पुट्टर उठ! लिपाई वाली मिट्टी बनानी है -सत्संगियों के अनुभव -पूजनीय बेपरवाह सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज का रहमो-करम
प्रेमी सिरी राम उर्फ सूबेदार सुपुत्र सरदार कृपाल सिंह जी गांव घूकांवाली जिला सरसा। प्रेमी जी अपने सतगुरु मुर्शिदे-कामिल बेपरवाह सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज के अपार रहमो-करम का इस प्रकार वर्णन करते हैं।
प्रेमी जी ने लिखित में बताया कि मैंने सन् 1950 में पूज्य सार्इं बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज से नाम-शब्द की दात प्राप्त की थी और वचनानुसार उसी दिन से ही दिन-रात सुमिरन किया करता था। सतगुरु जी की दया-मेहर से पूज्य सार्इं जी के नूरी स्वरूप के दर्शन भी निरंतर होते रहते। मैंने कई बार देखा और महसूस भी किया कि मैं जो भी अपने दिल में सोचता या अचानक कोई बात मेरे ज़हन में उठती, सतगुरु जी मेरी वो बात, मेरी वो इच्छा अवश्य पूरी कर दिया करते। पूजनीय परम पिता दाता रहबर शाह सतनाम सिंह जी महाराज के वचन कि ‘जेहड़ी सोचां ओही मन्न लैंदा, मैं किवें भुल्ल जावां पीर नूं।’
एक दफा मैं और मेरे गांव के एक अन्य प्रेमी श्री हाकम सिंह उर्फ मोहतम साहब अपने पीरो-मुर्शिद के दर्शन करने के लिए गांव डाबड़ा जिला हिसार में गए। पूज्य सार्इं जी उन दिनों वहां पर एक डेरा बनवा रहे थे। वर्णनीय है कि डाबड़ा में भी पूज्य बेपरवाह जी ने सच्चा सौदा नाम से एक डेरा बनवाया था, जो कि बाद में (वचनानुसार ही) गिरा दिया गया था। वहां डेरे में कुछ कमरे बनाए जा रहे थे, तो हम दोनों भी अन्य सेवादारों के साथ वहां सेवा में लग गए। उस दिन पूज्य सार्इं जी ने मुझे दो केले अपने पवित्र कर-कमलों से प्रसाद रूप में दिए। मैंने सार्इं जी का दिया वो प्रसाद यानि दोनों केले समेत छिलके ही खा लिया। पूज्य सार्इं जी ने वचन फरमाया, ‘भाई, संतों की दी हुई चीज़-प्रसाद की इसी तरह से ही कदर होनी चाहिए।’
वहाँ पर उन दिनों रात के बारह बजे तक तो सेवा चलती और उसके बाद दो बजे तक पूज्य सार्इं जी रूहानी मजलिस लगाया करते। लिपाई वाली मिट्टी बनाने वाले सेवादार, जिनकी भी ड्यूटि होती, सुबह तीन बजे उठा करते थे। अगले दिन लिपाई वाली मिट्टी बनाने की ड्यूटि एक किसी अन्य सेवादार के साथ मेरी भी लगा दी गई थी। उस रात सोते वक्त मेरे मन में यह ख्याल आया कि पूज्य सार्इं जी स्वयं आकर उठाएंगे तो ही मैं मिट्टी बनाने की सेवा में लगूंगा, नहीं उठाएंगे तो नहीं बनाऊंगा।
उस रात जिस कोठड़ी में मैं सोया हुआ था, मेरे समेत उसमें कुल इक्कीस प्रेमी (इक्कीस व्यक्ति) थे। कोठड़ी में घुप्प (घोर) अंधेरा था। हम सभी सेवादार-लोग गहरी नींद में सो रहे थे। अचानक पूज्य सार्इं जी इतने गहरे अंधेरे में मेरे सामने ऐन प्रत्यक्ष आकर खड़े हो गए। किसी और को तो शायद पता ही नहीं होगा। अगर भनक पड़ती तो फिर तो सभी उठ जाते। प्यारे दाता जी बोले, ‘पुट्टर! उठ, लिपाई वाली मिट्टी बनानी है।’ मैं उसी समय उठकर कोठड़ी से बाहर आ गया।
उपरान्त शहनशाह प्यारे ने मुझे नसीहत में यह वचन फरमाया, ‘पुट्टर! इस तरह की बात कभी आगे से नहीं करना। तेरे को उठाने के लिए ही गरीब मस्ताना यहाँ आया है।’ मन की इस नादानी और शैतानी के लिए मुझे बहुत शर्मिंदगी आई। मैंने उसी समय पूज्य सार्इं जी से माफी मांगी कि सच्चे पातशाह जी, आगे से ऐसी गलती कभी नहीं करूंगा। सतगुरु-प्यारे की अपार रहमतों का बयान जुबान कर नहीं सकती है और न ही किसी कलम में ताकत है। दाता-प्यारे, तू धन्य है मेरे मालका! जो आप जी जीवों के बड़े-बड़े गुनाह भी ऐसे पल में बख्श देते हैं और उन्हें अपने अपार प्यार व रहमतों से भरपूर कर देते हैं।
































































