अरदास तुरंत मंजूर हुई -सत्संगियों के अनुभव पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने की अपार रहमत
जी.एस.एम. सेवादार निर्मल सिंह इन्सां सुपुत्र श्री बंत सिंह जी गांव शाह सतनाम जी पुरा जिला सरसा से पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की अपने पर हुई रहमतों का वर्णन करता है:-
सन् 1970 की बात है, मेरे पैतृक गांव महमा सवाई जिला भटिंडा (पंजाब) के नजदीक गांव महमा सरजा में पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज का सत्संग था। उस सत्संग पर मेरे रिश्तेदार नछतर सिंह गांव नसीबपुरा वाले मुझे अपने साथ ले गए। जब मैंने सत्संग में विराजमान पूजनीय परमपिता जी के पहली बार दर्शन किए तो मुझे बहुत ही सुंदर स्वरूप में दर्शन हुए। परमपिता जी का सब ओर नूर बरस रहा था। मेरा दिल करता था कि देखता ही रहूं! देखता ही रहूं! मुझे पहले सत्संग पर ही मालिक सतगुरु का प्रेम लग गया और उसी सत्संग पर मालिक ने कृपा करके मुझे नाम की दात भी बख्श दी। हालांकि मेरे गांव में प्रेमी (नाम-शब्द लिए हुए सत्संगी) तब कम ही थे, परंतु उस समय हमारे गांव में नामचर्चा होती थी। मैं अपने घर में से अकेला ही तब नाम-शब्द, मालिक-सतगुरु से जुड़ा हुआ था।
नाम लेने के बाद प्रेमियों के बिना सारा गांव तथा मेरा अपना परिवार भी मेरे विरूद्ध हो गया। तब हमारा सांझा परिवार था। मुझे सत्संग पर जाने की भी आज्ञा नहीं थी। मेरे परिवार वाले मुझे सत्संग पर जाने के लिए मुझे किराया व खर्चा आदि भी नहीं देते थे, बल्कि उलट-पुलट भी बोलते थे। उन दिनों में मैंने अपने घर पर नामचर्चा रखवा ली। मेरा सारा परिवार मेरे बिलकुल विरुद्ध हो गया कि अपने घर नामचर्चा नहीं होने देंगे।
नामचर्चा में लाऊड स्पीकर भी लगाया गया, जो छत के ऊपर टंगा था। मैं लाऊड स्पीकर का मुंह दूसरी तरफ करने के लिए छत पर चढ़ा। साथ वाले घर की छत की डाटों के फर्मे उसी दिन खोले थे। जिसके चलते छत अभी गीली थी। जब जल्दी-जल्दी में मैंने उस छत पर पांव रखा तो छत पर जोर से टकराया, तो छत की एक डाट टूट कर गिर गई तथा साथ मैं भी नीचे जमीन पर गिर पड़ा। मेरे ऊपर र्इंटें तथा छत का मलबा यानि मिट्टी आदि भी गिर गई। मालिक-सतगुरु की रहमत से मेरे सभी अंग सही-सलामत थे। डाट आदि के इतने भारी मलबे में सतगुरु, पिता जी ने मुझे एक खरोंच तक भी नहीं आने दी। सतगुरु परमपिता जी ने मुझे खुद हाथ देकर रखा।
अपने परिवार के सदस्यों द्वारा सत्संग पर जाने से रोकने के कारण मैंने अपने सतगुरु परम पूजनीय परमपिता जी के आगे अरदास कर दी कि पिता जी, मुझे कोई छोटी-मोटी नौकरी मिल जाए ताकि मैं आजादी से सत्संग पर आ-जा सकूं। मुझे परिवार के सदस्यों से कोई पैसा-पाई न मांगना पड़े। मालिक-सतगुरु की रहमत से मुझे कॉटन कार्पोरेशन आॅफ इंडिया की एक कम्पनी में नौकरी मिल गई। कुछ समय बाद सतगुरु ने ख्याल दिया कि नौकरी भी सरसे के पास हो, तो जब दिल करे अपने मैं गुरु-सतगुरु जी के दर्शन कर आया करूं।
मालिक-सतगुरु ने स्वयं ही रास्ता (विधि) बनाया। मुझे बिजली विभाग का एक अधिकारी मिला। उसके बताए अनुसार मैं बिजली विभाग के एक बड़े अफसर एस.सी. साहिब के सामने पेश हो गया और अपनी फरियाद कर दी। मैंने उन्हें अपना दु:ख सुनाते हुए कहा कि मैं मैट्रिक पास हूं। मुझे वहां नौकरी चाहिए, जहां से मैं आसानी से सरसा वाले संतों के सत्संग में आ-जा सकूं। उसने मेरी फरियाद सुनकर मुझे बिजली विभाग के सरदूलगढ़ दफ्तर में आर्डर देकर भेज दिया। वहां पर मैंने बतौर वर्क चार्ज ज्वाइन कर लिया। पूजनीय सतगुरु जी की रहमत से किराए-भाड़े का झंझट हल हो गया।
