तुझे खुद मुखत्यारी मिली जैसी, किसी जून को न मिली ऐसी…
रूहानी सत्संग: पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी धाम, डेरा सच्चा सौदा सरसा |
मालिक की प्यारी साध-संगत जी! जो भी साध-संगत यहां आश्रम, डेरे, सत्संग में चल कर आई है, अपने कीमती समय में से समय निकाल कर मन जालिम और मनमते लोगों का सामना करते हुए, रास्ते में भी कुछ परेशानियां आ जाती हैं, उनका सामना करते हुए आप लोग सत्संग में पधारे हैं, यहां आकर राम-नाम में बैठे हैं, आप सभी का तहेदिल से बहुत-बहुत स्वागत करते हैं, जी आया नूं, खुशामदीद कहते हैं, मोस्ट वैलक्म। आज आपकी सेवा में जो सत्संग होने जा रहा है जिस भजन पर सत्संग होगा,वो शब्द है:-
तुझे खुद मुखत्यारी मिली जैसी,
किसी जून को न मिली ऐसी।
जो जी चाहे करले तेरी मर्जी,
जो जी चाहे करले तेरी मर्जी।।
हे इंसान! जैसी खुद-मुखत्यारी, आजादी तुझे मालिक ने दी है, ऐसी खुदमुखत्यारी चौरासी लाख शरीरों में और किसी को नसीब नहीं हुई है। इंसान को मालिक ने सबसे अधिक दिमाग, अक्ल-बुद्धि दी है, जिसकी वजह से ये जैसा चाहे वैसा कर्म बना सकता है। ये इंसान पर निर्भर है कि कर्म कैसे करता है। मालिक, ईश्वर ने आजादी दी, आवागमन से मोक्ष-मुक्ति के लिए। यहां रहते हुए ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहेगुरु, राम के दर्शन-दीदार कर सके ईश्वर ने इसलिए खुदमुखत्यारी, आजादी दी, सबसे बड़ा दिमाग दिया परन्तु अगर इंसान यहां पर आकर दुनियावी धन्धों में, काल की वगार ढोने में समय
लगाता है तो ये इंसान के बुरे कर्म हो जाते हैं।
इंसानी समय का खात्मा हो रहा है, बर्बादी हो रही है। जिस कार्य के लिए यह शरीर बनाया गया, अगर वो कार्य नहीं करता तो इंसान चौरासी लाख शरीरों में फिर से चक्कर लगाने लगेगा। यानि इस आत्मा को आवागमन में जाना पड़ेगा। बाकी जितने शरीर हैं पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़े, पेड़-पौधे, वनस्पति ये सब के सब गुलाम हैं। इनमें रूहें हैं, लेकिन वो काल की गुलाम हैं, उस दायरे से बाहर नहीं जा सकती। उससे ज्यादा सोच नहीं सकती, उससे आगे बढ़ नहीं सकती और उन्हीं में घुट-घुट के अपना जीवन व्यतीत करती हैं।
समय गुजरता है, शरीर
छूटते जाते हैं। आत्मा नए शरीरों में प्रवेश कर जाती है और इस तरह आगे से आगे जीवन-चक्कर चलता रहता है। आत्मा को उन शरीरों में बेशुमार दु:ख भोगने पड़ते हैं। बेशुमार परेशानियों का सामना करना पड़ता है। आत्मा, रूह बचने के लिए कोई उपाय उन शरीरों में नहीं कर पाती। अगर आप पाप-कर्मांे, परेशानियों, मुश्किलों से मुक्ति पाना चाहते हैं तो प्रभु-परमात्मा के नाम से ही संभव है, जो दोनों जहां का स्वामी है, उस परमपिता परमात्मा की भक्ति से ही आवागमन का चक्कर खत्म हो सकता है, मोक्ष-मुक्ति मिल सकती है।
उसकी भक्ति चौरासी लाख शरीरों में कोई कर सकता है तो वो केवल इंसान का शरीर है। तो भाई! ऐसा शरीर, ऐसी खुदमुखत्यारी मिली है अपनी आजादी का, जन्म-मरण से निकलने का मौका मिला है, अवसर मिला है। इसको पाने में अगर कोई मदद करता है तो वह है सच्चा रूहानी फकीर। उसकी सत्संग में आएं, सुनें, ध्यान दें और अमल करें तो आवागमन से मोक्ष-मुक्ति जरूर मिलती है, आजादी जरूर मिलती है। आवागमन से मोक्ष-मुक्ति क्यों जरूरी है? क्योंकि आत्मा परमात्मा की अंश है।
उससे बिछड़ा हुआ नूरे-जलाल है, उसी का एक कण है। जब जीवात्मा-रूह पांच तत्व के शरीर में जाती है तो उसको जन्म
