डेरा सच्चा सौदा के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में जड़ित श्री जलालआणा साहिब गांव का रुतबा बड़ा महान है।
यहां की पावन धरा ने डेरा सच्चा सौदा की दूसरी पातशाही पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की जन्मस्थली होने का गौरव हासिल किया है। पूजनीय सार्इं मस्ताना जी महाराज ने सन् 1957 में कई बार ऐसे अलौकिक संदेश देने का प्रयास किया कि भविष्य में यह गांव तीर्थ स्थल बन जाएगा।
पूज्य सार्इं जी ने अपनी दया-दृष्टि से इस गांव में डेरा सच्चा सौदा मौज मस्तपुरा धाम का निर्माण करवाया। इस दरबार को तैयार करने की सेवा का पूरा दारोमदार पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज पर था। जितने दिनों तक सेवाकार्य चला, आपजी दिन-रात इसी कार्य में जुटे रहते। गांव के सेवादारों की कदम-कदम पर हौंसला अफजाई करते और संगत को सेवा के लिए प्रेरित करते। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि पूजनीय परमपिता जी कद-काठी में इतने मजबूत थे कि वे अकेले ही 5-5 लोगों के समान काम करते रहते और कभी थकावट भी महसूस नहीं करते थे।
र्इंटें निकालने की सेवा काफी समय तक चलती रही, इस दौरान परमपिता जी स्वयं गारा बनाते और बाद में उस गारे से र्इंट बनाने के लिए गोले तैयार करते। बताते हैं कि गज्जन सिंह मुनि गारे का एक गोला काटता तो उतने समय में ही परमपिता जी 5 गोले तैयार कर देते और वो भी पूरे नापतोल कर। यह दरबार सन् 1957 में बनकर तैयार हो गया, उन्हीं दिनों पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज यहां पधारे और अपने पवित्र चरणों की छौह से धाम को रूहानियत की खुश्बू से महका दिया। सार्इं जी उस दौरान 18 दिन तक गांव में रहे और कई निराले खेल दिखाए।
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पेश हैं श्री जलालआणा साहिब से जुड़ी विचित्र रूहानी लीलाओं का बाकी हिस्सा, वहां के लोगों की जुबानी:-
अजब चोज, गजब भक्ति
दरबार बनाने की सेवा चल रही थी। उन दिनों डेरा में एक बकरी भी रखी हुई थी। बताते हैं कि सार्इं जी ने सेवादार चंद सिंह जी को हुक्म फरमाया कि भई, तूने आज इस बकरी को जमीन पर नीचे मेंगनें व पेशाब नहीं करने देना। यही तेरी ड्यूटी है। अपने मुर्शिद के वचन को सेवादार चंद सिंह ने बड़ी तन्मयता से निभाया। बताते हैं कि पूरी रात वह सेवादार जागता रहा और डिब्बा लेकर उस बकरी के पीछे-पीछे घूमता रहा, लेकिन वचनों में काट नहीं आने दी। सुबह सार्इं जी ने जब देखा कि सेवादार तो अपनी ड्यूटी पर जस का तस डटा हुआ है। सार्इं जी बोले- ‘वाह भई! आपकी भक्ति मंजूर हो गई, आपने अपना ध्यान एक जगह पर लगाए रखा, यह हुक्म की भक्ति है।’
उठाओ भई ये पैसा, यह तो कूड़ की माया है!
