता का संगल भारी,
इसके अन्दर फंसेया।
पुत्र-पोत्रा, धी-जवाई,
देख-देख के हंसेया। मीठी धुन…

7. दु:ख मुसीबत इकट्ठी कीती,
चिंता दूर न कीती।
सब सुखों की नाम दवा जो,
वो कभी न पीती। मीठी धुन…

8. मनुष्य जन्म मिला जो तुझको,
सच्चा हरि का मन्दिर।
सब दु:ख चिंता दूर करे जो,
हो रही है धुन अन्दर। मीठी धुन…

9. शम्स जी इस मीठी धुन का,
करते हैं फरमान।
एक जान तो क्या,
करूं मैं सौ जानें कुर्बान। मीठी धुन…

10. ‘शाह सतनाम जी’कहते,
मालिक हर घट में है बसता।
धुन-डोरी को पकड़े जो भी,
सचखण्ड जाए हंसता। मीठी धुन…।।

भजन के आखिर में आया है :-

मोह-ममता का संगल भारी,
इसके अन्दर फंसेया।
पुत्र-पौत्रा, धी-जवाई,
देख देख के हंसेया।

मोह-ममता का जो सांकल है, जो जंजीर है, इतनी बारीक है ये दिखने में नहीं आती पर ये इन्सान को इतना जकड़ कर रखती है क्या मजाल कि इससे छूट जाए! मोह-ममता किसे कहते हैं? अपने बच्चों से प्यार करना, उनको अच्छे संस्कार देना ये मोह-ममता नहीं है। ये तो निरोल प्यार है और उनको नेक-अच्छा बनाने का आपका फर्ज है पर उनका मोह-ममता जब इतना बढ़ जाता है, कोई कहता, आपके बेटे ने ये गलती की आप परवाह नहीं करते कि मेरा बेटा ऐसा हो ही नहीं सकता। फिर कहते हैं कि आपका बेटा है उसे काम करने दीजिए अच्छा बने, नेक बने। आप कहते हैं कोई हर्ज नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ता। अल्लाह, राम को बिल्कुल भुला ही देते हैं।

बस, सोते-जागते बच्चों का ख्याल, उनके लिए ठग्गी मारना, बेईमानी करना, लोगों का हक मार कर, लेकर आना, उनके मुंह में डालना। वो सोचते होंगे, शायद आप अच्छा काम कर रहे हैं। पर आपको लिखकर दे सकते हैं अगर किसी का हक मार कर लाकर आप खाते हो या बच्चों को खिलाते हो वो शहद नहीं, वो धीमे जहर का काम करेगा। आने वाले समय में आपको पता चलेगा जब उन्होंने आंखें दिखानी शुरू कर दी और जब आप के तेवर आपस में न मिले, आप कौन और वो कौन, पता तक नहीं चलेगा। तो भाई, इसलिए मोह-ममता में हद से अधिक मत फंसिए। अंधे मत हो जाओ। अपने अल्लाह, राम, भगवान को मत भूलो।

इस बारे में लिखा है :-

बाल-बच्चों को देखकर उनके मोह में फंस जाएं और उनकी मीठी-मीठी बातों में मस्त होने की क्या कीमत है। वो एक रात के मेहमान की तरह है। जिसने प्रभात होते चले जाना है। एक रात के लिए आकर यदि वो युगों की आस बांध ले तो फिजूल है।

बेटा-बेटी का मान-गुमान करना गलत है। प्रेम देना जैसी भावना है बेटे के लिए, बेटी के लिए बहिन-भाई, माता-पिता के लिए, पति-पत्नी जो भावना उनके लिए रिजर्व होनी चाहिए। और संसार समाज में जो भावना होनी चाहिए कि उम्र में बड़े हैं तो मां-बाप के समान, बराबर के बहिन-भाई और छोटा है तो बेटे-बेटी के समान मानें, ये हमारे रूहानी पीर-फकीरों का सन्देश है। कई सज्जन पूछते हैं जो शादी नहीं हुई होती उनका क्या रिश्ता है? ऐसी चिट्ठियां आती रहती हैं। रूहानियत के अनुसार, महापुरुषों के अनुसार, जब तक आपकी सगाई या शादी के लिए कोई लड़का-लड़की चुन नहीं लिया जाता, चाहे नौजवान ही क्यों न हो, वो एक बहिन-भाई की तरह ही है। जिन्होंने रिश्ते बनाए उनके अनुसार तो यही रिश्ता है। जब शादी होती है तब वो धर्मपत्नी का दर्जा उसको मिल जाता है या धर्मपति का, अन्यथा बहिन-भाई या मां-बाप या बेटे-बेटी का ही रिश्ता संत, पीर-फकीरों ने कायम रखने के लिए कहा है।