लेते समय जीवन जीते समय और मौत के समय तड़पना पड़ता है। यही नहीं, उसके बाद स्वर्ग नरक में भी तड़पना पड़ता है। तो भाई! ये जीवात्मा जन्म-मरण में भटकती है, बेशुमार दु:ख उठाती है जिसका वर्णन कहने-सुनने से परे है। इस दु:ख-कलेश से, जन्म-मरण के झंझट से, कैदखाने से अगर रूह आजाद होती है तो अपने निजधाम, सचखण्ड, सतलोक, अनामी में जा पधारती है। वहां पर इसे अपनी असली जिन्दगी जीने का मजा आता है। जहां चारों तरफ आत्मिक तरंगें हैं, मालिक-परमात्मा ही सब कुछ है। लज्जत, वहां का परमानन्द लिखने-सुनने से परे है।
दुनिया में रहते हुए, इस शरीर में रहते हुए आत्मा क्षण मात्र के लिए आनन्द ले सकती है, कुछ पल के लिए स्वाद, लज्जत, नशा, मिठास मिलती है। पर निजमुकाम में वो मिठास स्थाई रहती है, वहां आनन्द-सागर में, लज्जत खुशियों के भरे हुए समुद्र में आत्मा तारियां लगाती है, हमेशा मस्त रहती है। यहां की प्रत्येक वस्तु वहां के सुख-आनन्द की तुलना में छोटी पड़ जाती है। यानि वहां का जो स्वाद, लज्जत है उसका मुकाबला किसी से किया नहीं जा सकता। सब धर्माें में बताया गया कि शहद, गुड़, चीनी, घी, दूध, मक्खन ये मीठे हैं पर राम-नाम, अल्लाह, वाहेगुरु की उस धुन के सामने ये मिठास तुच्छ है।
ऐ इन्सान! नाम जप, ईश्वर को याद कर। उसको याद करने से, उसकी भक्ति-इबादत करने से तू अपनी परेशानियां से पीछा छुड़ा सकता है, अपने गम-चिन्ताओं से आजाद हो सकता है। वो मालिक, परमात्मा, अल्लाह वाहेगुरु, वो गॉड किसी का पैसा नहीं देखता, किसी का बाहरी रंग-रूप नहीं देखता। वो अन्दर की पाक-पवित्र भावना देखता है। वो मालिक जो जर्रें-जर्रे में है, कण-कण में मौजूद है, वो बाहरी दिखावों का गुलाम नहीं हो सकता। उसको पाने के लिए अन्त:करण पाक-पवित्र करना होगा। अपने विचारों को पवित्र करना होगा, अपनी अन्दर की भावना को बदलना होगा। मात्र बाहरी दिखावे से आप दुनिया को प्रभावित कर सकते हैं।
दुनिया क्या समझ सकती है, आप बाहर से क्या हैं और अन्दर से क्या हैं। अंदर कुछ भी कूड़ा-कर्कट, बुरे ख्याल भरे हों और बाहर आपने भक्तों का भेष धारण कर दिया, वैसा दिखावा कर लिया, वैसा दिखावा बना लिया। दुनिया आपको सलाम करेगी, इज्जत करेगी। पर राम, अल्लाह, वाहेगुरु, गॉड, ईश्वर इस झांसे में नहीं आता, क्योंकि वो तो कण-कण, जर्रे-जर्रें में है। उस जर्रे में तेरा शरीर भी है। तो वो तेरे अन्दर भी मौजूद है। तू उसे झांसा कैसे देगा? उसे अपनी अक्ल-चतुराई से कैसे भरमाएगा? वो बाहरी दिखावे को जानता है कि तेरे अन्दर क्या है, बाहर क्या है क्योंकि वो तुझे बनाने वाला है। तू उसे नहीं बना सकता। जो भी वैज्ञानिक, दुनिया की नजर में देखें।
उदाहरण के तौर पर कोई वैज्ञानिक जो सामान, जो भी चीज बनाते हैं, जो अविष्कार करते हैं, उसके बारे में उन्हें पूरी जानकारी होती है, पूरा ज्ञान होता है। तभी वो उस जैसे और बना सकते हैं। तो जिस मालिक ने सारी सृष्टि बनाई है, इंसान को बनाया है तो वो इंसान की रग-रग से वाकिफ है ही। उसके रूहानी संत, पीर-फकीर भी इन्सान का चेहरा देख कर जान जाते हैं। इन्सान का चेहरा साईन बोर्ड होता है। जैसा आपके अन्दर चलता है, चेहरे पर जरूर आ जाता है।
जितना मर्जी जोर लगा जीजिए, जितना मर्जी छुपाने की कोशिश कीजिए पर आपका चेहरा चुगली कर जाता है कि आप के अन्दर गम, चिन्ता, परेशानी है और आप ऊपर से केवल दिखावे के लिए हँस रहे हैं। वो संत, पीर-फकीर सब समझ जाते हैं पर मालिक का हुक्म होता है, पर्दा तो उठाया नहीं करते।