बात उन दिनों की है, जब सार्इं जी गांव में पहली बार पधारे हुए थे। उन दिनों क्षेत्र में चूहड़ सिंह नामक एक बुजुर्ग हुआ करता था, जो रिधि-सिद्धि का ज्ञाता था। सार्इं जी का स्कूल में सत्संग चल रहा था। उस महाशय ने वहां आकर पूज्य सार्इं जी के सामने कुछ पैसे रख दिए और बोला कि इस कार्य (सत्संग) में हमारा भी कुछ हिस्सा डाल लो।
पूज्य सार्इं जी ने यह देखकर पास खड़े सेवादार मक्खन सिंह को इशारा करते हुए फरमाया- ‘उठाओ भई ये पैसा, यह तो कूड़ की माया है। हमारी हक-हलाल की कमाई है।’ सेवादारों ने ज्योें ही वह पैसा वहां से हटाया तो पूज्य सार्इं जी ने वहां सोने, चांदी व रुपयों के तीन अलग-अलग ढेर लगा दिए। यह देखकर वह महाशय हक्का-बक्का रह गया। लेकिन उसके मन में द्वैष पैदा हो गया। उसने अहंकारवश कहा कि बाबा जी, या तो तालाब को आप सूखा कर दिखाओ या मैं ऐसा करके दिखाता हूं। सार्इं जी ने फरमाया- ‘नहीं भई! हमारा काम जीवों को प्यासा मारना नहीं है। संत तो सबका भला करने के लिए ही आते हैं।’ यह सुनकर वह शांत होकर बैठ गया।
इक लाहवांगे ते इक पावांगे
80 वर्षीय नछत्र सिंह बताते हैं कि सार्इं जी नए जीवों को नाम देने से पहले जमानती लिया करते थे। उन दिनों मैं चौथी क्लास में था, मुझे अच्छे से याद है कि उस दिन पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज गांव के स्कूल में सत्संग कर रहे थे। उसी दौरान किसी भाई ने सवाल उठाया कि सार्इं जी, आप स्वयं खद्दर के कपड़े पहनते हो, सिर पर पगड़ी भी फटी हुई सी है,
पांवों में जूती भी टूटी है, लेकिन लोगों को हमेशा सोना-चांदी बांटते हो। इसका क्या राज है जी? सार्इं जी बोले-भई! बात सुन, हमें हुक्म नहीं है अच्छा पहनने का। जब हम तीसरी बॉडी में आएंगे तो पहना करेंगे। एक उतारा करेंगे, एक पहना करेंगे, काल की लिद्द निकाल देंगे। वे कहते हैं कि यह सब कुछ मैंने अपने कानों से सुना है। मेरे लिए तो आज पूज्य हजूर पिता जी खुद मस्ताना जी ही बनकर आए हुए हैं।
रूहानियत के मास्टर जी ने स्कूल बच्चों की कर दी बल्ले-बल्ले
एक दिन रूहानियत के मास्टर सार्इं मस्ताना जी महाराज अचानक स्कूल में जा पधारे। वहां मास्टर रघुवीर सिंह जो सार्इं जी के भक्त थे, ने सभी बच्चों को दर्शनों के लिए एकत्रित कर लिया। पूज्य सार्इं जी ने सेवादार को कहकर उस मास्टर जी को 42 रुपये पकड़ाते हुए फरमाया -‘भई! इतने रुपये की मिठाई स्कूल में आने वाले बच्चों के लिए कितने दिन तक काफी रहेगी?’ मास्टर जी ने हिसाब-किताब लगाकर दिनों की गिनती बता दी। सार्इं जी ने फिर फरमाया-‘ सब बच्चों को हर रोज सुबह मिठाई खिलानी है।
सब बच्चों को बोल दो कि सुबह स्कूल में आने से पहले गांव की सत्थ (चौपाल) में इकट्ठे हो जाया करें और प्रतिदिन यह नारा बोला करें- सखी शाह दा बोलबाला, निदकां दा मुंह काला।’ वापसी के दौरान सार्इं जी सेवादार चंद सिंह के घर चरण टिकाने पधारे। उनके मकान की छतें कच्ची व जर्जर सी थी। सेवादार ने अर्ज की कि सार्इं जी यह गरीबीदावा है! सार्इं जी ने इस पर फरमाया- ‘नाम में इतनी शक्ति है कि गरीबी तो पड़ोस में भी नहीं रहती।’
मुर्शिद के प्रति मुरीद का अनूठा समर्पण