अरदास मौके पर ही मंजूर हो गई:-
सन् 1975 की बात है, मैं सरदूलगढ़ से सरसा सत्संग पर आया करता था। एक दिन मेरी रात की ड्यूटी थी, मैंने सोचा कि दिन में ही पूजनीय परमपिता जी के दर्शन कर आऊं। यह सोचकर मैं शाह मस्तान शाह सतनाम जी धाम व मानवता भलाई केन्द्र डेरा सच्चा सौदा (शाह मस्ताना जी धाम) सरसा में दोपहर के समय पहुंच गया। मैं तेरावास के सामने वृक्ष नीचे बैठा था। उस समय दोपहर के करीब 3 बजे थे, मुझे ख्याल आया कि मुझे पिता जी के दर्शन अभी हो जाएं तो मैं समय पर अपनी ड्यूटी पर पहुंच जाऊं। कई बार शाम को कोई साधन नहीं मिलता जिस कारण समय अनुसार ड्यूटी पर पहुंचना मुश्किल हो जाता है।
मैं तेरावास के बाहर बैठे सेवादार भाईयों को मिला तथा विनती की कि मुझे पिता जी के दर्शन करवा दो, क्योंकि मैंने जल्दी वापिस लौटना है। वे कहने लगे कि शाम को पांच बजे मजलिस है, पूजनीय पिताजी उस समय ही मजलिस में आएंगे, बल्कि पांच बजे से कुछ लेट भी हो सकते हैं, उससे पहले आने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। मैंने उन्हें विनती की कि मेरा नाम लेकर पिताजी के पास संदेश भेज दो कि गांव महिमा सवाई से निर्मल आपजी को मिलने आया है, आगे मालिक-सतगुरु की मर्जी। परंतु वे सेवादार नहीं मानें तथा मुझे कहने लगे कि इस तरह नहीं हो सकता। रब्ब बंदे के कहने पर चले तो वह काहे का रब्ब! वह मर्जी का मालिक है।
कुछ मिनटों के बाद मैं नीमों के नीचे रखा पानी पीने लगा तो मेरा ध्यान तेरावास की तरफ गया। मैं क्या देखता हूं कि तेरावास के आंगन का बड़ा दरवाजा खुला। सख्त दोपहरी में पूजनीय परमपिता जी सीधे मेरी तरफ आ रहे हैं। मुझे पश्चाताप होने लगा कि मैंने अपने मालिक, सतगुरु को इतनी गर्मी में आने के लिए मजबूर किया है। एक तरफ सतगुरु के दर्शनों की खुशी तथा दूसरी तरफ परमपिता जी को तकलीफ देने के लिए मैं अपने मन में पश्चाताप करने लगा। मैंने परमपिता जी को सजदा किया। परमपिता जी मेरे पास आकर खड़े हो गए।
सेवादार भाई पूजनीय परमपिता जी के लिए कुर्सी ले आए। शहनशाह जी कुर्सी पर विराजमान हो गए। अचानक परमपिता जी के आने पर सेवादार बहनें, सेवादार भाई तथा कुछ इधर-उधर आराम कर रही साध-संगत भी आ गई। एक अस्सी वर्षीय बुजुर्ग परमपिता जी की पावन हजूरी में खड़ा हो गया तथा वचनों के भंग होने की माफी मांगने लगा। पूजनीय परमपिता जी ने उसे ताड़ना दी कि ‘मन से हमेशा बच कर रहो। यह कभी भी धोखा दे सकता है। मन को कभी भी मौका न दो। सतगुरु की खुशियां वचनों में रहने से ही मिलती हैं।’ पूजनीय परमपिता जी उसको माफ करते हुए और साध-संगत को अपने पावन दर्शनों की खुशियां देकर तेरावास में चले गए।
इस प्रकार सतगुरु जी ने मेरी अरदास मौके पर ही पूरी की। मैं खुशी-खुशी वापिस सरदूलगढ़ अपनी ड्यूटी पर चला गया। सतगुरु जी ने मुझे इतना विश्वास दिलाया कि मैं डेरा सच्चा सौदा दरबार में सेवा करने लगा तथा कुछ समय उपरांत आज्ञा पाकर मैं डेरा सच्चा सौदा में बतौर जीएसएम सेवादार की सेवा करने लगा और आज भी हुक्मानुसार तन-मन-धन से सेवा कर रहा हूं। मेरी पूज्य मौजूदा गुरु हजूर पिता संत डॉ गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां के पावन चरणों में यही अरदास है कि सेवा-सुमिरन करते-करते ही मेरी ओड़ निभा देना जी।