इसलिए वो सर्व-सांझा यानि सबको बैठा कर वचन करते हैं ताकि किसी एक को ये न लगे कि मुझे कहा जा रहा है। सुनने वाले, समझने वाले समझ जाते हैं कि ये हमें ही कहा जा रहा है। ये बात हमारे लिए है। अब आप समझ भी गए, पता भी चल गया फिर भी न मानें तो संत-फकीर क्या करें? उनका काम तो ज्ञान करवाना है, शिक्षा देना है।
तो भाई! साथ-साथ भजन चलेगा, साथ-साथ आपकी सेवा में अर्ज करते चलेंगे। हां जी, चलिए भाई-
टेक:-
तुझे खुद-मुखत्यारी मिली जैसी,
किसी और जून न मिली ऐसी।
किसी और जून न मिली ऐसी।
जो जी चाहे करले तेरी मर्जी,
जो जी चाहे करले तेरी मर्जी,
1. और जूनी सब ही गुलाम हैं,
किए कर्म वो भोगें तमाम हैं।
न जप सकती ये नाम हैं,
ये बन्दे तेरा ही काम है। जो जी चाहे…
2. जो नर तन तूने पाया है,
बड़ी मुश्किल से हाथ आया है।
कोई कदर न इसका पाया है,
बुरे कामों में क्यों गंवाया है। जो जी चाहे…
3. बुरा कर्म नरक ले जाता है,
नरकों में कष्ट उठाता है।
फिर रोता और पछताता है,
गया समय हाथ न आता है। जो जी चाहे…
4. माया पीछे पाप कमाए जी,
माया अंत साथ न जाए जी।
सजा पापों की मिल जाए जी,
फंस माया में नाम भुलाए जी। जो जी चाहे…
भजन के शुरू में आया है:-
इन्सान को छोड़कर बाकी की जितनी भी जूनें हैं सब की सब गुलाम हैं। अपनी इच्छा अनुसार नए कर्म नहीं कर सकती। उदाहरण के तौर पर जैसे पशु हैं, उनमें दिमाग ही इतना ज्यादा नहीं है कि वो अपने दायरे से बाहर जा सकें, या दायरे से बाहर जा कर कोई कर्म कर सकें। बहुत जूनें तो इंसान ने गुलाम बना रखी हैं। काल की गुलाम तो हैं ही हैं। तो भाई! उनमें रहते हुए जीव, रूह को बहुत तड़पना पड़ता है। कई शरीरों की आयु बहुत लम्बी होती है। पेड़-पौधे, वनस्पति है। इनकी आयु कितनी है वैसे सही तौर पर कोई बता नहीं पाया। जैसे रैड वुछ ट्री अमेरिका में एक पेड़ है, जो लाल लकड़ी का वृक्ष बताते हैं, चार हजार साल के ऊपर आयु है।
इसी तरह से और कितने पेड़ होंगे या वनपति होगी जिसे कोई देख नहीं पाया, समझ नहीं पाया। वैज्ञानिक रिसर्च करने में लगे हुए हैं कि उनकी कितनी उम्र है। आम ही इधर घास पाया जाता है, पंजाबी च ‘खब्बल’ कहते हैं, कांटों वाला घास, उसकी आयु कितनी होगी, ये कहने-सुनने परे है। क्योंकि अगर वो सूख भी जाता है तो यह कहावत है कि बारह साल के बाद भी उसे लगा दिया जाए और अगर उसमें गांठ हैं तो वो फिर से हरा हो जाता है। तो इसका मतलब उसमें आत्मा पड़ी है पर बीमार है, बुरी तरह से तड़प रही है।
पता नहीं कितने भयानक दु:ख सहने पड़ते हैं ये कहने-सुनने से परे हैं। वो गुलाम हैं, उनको दु:ख उठाने पड़ रहे हैं। वे काल के अधीन हैं। अगर काल के दायरे से बाहर निकल सकता है तो वो इन्सान मालिक का नाम जपकर निकल सकता है।
और जूनी सब ही गुलाम हैं,
किए कर्म वो भोगें तमाम हैं।
न जप सकती ये नाम हैं,
ये बन्दे तेरा ही काम है।
वो नाम नहीं जप सकती। मालिक को याद नहीं कर सकती। यह बन्दे तेरा ही काम है मालिक को याद करना, भक्ति-इबादत करके अपने आप को आजाद करवाना। गम-चिन्ताओं से आजादी लेना, यहां रहते हुए आत्मिक शान्ति, आत्मिक चैन मिले ऐसा अगर कर सकता है तो वो इंसान ही कर सकता है और ईश्वर के नाम के द्वारा और कोई दवा नहीं और कोई तरीका नहीं है।
जो नर तन तूने पाया है,
बड़ी मुश्किल से हाथ आया है।
कोई कदर न इसका पाया है,
बुरे कामों में क्यों गंवाया है।
नर तन (इन्सान का शरीर) मालिक ने जो बनाया या बनवाया, ये धर्माें में लिखा है कि सब देवी-देव, फरिश्तों से ईश्वर ने कहा, आओ और इन्सान के इस बुत को, शरीर को नमस्कार-सजदा करो।