पूजनीय परमपिता जी का सदा से ही सार्इं मस्ताना जी के प्रति बड़ा लगाव रहा। एक दिलचस्प वाक्या सुनाते हुए गांव के बुजुर्ग सत्संगी बताते हैं कि एक बार पूजनीय परमपिता जी, सेठ मोहन लाल को साथ लेकर राजा राम से चनों के पैसों का हिसाब-किताब करने निकल पड़े। रास्ते में एक चबूतरे पर उन्हें घूकांवाली का बैंसरा नामक सत्संगी मिल गया। बताते हैं कि बैंसरा जी, सार्इं मस्ताना जी का अनन्य भक्त था। जब बैंसरा जी ने पूज्य सार्इं जी की उपमा गानी शुरू की तो पूजनीय परमपिता जी की उत्सुकता और बढ़ गई। उन बातों में ऐसा खो गए कि समय का भान ही नहीं रहा।
सेठ मोहन लाल ने सोचा कि शायद कोई पर्सनल बात हो रही है, इसलिए वह साइड में होकर बैठ गया। सुबह 9 बजे के करीब बातें शुरू हुई, उसके बाद दोपहर भी ढल गई, सायं भी होने को आ गई, लेकिन बातों की गहराई मानो और गहरी होती गई। सेठ जी ने मन में सोचा कि सारा दिन यहीं निकाल दिया, हिसाब-किताब करने वाले तक तो पहुंचे ही नहीं! सायं के 7 बजने को थे, पूजनीय परमपिता जी को एकाएक ख्याल आया और सेठ जी से बोले- ‘लै भई मोहन लाल, कल नूं या परसों तूं राजा राम तों पैसे लै के घर पहुंचा देर्इं। असीं तां हुण डेरे जा रहे हैं।’
दरियादिली देख छलक आई हाकम सिंह की आंखें
करीब 60 साल पहले की बात करें तो गांव में खेती कार्य आपसी लेन-देन पर ही निर्भर थे। श्री जलालआणा साहिब में पूजनीय परमपिता जी का जैलदार परिवार ग्रामीणों की मदद के तौर पर हमेशा तैयार रहता था। उन दिनों चुनिंदा परिवार पूरे गांव के लिए बैंक की तरह होते थे। सन् 1956-57 की बात है, हाकम सिंह व उसके ताऊजी ने मिलकर कुछ एकड़ भूमि ठेके पर ली हुई थी। लेकिन घर के हालात बड़े तंग थे, जिसके चलते चने के बीज का प्रबंध नहीं हो पा रहा था, गांव में उधार में कोई बीज देने को तैयार नहीं था। बताते हैं कि हाकम सिंह का पूजनीय परमपिता जी के साथ अच्छा दोस्ताना था, इसलिए उसने सोचा कि सरदार जी के पास चलते हैं। हाथ जोड़कर कहा कि सरदार जी, हमें चने का 5 मन बीज चाहिए और वो भी उधार में, अन्यथा हमारी जमीन बंजर ही रह जाएगी।
पूजनीय परमपिता जी कहने लगे कि कोई बात नहीं, तुहानूं तां बीज देयांगे ही देयांगे। उन दिनों भी शाही घराने में अनाज के भंडार भरे रहते थे। पूजनीय परमपिता जी ने अपने हाथों से तकड़ी (तराजू) से तोलकर 5 मन बीज दे दिया। उस साल अच्छी फसल हुई। जब हाकम सिंह बीज वापिस देने के लिए सवाया अनाज लेकर पहुंचा, यह देखकर पूजनीय परमपिता जी कहने लगे- ‘नहीं भई! सानूं सवाया नहीं, जिन्ने ले गया सी उन्ने ही वापिस कर दे।’ उन दिनों गांव में सवाया अनाज (मन के बदले सवा मन) लौटाने का रिवाज था। हाकम सिंह के पुत्र सुखराज सिंह बताते हैं कि यह देखकर मेरे पिता की आंखें भर आई कि पूजनीय परमपिता जी ने ऐसे वक्त में भी बिना स्वार्थ के साथ दिया जब लोग बात सुनने को राजी नहीं थे।
जब भरी साथी की गवाही तो छूटा उसका पिंड
बुजुर्गवार बताते हैं कि पूजनीय परमपिता जी का सारा समय लोगों की भलाई में ही गुजरता। कहीं लोग सामाजिक कार्याें की चर्चा करते तो उसमें पूजनीय परमपिता जी का अवश्य जिक्र होता था। देश के बंटवारे के आस-पास की बात है, उन दिनों में हालात काफी खराब थे। ज्यादातर लोग अपनी सुरक्षा के लिए हथियार रखने लगे थे। श्री जलालआणा साहिब गांव के मक्खन सिंह ने भी उन दिनों एक हथियार खरीदा था। बाद में स्थिति सामान्य होने लगी। कुछ वर्ष बाद पुलिस विभाग गांव-गांव जाकर हथियारों की डिटेल जुटाने लगा। डीएसपी साहब एक बार गांव में आए तो उन्होंने मक्खन सिंह को बुला लिया कि आपके पास भी कोई हथियार बताते हैं।
