घरेलू झगड़े से न बिखरें घर-परिवार
झगड़ा शब्द उतना ही पुराना है जितना इस धरती पर मानव-जीवन। घरों में लड़ाई-झगड़ा होना कोई नई बात नहीं है। यह तो युगों-युगों से होता आ रहा है। घरेलू झगड़े कई गुल भी खिला चुके हैं। इतिहास की कई महत्त्वपूर्ण घटनाएं घरेलू झगड़ों का ही परिणाम थी। राम का वनवास सौतिया डाह के कारण ही हुआ। राम न वन जाते और न ही रावण का वध होता। तब शायद रामायण जैसा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हमारे सामने होता भी या नहीं।
ज्यों-ज्यों हम सभ्य होते गए, अपने व्यवहार को संयत करते गए, लेकिन मनोभावनाएं तो वही रहीं। अशिक्षित समुदाय की लड़ाई और सभ्य समाज की लड़ाई में अंतर है। टीन जिस तेजी से गर्म होकर ठंडा हो जाता है, उसी तरह अशिक्षित समाज की जोर-शोर से लड़ी गई लड़ाई भी ठंडी हो जाती है और शिक्षित की लोहे की तरह सुलगती लड़ाई को ठंडी होने में वक्त लगता है।
प्राय: घरेलू झगड़ों के अनेक कारण होते हैं जिसकी गिनती कर पाना असंभव है पर मोटे तौर पर कुछ कारणों को तो गिना ही जा सकता है।
प्राय: पहला कारण तो संपत्ति या उत्तराधिकारी को लेकर होता है जो धनाढय वर्गों या राज-घरानों में होता है। कौरव एवं पांडवों की लड़ाई भी तो घरेलू ही थी और सम्पत्ति को लेकर थी। इसी पर तो पूरा महाभारत रचा गया। घरेलू झगड़ों का दूसरा कारण अपेक्षाओं का पूरा न हो पाना माना जा सकता है।
हम प्राय: अपनों से बहुत ज्यादा अपेक्षा करने लग जाते हैं। परिवार के प्रत्येक सदस्य एक-दूसरे से अपेक्षा पर अपेक्षा करते चले जाते हैं। सास को बहू से यह अपेक्षा रहती है कि वह उनकी तथा उनके घर वालों की खूब सेवा करे, अपने मायके वालों के बारे में सोचे तक नहीं। बहू की यह अपेक्षा रहती है कि सास उसे मां के समान प्यार करे। अपनी सारी चीजÞें उस पर न्यौछावर कर दे।
पति अपनी पत्नी से सर्वगुण-सम्पन्न, अप-टू-डेट, स्मार्ट पर घर एवं परंपराओं से बंधी होने की अपेक्षा करता है तो पत्नी पति से किसी हिन्दी सिनेमा के हीरो की तरह प्यार करने वाला, हर सुख-सुविधा देने वाला होने की अपेक्षा करती है। इसी तरह पुत्र मां से, मां पुत्र से, देवर भाभी से, भाभी देवर से अपेक्षाओं के पुल बांधते चले जाते हैं। इन्हीं अपेक्षाओं के पूरा न होने पर एक-दूसरे से गिला-शिकवा होने लगते हैं और वक्त आने पर झगड़े का रूप धारण कर लेते हैं।
झगड़े का एक कारण पूरी दुनिया का भौतिकवाद की ओर अग्रसर होना भी है। अधिकांश लोगों का आध्यात्मिक शान्ति से कोई सरोकार नहीं होता। यदि सरोकार होता तो लोग हर किसी में प्रेम-भाव एवं अपनेपन की तलाश करते। प्रेम व अपनापन ढूंढने एवं देने की लोग जरूरत नहीं समझते। सभी पैसे कमाने के पीछे पागल हैं। क्यों पागल हैं? इसका जवाब होगा, भाई महंगाई का जमाना है। जब तक कमाएंगे नहीं, घर कहां से ‘मेन्टेन’ होगा? कार, वी.सी.आर., फ्लैट, बच्चों को महंगे स्कूलों में पढ़ाना इत्यादि सभी खर्चे तो पूरे करने हैं। अपने लिए ही कमाई पूरी नहीं पड़ती है तो दूसरों के लिए कैसे करें? दूसरे कौन? अपने ही संबंध के लोग। यदि कोई किसी की कमाई में हिस्सा बंटाने आ जाए तो वह आंख की किरकिरी बन जाता है। इस स्वार्थ का आना युग एवं परिस्थिति की देन है।