जब उन फरिश्तों ने, देवी-देवताओं ने पूछा कि हे ईश्वर! हम इसे सजदा क्यों करें, नमस्कार क्यों करें, इसमें ऐसा क्या है जो हम में नहीं है? तो मालिक ने ये वचन फरमाए कि इस शरीर में जो भी जीवात्मा जाएगी अगर शरीर में रहते हुए वो मेरी भक्ति (भगवान की भक्ति) इबादत करेगी तो उस मृत्युलोक में रहते हुए भी मैं इस शरीर को अपने दर्शन-दीदार दूंगा और आवागमन से मोक्ष-मुक्ति के लिए कोई शरीर है तो वो सिर्फ इन्सान का है। जब ये बात देवाताओं ने, फरिश्तों ने सुनी तो उन्होंने इस शरीर को सजदा-नमस्कार भी किया और वो इस शरीर के लिए वो तड़पते भी हैं।
एक जगह श्री त्रिलोकीनाथ कृष्ण जी जब अर्जुन को समझा रहे होते हैं, कि देवी-देवताओं को भी जन्म-मरण में जाना पड़ता है। मोक्ष-मुक्ति के लिए अगर उनके पास रास्ता होता तो वो जन्म-मरण में क्यों जाते? क्योंकि वैसे तो वो समझदार कहलाते हैं। देव अच्छे कर्म करते हैं, उनकी ड्यूटी जो लगाई गई उन पर अमल करते हैं, इसलिए वो ‘देव’ कहलाते हैं। जो इन्सान बुराई से जुड़ जाता है वो राक्षस कहलाला है।
कई सज्जन फिर भी डरते हैं। देवता मेरा कुछ बिगाड़ न दें। अगर मैंने उसकी मन्नत करनी छोड़ दी, उसे मानना छोड़ दिया तो मेरे घर को बर्बाद न कर दें। अरे भोले इन्सानों! अगर देवता किसी का बुरा करेगा तो वो देवता कैसे कहलाएगा, क्योंकि बुरा करने वाले को तो राक्षस कहते हैं। आपको यही समझ नहीं आती। भक्ति उनकी करो, न करो पर काल के दायरे में उनकी जो ड्यूटी लगी हुई है उस कार्य को उन्होंने करते चले जाना है।
तो आप उस दयाल की भक्ति कर सकते हैं, ईश्वर की भक्ति करके सब झंझटों से आजाद हो सकते हैं अगर आप भक्ति नहीं करते तो इसमें दोष आपका है न कि भगवान का। भगवान ने इन्सान बनाए, आत्माओं को यहां भेजा, अपनी मौज खुशी में इन्सान का शरीर आवागमन से निकालने के लिए, मुक्ति-मोक्ष के लिए बनाया। फकीरों को इन्सान को जगाने के लिए भेजा फिर भी आप नहीं जागते, फिर भी आप नहीं मानते तो सन्त-फकीरों का या मालिक का क्या दोष? आपका न मानना ही दोष है, अमल न करना ही दोष है।
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आगे भजन में आया है:-
बुरा कर्म नरक ले जाता है,
नरकों में कष्ट उठाता है।
फिर रोता और पछताता है,
गया समय हाथ न आता है।
जीवात्मा, यह रूह अगर बुरे कर्म करेगी तो नरक में जाएगी। पर बुरे कर्माें की वजह से जीते-जी नरक पता नहीं कितने बार भोगना पड़ता है। अगर आप बुरी सोच सोचते हैं, आपको परेशानी आएगी, बिना वजह का भय, डर सताएगा। बुरे कर्म करते हो तो जीना दूभर हो जाएगा। चाहे आप जी रहे हैं पर एक मशीन की तरह, एक भार, बोझ बनकर जिन्दगी गुजर रही है। तो बुरा सोचो ही ना, बुरा कर्म न करो। ये अपने वश में है। जब भी बुरा ख्याल आए, बुरी सोच आए सुमिरन करो, नाम जपो तो वो जड़ से खत्म हो जाएगा। अगर फिर बुरा विचार उभरता है फिर सुमिरन कीजिए, फिर मालिक को याद कीजिए, उसका असर खत्म होगा। पर आप मानते नहीं।
बुरे विचार आपके अन्दर जो उठते हैं उन्हें अन्दर ही अन्दर मन सोच-सोच कर उसे तूफान बना देता है, पहाड़ बना देता है। बात कुछ भी नहीं होती और आप बहुत परेशान हो जाते हैं। बहुत से लोगों को हमने देखा है, बहुत से लोगों की चिट्ठियां तक आती हैं कि गुरु जी! हम अपने विचारों से बहुत परेशान हैं, बहुत मुश्किल में हैं। कई बार इतनी परेशानी में आ जाते हैं कि आत्महत्या करने का सोचने लगते हैं। क्या आत्महत्या किसी चीज का हल है? सवाल ही पैदा नहीं होता। यहां थोड़ा दु:ख है, वहां लाखों गुणा बढ़कर आएगा, अगर आत्महत्या की जाती है।