उसने बताया कि जी हथियार तो था, लेकिन बाद में मैंने उसे तोड़-मरोड़ कर खत्म कर दिया। अधिकारी इस बात पर सहमत नहीं हुआ तो उसने कहा कि तुम्हें गांव के किसी मौजिज व्यक्ति की गवाही करवानी पड़ेगी। वह दौड़ता हुआ पूजनीय परमपिता जी के पास पहुंचा और सारी व्यथा सुनाई। पूजनीय परमपिता जी उस सभा में पहुंचे और कहने लगे कि हम इसे बचपन से जानते हैं, यह बहुत नेकदिल इन्सान है। यह जो बात कह रहा है, वह सत्य है। यह सुनकर अधिकारियों ने माना कि वाकई मक्खन सिंह सच बोल रहा और लिस्ट से उसका नाम हटा दिया।
इन्हां ने तां छड्डता, पर असीं नहीं छड्डदे
57 वर्षीय गुरदास सिंह पुत्र चानन सिंह बताते हैं कि एक बार गांव से हम 8-9 सत्संगी भाई इकट्ठे होकर डेरा सच्चा सौदा सरसा दरबार में पहुंचे। उस दिन पूजनीय परमपिता जी सत्संग फरमा रहे थे, हम भी संगत में जाकर बैठ गए। बाद में पूजनीय शहनशाह जी के हुक्म से श्री जलालआणा साहिब से आए लोगों को सम्मान में पगड़ियां पहनाई जाने लगी। लेकिन जब मेरा नंबर आया तो पगड़ियां खत्म हो गई।
मैं वापिस संगत में जाकर बैठ गया। पूजनीय परमपिता जी ने यह देखकर फरमाया- ‘भई! तुमने हमारे पड़ोसी को क्यों छोड़ दिया? जाओ, सबसे बढ़िया पगड़ी लेकर आओ।’ यह कहकर मुझे अपने पास बुलाया और फरमाया- ‘इन्हां ने तां छड्ड ता, पर असीं नहीं छड्डदे। तुहाडे पिता चानन सिंह किवें हैं? घर विच सब ठीक है?’ इतने में सेवादार पगड़ी लेकर आ गया और पूजनीय परमपिता जी ने मुझे सबसे सुंदर पगड़ी पहनाई। यह देखकर वहां बैठी संगत भी बहुत खुश हुई।
सार्इं जी की चेताई रूह की रीझ हुई पूरी
संत सतगुरु अपने मुरीद की पल-पल संभाल करते हैं, वक्त चाहे कितना भी बदल जाए। पूज्य सार्इं जी ने स. गज्जन सिंह मुनि को नाम शब्द दिया था, जिसके बाद वह ऐसा मुरीद बन गया कि जब पूजनीय परमपिता जी दूसरी पातशाही के रूप में सामने आए तो उनका भी अपने गुरु रूप में सत्कार किया। समय का फेर देखिये, स. गज्जन सिंह को पूज्य हजूर पिता जी का भी भरपूर प्यार नसीब हुआ। उनके पुत्र बूटा सिंह बताते हैं कि पूज्य हजूर पिता जी एक बार गांव में पधारे हुए थे। उस दिन पूजनीय परमपिता जी के घर पर ही उतारा था। इधर मेरे पिता गज्जन सिंह काफी दिनों से काफी बीमार चल रहे थे। उनकी इच्छा थी कि वह भी पूज्य संत जी के दर्शन करें। सेवादारों से जब बात की तो उन्होंने चारपाई सहित वहां(पूजनीय परमपिता जी के घर) लाने की बात कही।
मेरे मन में ख्याल आया कि यदि पूज्य हजूर पिता जी, बेपरवाह सार्इं मस्ताना जी का ही रूप हैं तो अवश्य मेरी पुकार सुनेंगे और घर आकर दर्शन देंगे। थोड़े समय बाद ही पूज्य हजूर पिता जी, मेरे पड़ोसी सेवादार मक्खन सिंह के घर आ पधारे। उसके कुछ समय बाद ही अचानक हमारे घर भी आ पहुंचे। सबको भरपूर प्यार दिया। पूज्य हजूर पिता जी मेरे पिता जी की चारपाई के पास ही अपनी कुर्सी लगाकर विराजमान हो गए। अभी सभी लोग बातें ही कर रहे थे कि मेरे पिता जी ने पूज्य हजूर पिता जी के दोनों हाथ कस कर पकड़ लिये।
