आई रंगीली तीज, Teej झूलण जांगी बागां म्है -‘तीज का तुहार तो म्हारे टैम मै मनाया जावै था। जद एक भी छोरी घर पै ना मिलै थी। सामण आते ही चारूं पासै गीत्तां की आवाज सुणाई दिया करदी। भाई जद सुहाली अर पताशे लेके आंदे, तो दिवाली सी मन जावै थी।’ जिंदगी के 90 वर्ष बीता चुकी बुजुर्ग कौशल्या देवी ने अपने हरियाणवी अंदाज में उन दिनों की याद को ताजा करते हुए कहा कि इब तो कुछ भी तीज नहीं मनाई जाती। बगल में बैठी ओमी देवी बोल उठी, ‘लुगाईयां तीज का मीह की ढालै बाट देख्या करती। अक कद सामण का तुहार आवै अर कद पींग झूलैं, मस्ती करैं, नाचैं गावैं। इब आलियां नै तो फोन तै फुर्सत हो तो तीज को तुहार मनावैं। इब पहलां आला टैम ना रह लिया।
इब तुहारां का वो पहलां आला रंग ना रया।’
तीज पर्व हरियाणा समेत बहुत से प्रदेशों में महिलाओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है। हालांकि आधुनिकता ने तीज पर्व की मिठास को कुछ कम जरूर किया है, लेकिन महिलाओं के दिलों में तीज पर्व के प्रति आज भी वही सम्मान व मस्ती है। तीज पर्व सावन मास में आता है और सावन का नाम सुनते ही पींग, पीढ़ी और मौज-मस्ती आंखों के सामने आने लगती है। बरसात के मौसम में मीठा खाने का अपना महत्व है इसलिए तीज को ‘मीठा त्यौहार’ भी कहा जाता है। यह पर्व श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है।
तीज को लेकर जब दो बुजुर्ग महिलाओं रामबती व भतेरी से चर्चा की गई तो वे भी पुरानी यादों में इस कद्र खो गई कि अपने समय की सावन की सारी बातें सुना दी। बजुर्ग महिलाएं ‘झूमकर सामण आया ए माँ मेरी झूमता री, ऐ री आई रंगीली तीज झूलण जांगी बाग मैं।’ गाने लगी और कहने लगी कि तीज तो म्हारे टैम मैं मनाई जावै थी इब कित वा पहलां आली तीज रैहगी। पहलां जिब हम पींग्या करते तै पूरा गाम देखण खात्तर इकट्ठा हो जाया करता। सारा सामण गीत गाया करती, लेकिन इब तै ना सामण का आए का बेरा पाटै ना अर गए का बेरा पाटै…!
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तीज पर्व पर कोथली का विशेष महत्व
आज भी हरियाणा में तीज पर्व पर भाई अपनी बहनों के घर कोथली लेकर जाता है। कोथली में घेवर, फिरनी, बतासे, बिस्कुट, मिट्ठी सुहाली व अन्य मिठाई लेकर जाता है। हालांकि आजकल कोथली का स्वरूप बदल गया है लेकिन ज्यादातर जगहों पर आज भी यह परंपरा चल रही है। बताया जाता है कि पुराने समय में तो कई दिन पहले ही बहन को कोथली भेजने की तैयारी शुरू कर दी जाती थी, क्योंकि खाने का पूरा सामान घर पर ही बनाया जाता था और सुहाली मुख्य मिठाई में से एक था। समय के साथ-साथ घेवर व फिरनी ने कोथली में जगह बनाई व आजकल अन्य मिठाईयां भी कोथली में दी जाने लगी हैं।
इठलाती-गाती अलमस्त टोलियां, कहीं खो गए वो दिन
सावन के महीने में घरों व बाग-बगीचोंं में झूला-झूलती व झूलाती दिखाई देने वाले युवक-युवतियों की इठलाती-गाती अलमस्त टोलियां आजकल नज़र ही नहीं आती। हरियाली रहित जंगलों और भाग-दौड़ भरी मौजूदा जिंदगी में न तो पींग, न पींग डालने वाले और न ही मिट्टी की खुशबू से जुडेÞ सावन के मधुर लोकगीत कहीं नजर आते हैं। आधुनिकता ने सावन के झूले को इस त्यौहार से कहीं पीछे छोड़ दिया है। हरियाणा में पहले सावन का पूरा महीना बडेÞ-बड़े झूलों व हरियाणवी लोक गीतों के नाम रहता था। पींग की अगर बात की जाए तो आज पींग पींगने वाले व पींगाने वाले ही नहीं रहे, बाकि बची-खुची कसर वनमाफिया ने निकाल दी, क्योंकि जिन विशाल वृक्षों पर पींग डाली जाती थी ऐसे विशाल वृक्ष ही नहीं रहे तो पींग डालना दूर की कौडी हो गए।
महिलाएं बड़े शौंक से लगाती थी मेहंदी
सावन के महीने में मेहंदी भी एक अहम रस्म होती है। पहले इस दिन महिलाएं बडेÞ शौंक से मेहंदी लगाती थी। मेहंदी के बारे में एक कहावत प्रचलित रही है कि बिना रची की सास अर प्यारी का मेहन्दा। यानि की जिस बहु की मेहंदी कम रचेगी वह सास की प्यारी होगी और जिसकी मेंहदी ज्यादा रचेगी वह अपने पति और सास दोनों की प्यारी होगी। इसलिए मेहंदी का भी तीज के साथ बहुत महत्व है, परन्तु आजकल स्टीकर मेहंदी बहुत प्रचलन में है।
‘चंद वीर लैण आ गया, चिट्टी कार ते सलीन दियां गद्दियां’
जीवन में 90 बसंत देखने का अनुभव संजोए सुखदेव कौर पंजाबी अंदाज में उन दिनों की यादों को ताजा करते हुए बताती हैं कि ‘उन्हां दिनां च कुड़ियां सज-संवर के इकट्ठियां होके तड़के ही पिंड दे वड्डे-वड्डे पिपलां थल्ले पौंच जांदियां, सारा दिन पिपलां ते पाई पींग झूटदियां ते गिढ़दा पौंदियां। शाम नूं 4 बजे तक इंज ही मौजां करदियां। मेरा प्यो (पिता जी) तां घरै सारैयां नूं कह देंदा सी कि अज्ज तीयां हन, कुड़ियां तों घर दा कोई कम नहीं करवाना, इन्हां नूं नच्चण दयो, झूटे लैण दयो।’ सुखदेव कौर ने तीज के शुरुआती दिनों में गाया जाने वाला गीत गुनगुनाया-
‘तीयां तीज नी, तीयां दे दिन नेडे, घल्ली माए चंद वीर नूं। चंद वीर लैण ना आया, चुल्ले दे पज्ज रोवां।’
फिर जब भाई तीज पर बहन को लेने उसके ससुराल आता है तो ‘चंद वीर लैण आ गया, चिटी कार ते सलीन दियां गद्दियां, फेर तीयां तीज दियां। वरे दिनां नूं फेर तीयां तीज दियां। तीज के दिन जब लड़कियां दिनभर नाच-गाने के बाद जब घर लौटतीं तो अपने भाइयों को संदेश देती कि ‘ठंडे सीले होजो वीर नो, असीं तीयां नू विदा कर आइयां’। कौर ने बताया कि कुड़ियों की मंडलियां कई बार अपने भाइयों को उलाहना भी देती और कुछ उनके पक्ष में भी बोलियां लगाती ‘नीं की आख्दे नै वीर, कुडियां दी मंडली नूं, वीर मेरा सतजुग दा, कलजुग दी जम्मी परझाई।’