घरेलू झगड़ों का एक कारण परिवार के सदस्यों का अपने-अपने दायरे में सीमित हो जाना भी है। यहां तक कि छोटे परिवारों में पति-पत्नी का अलग-अलग दायरा बन जाता है तो बच्चों का भी अपना दायरा बन जाता है। बच्चे अपने में मस्त रहते हैं। कोई एक-दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप पसंद नहीं करता है। जहां हस्तक्षेप बढ़ा कि टकराव शुरू हो जाता है।
एक-दूसरे की भावनाओं का ख्याल न करना भी झगड़े का एक मुख्य कारण होता है। यदि एक सदस्य दूसरे की भावनाओं का ख्याल न करके अपना ही चाहा करता चला जाता है तो निश्चय ही दूसरे के हृदय को ठेस पहुंचती है। नारी चूंकि घर की धुरी होती है, इसलिए सारी घटनाएं उसके इर्द-गिर्द ही घटती हैं। झगड़े का असर उसके ऊपर सबसे ज्यादा पड़ता है। मर्द घर के बाहर-भीतर के तनाव की भड़ास अपनी औरत पर ही तो निकालता है। आखिर वह उसकी अपनी होती है। वह बेचारी जायेगी कहां? ज्यादा से ज्यादा दो बात कहेगी और आंसू बहाएगी।
नारी घर की स्थायी स्तंभ होती है। उसे चाहे जितनी ठोकर मारो, वह अपनी जगह पर अटल खड़ी रहती है। वह जानती है कि वह खिसकी या टूटी कि घर की छत के गिरने का असर उसके बच्चों पर या उस पर पड़ेगा। एक औरत के लिए उसका अपना कोई बहुत महत्त्व रखता है क्योंकि वह स्वभाव से बहुत संवेदनशील होती है। उसकी सबसे बड़ी पूंजी उसकी इज्जत एवं समाज में उसका स्थान होता है। इस कारण घर में होने वाले झगड़े के कारण उसकी जो प्रताड़ना या उसके प्रति जो अत्याचार होते हैं, वह सब कुछ बर्दाश्त करती चली जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि घरेलू झगड़ों का असर महिलाओं पर सबसे ज्यादा पड़ता है। यह बात ध्यान देने की है कि घरेलू झगड़ों की शुरूआत अधिकांशत: महिलाओं द्वारा ही होती है।
जितनी तेजी से हम आगे बढ़ते जा रहे हैं आत्मिक शान्ति कहीं लुप्त होती जा रही है। परिवार के सदस्यों के बीच सामंजस्य में कमी आ रही है। इस भाग दौड़ एवं दिखावे की दुनिया में हम जीवन की सच्चाई से दूर भागते जा रहे हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह जीवन क्षणभंगुर है। बहुत छोटी होती है यह जिन्दगी और शायद अनिश्चित भी। क्यों न हम इस जिन्दगी को चैन एवं आनंद से जियें।
जब हम आत्मिक शान्ति की तलाश शुरू कर देंगे, तब हमें प्रेम एवं आनन्द को ढूंढना होगा। इसके लिए हमें भी दूसरों पर प्रेम एवं अपनापन न्यौछावर करना होगा। परिवार के सदस्यों के मध्य एक दूसरे से अत्यधिक अपेक्षाएं करना आज कल बेईमानी है। हमें अपने स्वभाव में संतोष की मात्र को बढ़ा देना चाहिए। तभी हम परिवार में शांति बनाए रख सकते हैं।
-नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी