समझौता करो,समझ से
साहिर लुधियानवी का एक प्रसिद्ध गीत है – ‘न मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो। गमों का दौर भी आये तो मुस्कुरा के जियो।’ निश्चित रूप से साहिर महान थे।
उनके जैसा व्यक्ति कह रहा है तो बात में दम होगा ही लेकिन अनुभव बताता है कि मुंह तो कोई तब छुपाता है जब वह बेदम हो जाता है वरना हर व्यक्ति हर जगह अपना चेहरा चमकाना चाहता है। सर को शान से लहराना चाहता है। अपनी पहचान को पुष्ट करने के लिए मनुष्य हर संभव प्रयास करता है। ऐसा कुछ नहीं करता या करना चाहता जिससे उसकी पहचान पर ही संकट के बादल मंडराने लगे।
मुंह छुपाने या सिर झुकाने का अर्थ है, अपनी पहचान को छिपाने का प्रयास, अपने होने के अहसास को मिटाने की कोशिश। जिन्हें कभी मुंह छुपाना या सिर झुकाना पड़ा हो वे अच्छी तरह से जानते हैं कि कुछ क्षण भी मुंह छुपाना या सिर झुकाना आसान नहीं है। तिल-तिल मरना पड़ता है लेकिन जब मुँह छुपा या सर न झुका के जीवन जीने का सवाल हो तो बड़े-से-बड़े धैर्य वाले का धीरज जवाब दे जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
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हां, यह जरूर है कि हमें मुँह छुपा कर या सर झुका के जीने की जरूरत ही न पड़े, इसके लिए पर्याप्त श्रम और सावधानी बरतनी चाहिए। कई बार समय पर उधार न चुकाने के कारण मुँह छुपाना पड़ सकता है। गलती पर सर झुकाने की बात तो समझ आती है, कई बार बिना गलती के भी सर झुकाने की नौबत आ जाती है। आप लाख कहो, गला फाड़-फाड़ कर कहो कि आपकी कोई गलती नहीं है परंतु सुनना तो दूर, उल्टा आपको ही पापी, अपराधी साबित करने की होड़ लग जाये तो कब तक सर नहीं झुकाओगे? उन्मादी भीड़ के सामने आपके सत्य की औकात ही क्या है? भीड़ न्याय करने नहीं, दूसरों द्वारा बनाई या बनवाई गई अपनी धारणाओं के नाम पर मनमानी आप पर थोपने के लिए आई हो तो क्या आप उन्हें हितोपदेश सुनायेंगे या न्याय शास्त्र सिखायेंगे?
आप लाख बलवान हों, दो-चार को आप अकेले संभालने की शक्ति, सामर्थ्य रखते हों लेकिन भीड़ के सामने तो भीम भी मोम हो जाते हैं। अभी तो केवल मुँह छुपाने या न सर झुकाने का सवाल है, बहस करने पर मुंह या सर गायब तक किया जा सकता है। अब आप ही बतायें कि मुँह छुपा के या सर झुका के कुछ क्षण काट लेना और उचित समय पर प्रतिकार करना उचित है या साहिर साहिब की बात पर अड़े रहना- ‘न मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो।’
हां, गमों के दौर की बात दूसरी है। गम किसी ‘कम’ का परिणाम होते हैं। आवश्यक धन नहीं। आवश्यक सामर्थ्य नहीं। कुछ है भी तो उसके छिन जाने का भय है। ऐसे में गम सताता है। गम में दिल से कोई मुस्कुरा नहीं सकता। हां, मुस्कुराने का अभिनय जरूर कर सकता है। अपने दिल को समझा सकता है कि ‘घटा में छुपके सितारे फना नहीं होते’ इसलिए कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण की तरह अर्जुन रूपी अपने आत्मविश्वास को जगाते हुए ‘उतिष्ठ भारत!’ का मंत्र फूंकते हुए कहता है, ‘अँधेरी रात में दिये जला के चलो’
इस बात से किसे इंकार होगा कि रोग, शोक, पश्चाताप, बंधन व व्यसन अनेक बार हमारे सामने अत्यन्त अप्रिय स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। तब कुछ क्षण के लिए ‘मुँह छुपाकर या सर झुका कर’ बच निकलने में ही भलाई है। याद है धर्मराज युधिष्ठिर को भी अपने भाई अर्जुन के हाथों अपमानित होकर मौन रहना पड़ा था।
मजेदार यह कि यह समाधान भी उन्हीं श्रीकृष्ण ने बताया था जिन्होंने युद्ध मैदान में कर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को गीता का उपदेश देकर कर्तव्यपथ से विचलित न होने के लिए तैयार किया था क्योंकि युधिष्ठिर द्वारा ‘गाण्डीव’ का अपमान करने पर अर्जुन की उस प्रतीज्ञा का सम्मान करना था जिसके अनुसार ‘गाण्डीव का अपमान करने वाला वधनीय होगा।’ तब श्रीकृष्ण ने बचाव के लिए रास्ता निकाला। ‘मृत्यु और अपमान समान है’ कहते हुए युधिष्ठिर को ‘कुछ क्षण मुँह छुपा के और सर झुका के’ मौन सुनने का विकल्प सुझाया गया, जिसे धर्मराज कहे जाने वाले युधिष्ठिर ने स्वीकार भी किया। शायद यही जिंदगी है और ‘ये जिंदगी किसी मंजिल पे रुक नहीं सकती’।
इसलिए कहना चाहता हूं कि ‘जब ये जिंदगी किसी मंजिल पे रुक नहीं सकती, अर्थात् हर इक मुकाम पे कदम बढ़ा के चलने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं है, इसलिए मेरे मन तू तत्कालिक परिस्थितियों को समझ, समझौता कर। स्वाभिमान को कुछ देर के लिए खूंटी पर टांग और ‘मुँह छुपा के या सर झुका के’ यह मौका टाल दे क्योंकि कभी पीछे न हटने वाला सिंह भी स्वयं को संतुुलित करने के लिए अपना एक कदम पीछे करता है। इसका मतलब यह भी नहीं कि हर क्षण समझौता कर। समझौता उसी तरह करना है जैसे आंधी के सामने एक हरा-भरा पौधा करता है।
तना, टहनियां, पत्तियां सब झूम जाती हैं लेकिन उस पौधे की जड़ कोई समझौता नहीं करती। अगर जड़ समझौता करेगी तो पौधे का अस्तित्व ही संकट में पड़ जायेगा। और हां, अगर पौधा भी आंधी के सामने बिना प्रभावित हुए डटे रहने की हठ तानेगा तो वह भी जड़ सहित उखाड़ दिया जायेगा। तुझे भी उचित समय का इंतजार करना ही होगा। अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहते हुए, बाहरी स्वरूप में झूमना होगा। इसलिए यह बात मन में बैठा ले कि ‘ये जिंदगी किसी मंजिल पे रुक नहीं सकती- हर इक मुकाम पे कदम बढ़ा के चलो!’ -डा. विनोद बब्बर