‘आत्मघाती-महापापी’। सन्तों की डिक्शनरी में, रूहानियत के दायरे में आत्महत्या से बढ़कर अवगुण या पाप कोई और माना ही नहीं गया। ये किसी चीज का हल नहीं है। आप क्यों सोचते हैं कि आपकी घरेलु परेशानियां, आपके मन की सोच किसी चीज में असफल है। आप कोई परेशानी, कोई ऐसी सोच जो आप कर बैठे हैं, करना नहीं चाहते थे तो उसका हल आत्महत्या नहीं है। उसका हल ईश्वर का नाम, सच्ची लगन से जपो, मालिक के सामने सच्चे दिल से तौबा करो कि हे ईश्वर! हे मालिक! मैं आगे ऐसा कर्म नहीं करूंगा, उसका सुमिरन करो और वो दया का सागर है, वो आदमी की तरह नहीं है जो पेट में किसी के लिए पाप रखेगा। अगर उससे रहमत की भीख मागोंगे, दया-मेहर मांगोगे तो वो जरूर माफ कर देता है। इसका हल यही है, कोई और हल नहीं है।
गुनाह, गलती इन्सानों से होती है, भगवान से नहीं। पर गलती करके मान ले उसे इन्सान कहते हैं। गलती हो गई उसे अन्दर से तड़प कर सुमिरन करके तौबा करे उसकी भक्ति इबादत करके तौबा करे। हे खुदावंद! हे अल्लाह! हे राम, हे वाहेगुरु ! दया कर, रहमत कर मुझे माफ करना, क्षमा करना, मैं आगे से ये गलती नहीं करूंगा। फिर सुमिरन कीजिए, उसकी याद में बैठिए, मन लगाओगे तो मालिक आप पर रहमत करेगा और आपको माफी, क्षमा-दान जरूर मिलेगा।
आगे आया है:-
माया पीछे पाप कमाए जी,
माया अंत साथ न जाए जी।
सजा पापों की मिल जाए जी,
फंस माया में नाम भुलाए जी।
इस कलयुग का दीन, ईमान, मजहब, प्यार-मोहब्बत अगर कोई चीज है, जो हमने आजमाई है और आजमा रहे हैं, सौ प्रतिशत आपको सच कहते हैं, कोई रिश्ता-नाता किसी को तभी प्यारा लगता है अगर उसके पास माया है। माया दीन-ईमान मजहब धर्म बन गया है। इस कलयुग का माया ही प्यार बन गया है। माया के कारण रिश्तों में प्यार है, माया नहीं तो कोई किसी का यार नहीं। इस माया के लिए लोगों को तड़पते, रोते, चिल्लाते, पागल होते देखा है। संत-फकीर आज से ही नहीं, सैकड़ों सालों से समझा रहे हैं कि ये दौलत, पैसा किसी का यार नहीं है।
न ये किसी का यार बना और न किसी का बनेगा। ये परछाई है जिसे कोई पकड़ नहीं पाया। आज तक तो पकड़ नहीं पाया। पर फिर भी सन्तों के वचन मानने वाले कम हंै और न मानने वाले अधिक। कहते हैं, भक्ति तो अपनी जगह है पर माया के बिना बात नहीं बनती, माया के बिना प्यार पैदा नहीं होता। संत-फकीर कितना भी उडेल दें, मालिक की कितनी भी रहमत कर दें पर माया के लोभी-लालची इन्सान इतने अन्धे हो जाते हैं कि उनको प्यार की कोई कदर कीमत नहीं रहती। उनके लिए तो माया दीन-ईमान, मजहब बन गई।
भाई! माया का आखिर नतीजा क्या है? क्या हो जाएगा अगर आप अरबोंपति हो जाएंगे? क्या आप से पहले अरबोंपति नहीं हुए? आप बनकर कौन सा तीर मार देंगे? आपको क्या मिल जाएगा? कार मिल जाएगी और कार से एक्सीडैंट हो गया, मौत हो गई तो फिर रोते रहोगे। आपने भगवान को छोड़ना ही नहीं, क्योंकि पहले इस बात के लिए नहीं छोड़ना कि मालिक ने मुझे दिया क्यों नहीं, बाद में इसलिए नहीं छोड़ना कि उसने कार क्यों दी, न होती तो एक्सीडैंट न होता। आपका क्या है, दोगले इन्सान हैं। बिन पैंदे के लोटे हैं, पता नहीं किधर को लुढ़क जाना है जो माया के यार हैं। बुरा मत मानिए, करारी बातें कभी-कभी कहनी पड़ती हैं, जब माहौल ही ऐसा होता है, समय ही ऐसा होता है।