तो भाई! इन रिश्तों के लिए सही रहो पर हद से अधिक इनमें खो न जाओ, क्योंकि सबसे बड़ा रिश्ता आपका जो है वो ओ३म, हरि, अल्लाह, राम से है। आपकी आत्मा उसी से बिछुड़ कर आई है। उसी की नूरे किरण है, उसी का नूरे जलाल है। इसलिए उस ओ३म, हरि, अल्लाह, राम के लिए भी समय दीजिए।

आगे आया है:-

दु:ख मुसीबत इकट्ठी कीती, चिंता दूर न कीती।
सब सुखों की नाम दवा जो, वो कभी न पीती।

इस बारे में लिखा है:-

लाख दवाई कर ले चाहे, दूर नहीं होना रोग तेरा।
नाम का दारू जेकर पी ले,

मिट जाए सारा शोक तेरा।।
नाम खजाना केवल बड़ा, सारे माल खजाने से।
जो मिले दातार गुरु के, दर पर शीश झुकाने से।।

भाई! जिन्दगी में जितने कर्म किए दु:ख मुसीबतें इकट्ठी की। दूसरों को दोष देता है मंै फलां आदमी की वजह से दु:खी हूं, मैं फलां कर्माें की वजह से। फलां आदमी ने ऐसा किया तो दु:खी हूं। रूहानी फकीर कहते हैं नहीं! दूसरों की वजह से नाम-मात्र, हां तू अपने कर्माें की वजह से दु:खी है।

ददै दोसु न देऊ किसै
दोसु करंमा आपणिआ।।
जो मै कीआ सो मै पाइआ
दोसु न दीजै अवर जना।।

दोष किसी को मत दीजिए। दोष आपके कर्मों का है। संचित कर्मों का हो सकता है, इस जन्म के कर्मों का हो सकता है। इसलिए कर्मों से बचने के लिए आप ईश्वर के नाम का सुमिरन करें वो ही एक तरीका है जो कर्मों से बचा सकता है अन्यथा जैसा बोओगे वैसा काटना जरूर पड़ेगा। इसलिए भाई ! आपने जीवन में जो कुछ किया, जरा निगाह मारिए, स्वार्थ के लिए अधिक किया, जैसे पक्षी करते हैं, जानवर करते हैं वो ही तूने किया। पक्षी घौंसला बनाता है, अण्डे देता है, बच्चे पैदा करता है, उनके लिए चोगा चुन कर लाता है चाहे जाल में ही फंस जाए, पर दौड़ता रहता है।

वैसे ही इन्सान है। बच्चे पैदा करता है, घर बनाता है, उसमें रहता है, सारी उम्र ठग्गी, बेईमानी कर बच्चों को खिलाता है, अपनी इज्जत, शोहरत बढ़ाता है। फर्क क्या है ? फर्क यही है कि इन्सान उन जीव-जन्तुओं को मार कर खा सकता है जबकि सारे जानवर इन्सान को खाते नहीं हैं। शेर भी कुछ नहीं कहता। अगर उसे आदमखोर न बना दिया जाए तो वो भी पहल नहीं करता, ये देखने में आया है। जब वो आदमखोर बन जाता है तो फिर नहीं छोड़ता।

तो भाई! मुसीबतें खुद इकट्ठी कीं। मकड़ी की तरह जाल बना लिया और उसमें ऐसा फंस गया, कीट-पतंगा तो क्या फंसना था कि खुद ही सूख कर मरने लगा।

भजन में आगे आया है :-

मनुष्य जन्म मिला जो तुझको,
सच्चा हरि का मन्दिर ।
सब दु:ख चिंता दूर करे जो,
हो रही है धुन अन्दर।

