Responsible Daughter-in-law

जिम्मेदार बहू बेटी ही अच्छी लगती हैं Responsible Daughter-in-law

आज की युवा पीढ़ी में बहुत-सी ऐसी लड़कियाँ अपने आस-पड़ोस में मिल जाती हैं जो स्वार्थवश केवल अपने ही विषय में सोचती हैं। उनका विचार है कि उन्हें अच्छी नौकरी क्या मिल गई, वे सारी दुनिया पर अहसान कर रही हैं जबकि उनकी यह सोच या भावना बिलकुल गलत है। वे कमाती हैं तो अपने लिए। घर के अन्य सदस्यों को उनकी कमाई से कुछ भी लेना देना नहीं होता। न ही वे अपनी कमाई का कुछ हिस्सा अपने घर में खर्च करना चाहती हैं।

अपने इसी अहं में रहने वाली ये लड़कियाँ घर के कामकाज में हाथ बटाना अपनी हेठी समझती हैं। अपने माता-पिता के घर में तो वे अपनी हेकड़ी में रहती हैं। माता के अस्वस्थ होने की स्थिति में भी वे रौब चलाती हैं। खाना चाहे बाजार से आए या माँ बिचारी बीमारी में उठकर बनाए, उन्हें अपनी मौज-मस्ती से फुर्सत नहीं होती। माता-पिता बेचारे सोचते हैं कि कुछ दिन बाद बेटी की शादी हो जाएगी और वह अपनी ससुराल चली जाएगी। वहाँ जाकर स्वयं काम करने लगेगी।

अफसोस, उनकी यह धारणा धरी की धरी रह जाती है। उनकी बेटी के लक्षण ससुराल में जाकर भी गुल ही खिलाते हैं। वहाँ प्रात: देर से सोकर उठना, टेबल पर सब कुछ हाजिर हो जाए वाली उनकी पुरानी प्रवृत्ति बनी रहती है। छुट्टी वाले दिन भी उनकी दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं होता, जो अधिक कष्टप्रद होता है। बहू बेटियों के घर में होते हुए बाजार से सारा समय मँगवाकर भी तो नहीं खाया जा सकता।

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Responsible Daughter-in-lawघर में क्लेश न हो, यह सोचकर सास-ससुर चुप रह जाते हैं। पर यह स्थिति कब तक चल सकती है? आखिर बुजुर्ग हो रही सासू माँ को भी थोड़ी सहायता की, थोड़े आराम की आवश्यकता होती है। ये लड़कियाँ पता नहीं किस मिट्टी की बनी होगी हैं कि इन्हें बजुर्गों को काम करते हुए देखकर भी जरा शर्म नहीं आती। ये बस अपना आराम ही देखती हैं। इन्हें अपने अधिकारों का ज्ञान तो बहुत होता है पर वे अपने कर्तव्य भूल जाती हैं।

ऐसी बेटियों का वैवाहिक जीवन सुखमय कदापि नहीं हो सकता। सामने कोई कुछ नहीं बोलेगा, पर पीछे तो वे बात करते ही हैं। उनके घर आने वाले मेहमान भी उनके व्यवहार से दुखी होकर जाते हैं। माता ने लाड़ करने के साथ-साथ यदि बेटी को संस्कारी बनाया होता और घर का काम-काज सिखाया होता, तो उनकी बेटी के व्यवहार से उसके ससुराल वालों को उस प्रकार का कष्ट न झेलना पड़ता। न ही वे परेशान होते।

समस्या तब और उलझ जाती है, जब सासू माँ अस्वस्थ हो जाती हैं और घर का कोई कार्य नहीं कर पाती। इसके अतिरिक्त घर का कोई सदस्य इतना अधिक अस्वस्थ हो जाता है और उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ जाता है। इस समय भी यदि घर की बहू न चेते तो घर बिखरने के कगार पर आ जाता है। कोई भी सदस्य घर के शोकेस में सजाकर रखने वाली बहू की कामना नहीं करता।

आजकल पुराने जमाने की तरह चूल्हा-चक्की का काम घर में नहीं होता। और न ही गाँवों की तरह शहरों में मेहनत के काम होते हैं। घरों में प्राय: सफाई, बर्तन और डस्टिंग के लिए कामवाली होती ही है। कपड़े धोने के लिए फूली आटोमेटिक मशीन होती है। धोबी कपड़े प्रेस करने के लिए होते हैं। कई घरों में तो सब्जी भी कामवाली से कटवा ली जाती है। काम जो शेष बचता है, वह सिर्फ नाश्ता और खाना बनाने का होता है। इतना काम तो एक बहू को अपने घर में करना ही चाहिए।

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सबको बहू-बेटी वही अच्छी लगती है, जो ससुराल को अपना घर समझे। सास और ससुर को अपने माता और पिता के समान समझे। ननद और देवर को अपनी बहन व भाई समझे। घर के प्रति अपने दायित्व को समझकर, तदनुसार व्यवहार करे। बड़ों का यथोचित सम्मान करे और छोटों से प्यार करे। एक आयु के पश्चात बुजुर्ग हो रही सासू माँ को आराम देने वाली बहू-बेटी सर्वत्र प्रशंसा का पात्र बनती है। शिक्षित होना और नौकरी करना स्त्री की व्यक्तिगत इच्छा है। घर को एकसूत्र में पिरोने की उसकी कला ही उसकी सुघड़ता का प्रमाण होता है। -चन्द्र प्रभा सूद