मालिक की रजा में रहना तो इन्सान सीखता ही नहीं। ये तो हम देख चुके हैं। बहुत ऐसे भी हैं जो रजा में रहते हैं और हम तो अपने सच्चे मुर्शिद के वचन सुनाते हैं:- ‘रजा में राजी सो मर्द गाजी।’
जो बेपरवाह शाह सतनाम सिंह जी महाराज मुर्शिदे-क ामिल की रजा में, भाणा मानता है, वही सच्चा बहादुर, भक्त, मालिक को याद करने वाला है। पर भाणा मानने वाले बहुत कम हैं। ये नहीं कह सकते कि नहीं हैं। लाखों हैं पर वो कभी शोर नहीं मचाया करते कि हम भाणा मानते हैं, वो दु:खआए, सुख आए मालिक की याद में रहते हैं कि मालिक तेरी मर्जी है जैसा तू रखे जिस तरह भी तू रखे उसी में फायदा है। पर कई इतने उतावले होते हैं कि वो मालिक की परवाह तक नहीं करते। वो सोचते हैं मालिक हमारा गुलाम है। जैसे अल्लादीन का चिराग है उसे घिस लेते थे। कहते हैं, उसमें से जिन्न निकल आता था (बच्चों की कहानी में सुनने में आया है। वैसे सच है या नहीं ये अल्लाह जाने) और उस जिन्न को, जिसके पास वो चिराग होता था, वो जो भी हुक्म देता था वो जिन्न उसे पूरा कर देता था।
आज वाले भी उस चिराग की खोज में हैं। कहीं वो अल्लादीन का चिराग मिल जाए और घिस-घिस कर क्या होगा वो अकेला ही रह जाएगा, सारी दुनिया को मार देगा। तू मेरे सामने अकड़ा! जिन्न महोदय, रगड़ दो उसको। फलां देश को रगड़ दे। आज वाला तो शायद अकेला ही रह जाए बाकी तो कोई बचेगा ही नहीं। पहला काम यही करेगा कि मेरी ही हुकूमत हो बाकी बातें बाद में देखेंगे। शुक्र है कि वो जिन्न मिल नहीं रहा और न ही मिलेगा। सुनने को अच्छा लगता है ऐसा होता कुछ नहीं है। तो भाई! आज इन्सान ऐसा ही सोचता है कि भगवान, अल्लाह, राम जो है वो जिन्न का काम करे, उसको प्रकट कर लूं और फिर सारे कपड़े धुलाऊं, वो कराऊं, फलां कर्म इत्यादि।
भक्ति न करनी पड़े, उसकी याद में न बैठना पड़े,वचन न मानने पड़ें और माया के यार बनकर तमन्नाएं, इच्छाएं इतनी बढ़ा लेनी कि फिर उससे बाहर नहीं आता, दु:खी होता रहता है। तो ये माया सब को तिगड़ी-नाच नचा रही है। कोई सुख नहीं है। माया, पाप जुल्म से जल्दी बढ़ती है पर जितनी जल्दी बढ़ती है उतनी जल्दी घर से सुख-शान्ति, आपस का प्यार, मोहब्बत, तन्दुरुस्ती गायब होते चले जाते हैं। अरे! मेहनत की थोड़ी मिल जाए, खाने को रोटी मिल जाए और क्या चाहिए, कार है हवा में उड़ार चाहिए, हवा में उड़ार है चन्द्रमा में एक प्लाट चाहिए। तमन्नाएं भरती नहीं हैं। ऊपर ही ऊपर, ऊपर ही ऊपर ये तो बढ़ती चली जाती हैं। जबकि सन्तों ने कहा है कि कभी ध्यान भी कर लिया कर अल्लाह, राम, वाहेगुरु की याद में। ऊपर जा, उसकी भक्ति-इबादत में जा वो ही सुख देगा। माया जितनी मर्जी कमा लो न किसी को सुखी कर सकी है न किसी को आत्मिक-शान्ति दे सकी है और न दे सकेगी।
भाई! माया के इतने गुलाम मत बनो कि आपका चैन, शान्ति सब कुछ छिन जाए और आप तड़पते रहें। अरे! माया किसी का हमेशा साथ नहीं देती। ये तो एक छाया है। रावण के पास स्वयं का महल सोने का ही नहीं था, बल्कि उसके नौकर, जनता जहां रहती थी वो भी सोने की थी, सारी लंका सोने की थी। पर उसे भी संतोष नहीं आया। कभी कुछ किया, कभी कुछ किया। कभी किसी को मारा, कभी किसी को काटा और इकट्ठा करने के लिए, और करते-करते मर गया, सब कुछ खत्म कर गया। क्या माया साथ गई? नहीं गई। तो फिर आप किस खेत की मूली हैं।
