तू चौथे डब्बे विच्च जा के बैठ जा -सत्संगियों के अनुभव
पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की दया-मेहर
प्रेमी प्रगट सिंह पुत्र सचखण्डवासी नायब सिंह गांव नटार जिला सरसा (हरियाणा) से परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की अपार रहमत का वर्णन करता है:-
अगस्त 1990 की बात है। मैंने कोलकात्ता से सरसा आना था। मुझे मेरा एक संबंधी लड़का हावड़ा रेलवे स्टेशन पर छोड़ने आया। मैं रेल गाड़ी में सबसे पिछले डिब्बे में बैठ गया, जिसमें केवल फौजी बैठे हुए थे। मेरा संबंधी मुझे कहने लगा कि आप इस डिब्बे में न बैठो क्योंकि यह तो फौजियों का स्पैशल डिब्बा है। ये तुम्हें बार-बार अडैंटीकार्ड पूछेंगे। मैंने उसकी बात अनसुनी सी कर दी। मैंने सोचा कि इस डिब्बे में किसी तरह का खतरा नहीं है। जब गाड़ी चलने में इस कुछ मिन्ट शेष थे तो एक बुजुर्ग जिसके कि फौजी वर्दी पहनी हुई थी, मुझे कहने लगा कि काका! तू इस डब्बे में ना बैठ। मैंने उसको कहा कि बाबा जी, तुम्हें सीट चाहिए। मैंने थोड़ा-सा एक तरफ सरकते हुए उसे कहा कि बाबा जी, आप भी बैठो।
बाबा जी कहने लगे कि मैंने सीट का क्या करना है। मैं तो तेरे भले खातिर कहता हूं कि तू चौथे डब्बे विच्च जा के बैठ जा। बाबा जी ने आगे कहा कि मैं तुझे सलीपर दिला देता हूं। तू मेरे साथ चल। मैं सीट से उठ खड़ा हुआ। मैं उस बुजुर्ग बाबा के पीछे-पीछे चौथे डिब्बे में पहुंच गया। मुझे बहुत बढ़िया सीट मिल गई। इतने में गाड़ी चल पड़ी। बुजुर्ग चलती गाड़ी से नीचे उतर गया। मैं अच्छी तरह उसका चेहरा भी ना देख सका था।
मुझे इस बात की समझ नहीं आ रही थी कि उस बुजुर्ग ने मुझे सीट क्यों दिलाई। उसने मुझे उस डिब्बे में से क्यों उतारा? आखिर वह कौन था? मैं गाड़ी में लेट गया तथा मुझे नींद आ गई। अर्द्ध निद्रा की अवस्था में मुझे मेरे प्यारे सतगुरु कुल मालिक परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने दर्शन दिए और अशीर्वाद भी दिया। परम पिता जी के दर्शन करके मुझे बेइन्तहा खुशी मिली। गाड़ी को चलते हुए करीब बारह घण्टे हो चुके थे। अचानक एकदम हाहाकार मच गई और गाड़ी रुक गई। जिस डिब्बे में मैं बैठा था, उससे पीछे वाले सारे डिब्बे उल्ट गए थे।
मैं उतर कर फौजियों वाले सबसे पिछले डिब्बे के पास गया तो देखा कि वह डिब्बा उल्ट कर खत्तानों में गिरा पड़ा था। कई फौजी मौके पर ही दम तोड़ गए थे, कई तड़प रहे थे। चीखना-चिल्लाना पड़ा हुआ था। उस डिब्बे में कोई भी ऐसा नहीं था जिसके चोट न आई हो। उस वक्त तक मुझे समझ आ गई थी कि मेरे सतगुरु परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ही फौजी का रूप धार कर आए थे और उन्होंने ही फरमाया था, ‘चौथे डब्बे विच्च जा के बैठ जा।’ जब कभी मुझे उक्त दर्दनाक दृश्य याद आ जाता है तो मेरा लूं-लूं कांपने लगता है। इतने दयालु सतगुरु के उपकारों का बदला चुकाया ही नहीं जा सकता। बस धन्य-धन्य ही कहा जा सकता है।