मालिक ने शरीर को सच्चा हरि मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर- बनाया है। हिन्दू धर्म में आता है:- शरीर प्रभु का सच्चा मन्दिर है, जो उसने आप बनाया। दिल उसका सिंहासन है जहां वो रहता है, जहां से विचार पैदा होते हैं और मालिक के मंदिर का जो दरवाजा है वो दोनों आंखों के बीच, नाक के ऊपर ललाट-माथे की ‘ये’ जगह है, जहां माता-बहिनें बिन्दी या भाई लोग तिलक लगाते हैं। ये वो जगह है यहां पर दरवाजा है ईश्वर का, मालिक का, प्रभु-परमात्मा का। तो आप मालिक के नाम का सुमिरन करें, प्रभु के नाम की भक्ति करें तो ये दरवाजा खुलता है। दसवां द्वार कहलाता है। नौ दरवाजे हैं आंख, नाक, मुंह, कान ये खुले हैं सब। नौ दरवाजे, नौ इन्द्रियां हैं और और ये दसवां बन्द है। इस तक पहुंचे तो दरवाजा खुलेगा, मन्दिर यानि अन्दर तक जाने की सीढ़ियां मिलेंगी और मालिक की दया-मेहर के काबिल बनोगे।

सिक्ख धर्म में आता है :-

मनु मंदरु तनु वेस कलंदरु
घट ही तीरथि नावा।।
एकु सबदु मेरै प्रानि बसतु है
बाहुड़ि जनमि न आवा।।

वो ही मतलब जो हिन्दू फकीरों ने कहा। मुसलमान सूफी फकीर शेख फरीद जी कहते हैं:-
अल्लाह के अपने हाथों से बनाई मस्जिद हमारा जिस्म है। जिस्म रूपी मस्जिद में अल्लाह का बनाया हुआ महराब, महराब कहते हैं, ऐसे कमानदार जगह होती है मस्जिद में, जिसके नीचे मौलवी दुआ या कलमा अदा करते हैं। अल्लाह का बनाया हुआ महराब दोनों आंखों के ऊपर की ये जगह है।

इंग्लिश रूहानी फकीर भी लिखते हैं:-

ळँी इङ्म८ि ्र२ ३ँी ३ीेस्र’ी ङ्मा ॠङ्म िंल्ल ि३ँी ँीं१३ ्र२ ३ँी २ीं३ ङ्मा ॠङ्म.ि
शरीर मालिक का मन्दिर है और दिल उसके बैठने का स्थान है। दिल जहां से अगर ये तेजी से धड़कता है, रूहानी पीर-फकीर कहते हैं कि इससे बहुत परिवर्तन आता है। दिल धड़कता है तो सारा शरीर इसी से चलता है, दिमाग को भी आखिर इसी से ही ताकत मिलती है। अगर दिल दिमाग को खून का सरकल सही दे, तो ही सोच आएगी वरन् कहां से आएगी। तो भाई ये बैठने का स्थान है। एक डाक्टर कहने लगे, गुरु जी! मैंने बहुत से दिलों के आॅप्रेशन करवाए और किए भी हैं, हार्ट स्पैशलिस्ट हूं, ओपन सर्जरी की है, मुझे तो भगवान बैठा दिल में नजर नहीं आया! हमने कहा, डाक्टर साहिब! सामने गऊ है, ये पन्द्रह लीटर दूध देती है।

आप इसके थनों को, लेवा जो है, उसको चीर के देखें, आॅप्रेशन करके देखें क्या उधर पन्द्रह लीटर दूध है? कहता, उधर तो एक बूंद नहीं। अभी बछड़ा छोड़ देते हैं, देखना कैसे दना-दन बाल्टी भरेगी। ये किधर से आया ? कहने लगा, ये तो गऊ का बछड़े प्रति भावनात्मक लगाव है जिससे हार्मोन्स बढ़ते हैं और भावना बढ़ने से दूध आ जाता है। हमने कहा, जैसे उधर दूध नजर नहीं आया वैसे दिल को चीरने से भगवान भी नजर नहीं आता। ये भी भावानात्मक लगाव है। अगर आप भावना से प्रभु को याद करेंगे, अल्लाह, राम को सच्ची तड़प से याद करोगे तो वो मालिक आपको दिल में नहीं, कण-कण में, जर्रें-जरें में नजर आ सकता है। तो भाई यही सच्चाई है।