जिसने इतना बनाया वो नहीं ले जा सका। परन्तु आप 10-20 लाख लेकर व दस-पंद्रह तोले या किलो सोना है तो कदम अकड़-अकड़ कर रखते हो। गर्दन भी नीचे नहीं करते। कहते आदमी तो मैं ही हंू बाकी के कीड़े-मकौडेÞ हैं। अरे भाई! सोचा करो, इतना अहंकार ठीक नहीं है। आपको बताया, ये माया किसी की यार नहीं है। आम इंसान अपनी औलाद के लिए, बेटे के लिए बच्चे के लिए, भाई के लिए, मां के लिए, बाप के लिए, पाप-जुल्म तक भी करते हैं। ये देखा गया। तो भाई! मेहनत की कमाई से रोकते नहीं।
पर वैसे माया के यार बनोगे, हम कोई किसी को श्राप नहीं देते पर सन्तों के वचन हैं कि ये माया किसी को चैन नहीं लेने देती, ये सच है। चाहे कड़वा लगे, चाहे मीठा लगे सच तो सच ही रहेगा। वो झूठ नहीं हो सकता। तो इसका मतलब यह भी नहीं कि आप माया के जाल में फंसे ही रहो, कि हां जी, सन्तों ने कहा है माया के जाल में फंसे हैं तो फंसे रहो। नहीं! यहां बताने का इतना मतलब है जब ये दु:ख देती है, परेशान करती है तो इसी को जिन्दगी का उद्देश्य, लक्ष्य न बनाओ। आत्मिक शान्ति के लिए जीओ, आत्म-बल के लिए जीओ और अणख-गैरत के लिए जीओ, भले-नेक कर्म करने के लिए
जीओ ताकि दोनों जहान में नाम रोशन हो जाए। अरे! माया के लिए जीओगे और पाप जुल्म से कमाते हो तो यहां भी बदनाम और आगे भी नरकों में मुंह काला होता है। मेहनत की करते हो, तो यहां भी मालिक की याद आती है और आगे भी मालिक की याद की वजह से आत्मा आवागमन से आजाद होती है।
माया के बारे में लिखा है:-
माया पीछे पाप कमाए जी,
माया अन्त साथ ना जाए जी।
सजा पापों की मिल जाए जी,
फंस माया में नाम भुलाए जी।।
मालिक के नाम से, मालिक के प्यार-मोहब्बत से कोई दूर करता है तो ये माया रानी करती है। ये रानी बन जाती है और इन्सान को गुलाम बना लेती है। मालिक का प्यार, उसके परोपकार सब भुला देती है। इसका नशा ही जालिम है। इंसान को होश ही नहीं रहती। नसें फटने वाली हो जाती हैं। पर ये सोच कर आप इसके पीछे लगे रहो ये भी गलत है। इसकी भयानकता कम की जा सकती है। माया से पीछा छूट सकता है अगर सुमिरन करो, मालिक को याद करो। खाने को मिल रहा है, पहनने को मिल रहा है, अच्छी इज्जत, सम्मान है, और क्या चाहिए? पर माया के यारों को ये ख्याल में नहीं आता। वो तो गुलाम हैं चाहे सब कुछ मिले फिजूल लगता है।
जो नहीं मिला उसके लिए तड़पता, रोना, पगलाए रहना ऐसे लोगों को हमने देखा है। इंसान माया का गुलाम होकर ईश्वर को भूल जाता है, फिर सजा मिलती रहती है। हम हाथ जोड़ कर गुजारिश करते हैं कि ऐसा न कीजिए। इतने माया के गुलाम मत बनो, इतने अन्धे मत बनो कि आप चैन, आत्मिक शान्ति खो जाएं और तड़पने लगें। मान लेते हैं कि माया फिर आ जाएगी। फिर भी आपका ये तड़पना, बेचैनी खत्म नहीं होगी, क्योंकि माया का नशा ही ऐसा है। इसका काम ही
तड़पाना है। आज सौ मिलता है आप कहते हैं दो सौ क्यों नहीं मिलता? वो भी मिल जाएगा, उसकी खुशी दस दिन की होगी चाहे आजमा कर देख लो, तीन सौ रोज का क्यों नहीं मिलता इसका दु:ख शुरू हो जाएगा।
इसकी बेचैनियों से निकलना चाहते हो तो मालिक के नाम को मत भुलाओ, परमात्मा की याद को मत भुलाओ, क्योंकि वो ही सच्चा सुख, सन्तोष, आत्मिक सन्तुष्टि देता है, वरन् कुछ भी करते रहो। भाई! हम तो आपके सेवादार हैं। हम तो आवाज देते रहेंगे, देते थे, मानो न मानो आपकी मर्जी है। थोड़ा सा भजन और रह रहा है, फिर से बताएंगे,
चलिए भाई:-
5. पुण्य पाप जीव जो करता है,
फल नरक स्वर्ग में भरता है।
कभी जन्म लिया, कभी मरता है,
बचे काल से नाम सिमरता है। जो जी….
6. डूब सागर में कई मरते हैं,
बिन मांझी के जो तरते हैं।
जो नाम जहाज पे चढ़ते हैं,
वो भवसागर को तरते हैं। जो जी….