शम्स जी इस मीठी धुन का, करते हैं फरमान।
एक जान तो क्या, करूं मैं सौ जानें कुर्बान।।

इस बारे में लिखा है :-

मोईनुदीन चिश्ती साहिब नाम की मीठी धुन के बारे फरमाते हैं कि जब मैं उसके नाम को सुनता हूं यदि मेरी सौ जानें भी हों तो सारी उस पर कुर्बान कर दूं।

इस बारे में हिन्दू महापुरुषों ने कहा है:-

राम नाम की धुन के सामने सारी मिठास, सारे स्वाद, सारे नशे तुच्छ हैं।

यही मुसलमान फकीर भी कहते हैं :-

हे मालिक! तेरी याद में गुजरा एक पल और मजाजी शराब के हजारों मट भरे हों वो एक पल अरबों-खरबों दर्जे ज्यादा नशा देने वाला है।

तो भाई! मालिक का जो नाम है उसमें बहुत ही मिठास, लज्जत, स्वाद, आनन्द है पर बेगर्ज, नि:स्वार्थ। मालिक, वाहेगुरु, राम के प्यार में कोई गर्ज नहीं है। वो ऐसा प्यार इन्सान की बुराइयां खत्म करता है और दया-मेहर, रहमत से मालामाल करता है।

भजन के आखिर में आया है :-

‘शाह सतनाम जी’ कहते,
मालिक हर घट में है बसता।
धुन-डोरी को पकड़े जो भी,
सचखण्ड जाए हंसता।।

इस बारे में लिखा है :-

प्रभु सबके अन्दर व्यापक है और हमारे सदा अंग-संग है। हम बाहर वाले पदार्थों के अन्दर लगने करके उसको प्रत्यक्ष देख नहीं सकते। जैसे चमचड़िक (चमगादड़) सूरज नहीं देख सकती तो इसमें सूरज का क्या दोष है। वो तो ज्यों का त्यों बराबर चमक रहा है। वो सर्वव्यापक है। फिर हमें नजर क्यों नहीं आता? इसका कारण ये है कि अभी हमारी आंखें उसको देखने वाली नहीं बनी। वो आंखें और हैं, जिनसे वो सब जगह नजर आता है।

नानक से अखड़ीआं बिअंनि
जिनी डिंसदो मा पिरी।।

वो मालिक कण-कण, जर्रे-जर्रें में है। बात सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम जी महाराज, जिन्होंने हमें रूहानियत का पाठ पढ़ाया है, फरमाते हैं।

‘शाह सतनाम जी’ कहते,
मालिक हर घट में है बसता।
धुन-डोरी को पकड़े जो भी
सचखण्ड जाए हंसता।।

मालिक कण-कण में है और उसको देखने के लिए आँखों में राम-नाम की दवा डालनी पड़ती है। इन आंखों में ओ३म, हरि,अल्लाह, वाहेगुरु के नाम की याद यानि सुमिरन करेंगे तो ये आंखें अन्दर से खुलेंगी। बाहर से बन्द करके बैठें। जब अन्दर खुलेंगी और फिर जो देखेंगी बिल्कुल सच देखेंगी। जो अन्दर सुनते हैं राम नाम की धुन को, डोरी को पकड़ते हैं अपने निजधाम, सतलोक, सचखण्ड, अनामी में उनकी आत्मा, रूह चली जाती है। आवागमन से मोक्ष-मुक्ति मिलती है और यहां रहते हुए गम, चिंता, परेशानियां, टैंशन से निजात, आजादी हासिल जीव कर सकता है।

उस नाम के लिए कोई पैसा, चढ़ावा देने की जरूरत नहीं है। न कोई पैसा देना है, न चढ़ावा देना है और न ही कोई धर्म-जात, मजहब बदलना है। आप जिस धर्म में रहते हैं रहते रहिए, जिस धर्म को मानते हैं मानते रहिए, लेकिन मानिए। यानि दिखावा कम कीजिए मानिए ज्यादा और साथ में राम का नाम जप सकते हैं।

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