7. ‘शाह सतनाम जी’ का समझाना जी,
बिन नाम चौरासी जाना जी।
नाम जप कर सचखण्ड जाना जी,
चक्कर जन्म-मरण का मुकाना जी।
जो जी…।।
भजन के आखिर में आया है:-
पुण्य-पाप दो कर्म हैं। भले कर्म करना, अच्छे कर्म करना इन्सानियत की मिसाल देना, उसे पुण्य कहा जाता है। इन्सानों को तड़पाना, खून चूसना, जीव-जन्तुओं को मारना अपने इन्सानी जीवन से हट कर चलना, बुराई में सोचते रहना, खोए रहना उसे बुरे कर्म या पाप-कर्म कहा जाता है। इनका फल क्या है? पुण्य किए स्वर्ग में और पाप किए नरक में जाता है, पर यह नहीं कि वहां जीवात्मा पक्का अड्डा लगा लेगी। जितना समय अच्छे कर्माें का है स्वर्ग में भोगना है, बुरे कर्माें का है वो नरक में भोगना है। पर उसके बाद आत्मा को जन्म-मरण में जाना होगा। सन्तों के नजरिए से देखें तो आत्मा को ये हथकड़ियां है। एक सोने की हथकड़ी है और एक लोहे की है। इनका काम तो कैद करने का ही है। चाहे पुण्य कर लो चाहे पाप, आत्मा तो आवागमन में कैद ही रहेगी।
इन कर्माें से उसे मोक्ष-मुक्ति नहीं मिलती। सर्वश्रेष्ठ कर्म यानि प्रभु का नाम जपा जाए और पुण्य कर्म किए जाएं। पुण्य कर्म से ही यहां जीते-जी जिन्दगी स्वर्ग से बढ़ कर गुजरेगी और मालिक के नाम से आत्मा स्वर्ग-नरक में नहीं जाएगी। वो आवागमन से मोक्ष-मुक्ति हासिल करते हुए निजधाम, सचखण्ड, सतलोक, अनामी में जाएगी। इसलिए केवल कर्म करने से बात नहीं बनती, बल्कि सर्वश्रेष्ठ कर्म परमात्मा का नाम, ईश्वर को याद करना भी सबसे जरूरी है।
इस बारे में लिखा है:-
काल सबसे किए कर्माें का हिसाब मांगता है और उनकी सजा देता है। जप, तप, संयम, पढ़ना, लिखना और त्रैगुण सब काल के दायरे में हैं। इनमें से निकलने का उपाय केवल नाम अर्थात् शब्द धुन की कमाई और सतगुरु की शरण है। जिनके ऊंचे भाग्य हैं वो ही सतगुरु की शरण लेकर काल के दायरे से निकल पाते हैं।
डूब सागर में कई मरते हैं,
बिन मांझी के जो तरते हैं।
जो नाम जहाज पे चढ़ते हैं,
वो भवसागर को तरते हैं।
सागर, कई तरह से माना जा सकता है, संसार को भी सागर कहा गया, भय सागर है और चौरासी लाख जीआ-जून को भी सागर कह सकते हैं। इन्सान इनमें डूबता रहता है। जीवात्मा बाहर आती है, फिर शरीरों में गई, फिर उनसे आजाद हो गई। तो कभी डूब गया तो कभी बाहर आ गया। तो ये जीवात्मा उसमें भी चलती रहती है। इस संसार सागर में यानि जीवन के सफर में, इन्सान का जो जीवन-सफर है, जिन्दगी की अवधि है इसे भी अगर सागर मानों तो बिल्कुल सही है। इसमें से अगर आत्मा रूपी नैया पार लंघाना चाहते हैं तो यहां भी सुख-शान्ति हो, आत्म-बल हो, आत्मिक-शान्ति, सन्तुष्टि हो। इतना कुछ हो तो वो सारी दुनिया के राजा से भी सुखी है।
जिसके पास आत्म-बल है, आत्मिक शान्ति है और सन्तुष्टि है उससे सुखी कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। चाहे वो गरीब ही क्यों न हो, क्योंकि अरबोंपतियों के अन्दर भी सन्तुष्टि नहीं है तो वो भी तड़पते रहते हैं। तो भाई! ये सब सम्भव है अगर ईश्वर को याद किया जाए, मालिक का नाम लिया जाए। पर ‘डूब सागर में कई मरते हैं, बिन मांझी के जो तरते हंै।’
सच्चा गुरु मांझी बनता है। वो सच्ची बात बताता है, सच्चा ज्ञान समझाता है। न उसको पैसे का लालच, न जमीन-जायदाद का, न शारीरिक स्वार्थ, न नोटों आदि की लालसा। वो तो सच्ची पाक-पवित्र बात समझाता है और कहता है कि भाई! ये है वो रास्ता जिस पर चल कर तू संसार-सागर से, भय-सागर से पार हो सकता है। तेरी जिन्दगी रूपी नैया डगमगाएगी नहीं, जिन्दगी के सफर में तू घबराएगा नहीं, चिन्ता से आजाद रहेगा और मालिक को पा सकता है। तो वो नाम बताते हैं। तो भाई! उसकी भक्ति, इबादत में संत-फकीर लगाते हैं और जो भक्ति करते हैं अमल कर लेते हैं वो भवसागर को पार कर जाते हैं। वो आवागमन से पार हो जाते हैं, आवागमन खत्म कर जाते हैं।
इस बारे में लिखा है:-
केवल नाम ही एक रास्ता है जो कि हमें अपने निज मुकाम में पहुंचा सकता है। ये एक ऐसा जहाज है जो भवसागर से पार उतारा कर जीव को मालिक की गोद में ले जाने का जरिया है। भजन के आखिर में सच्चे मुर्शिद-कामिल शाह सतनाम जी महाराज फरमाते हैं:-
‘शाह सतनाम जी’ का समझाना जी,
बिन नाम चौरासी जाना जी।
नाम जप कर सचखण्ड जाना जी,
चक्कर जन्म-मरण का मुकाना जी।
बेपरवाह जी ने फरमाया कि नाम अगर नहीं जपोगे तो जन्म-मरण से आजादी
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