यह देखकर सेवादारों ने उन्हें ऐसा करने से रोकने की कोशिश की तो पूज्य हजूर पिता जी ने फरमाया- भई! इसदी जो इच्छा है औवें ही करन देयो। बूटा सिंह बताते हैं कि मेरे पिता जी ने करीब 30 मिनट तक पूज्य शहनशाह जी के हाथों को कस कर पकड़े रखा! इस दौरान पूज्य हजूर पिता जी मंद-मंद मुस्कुराते रहे, फिर वचन फरमाया कि ‘बल्ले भई! तेरी भक्ति मंजूर हो गई।’ तो उन्होंने हाथ छोड़ दिए।
‘‘यहां की एक डली की कीमत करोड़ों रुपये से भी बढ़कर है’’
पूज्य सार्इं जी ने 18 दिन तक श्री जललाआणा साहिब में रहकर पूज्य परमपिता जी की कई परीक्षाएं ली, लेकिन किसी को इसकी भनक तक नहीं लगने दी। पूजनीय परमपिता जी का प्रेम, वात्सलय इतना प्रगाढ़ था कि वे हंसते-हंसते हर बाधा को पार करते चले गए। बात उन दिनों की है, जब शाही हुक्म हुआ कि सरदार हरबंस सिंह, अपना घर-बार ढहाकर उसे यहां (सरसा दरबार) ले आओ। बताते हैं कि सेवादार सोटा राम को इस सेवाकार्य की जिम्मेवारी सौंपी गई थी। स. बूटा सिंह मुनि उन दिनों की याद को ताजा करते हुए बताते हैं कि मेरी आंखों के सामने आलीशान महल को ढहाया गया था। सबसे पहले चौबारे की दीवार को धक्का देकर गली की ओर गिराया गया था। इसके बाद मकान ढहाने की सेवा शुरू हो गई। र्इंटों को ट्रकों में भरकर दरबार में पहुंचाया जाने लगा।
वे एक दिलचस्प वाक्या सुनाते हुए बताते हैं कि उन ट्रकों में एक बार में तीन हजार र्इंटें ले जाते थे। ट्रक वाला प्रति हजार र्इंटों पर 40 रुपये भाड़ा लेता था। यानि 120 रुपये प्रति चक्कर खर्च आ रहा था। पूजनीय परमपिता जी हमेशा से ही हिसाब-किताब में बड़े माहिर थे। पूजनीय परमपिता जी ने पूज्य सार्इं जी की हजूरी में पेश होकर अर्ज की कि- ‘दातार जी, जलालआणा से जो र्इंटें लेकर आ रहे हैं, उस पर प्रति हजार 40 रुपये खर्च हो रहे हैं, जबकि यहां (सरसा) में नई र्इंटें 30 रुपये में प्रति हजार मिल जाएंगी।
क्यों ना हम वह र्इंटें वहीं बेच दें और उसी पैसे से यहां नई इंटें खरीद लें। इससे 10 रुपये का फायदा भी होगा।’ यह सुनकर पूज्य सार्इं जी एक बार तो बहुत प्रसन्न हुए, फिर एकाएक कड़क आवाज में फरमाया- ‘वरी! वहां की एक डली (छोटी कंकरीट) की कीमत करोड़ों रुपये से भी बढ़कर है। किसी भी भाव में नहीं देनी। सभी र्इंटें यहां लेकर आनी हैं।’ बाद में सूई से लेकर हर छोटा-बड़ा सारा सामान दरबार में पहुंचा दिया गया।
तीनों पातशाहियों ने लगाई 30 सत्संगें
श्री जलालआणा साहिब के गांववालों का यह दोहरा सौभाग्य कहा जा सकता है कि यहां 52 साल के अंतराल में 30 से ज्यादा रूहानी सत्संगें हो चुकी हैं, जिसमें सतगुरु जी ने कई नई पीढ़ियों का पार उतारा किया है। बता दें कि पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने 16 मार्च 1955 में पहली बार गांव में दो सत्संगें की थी। उस समय एक सत्संग दिन में और दूसरा रात्री मेंं हुआ था। इन सत्संगों में नामदान भी दिया गया था। इसके बाद सार्इं जी दो साल बाद फिर गांव में पधारे और विशाल सत्संग करते हुए बहुत से जीवों को नामदान भी दिया।
हालांकि इस दौरान सार्इं जी 18 दिन तक श्री जलालआणा साहिब में ठहरे और हर दिन मजलिस भी लगती रही। दूसरी पातशाही के रूप में पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने भी यहां 13 सत्संगें लगाई। पूजनीय परमपिता जी ने 1964 में पहली सत्संग की। ऐसा समय भी आया जब पूजनीय परमपिता जी ने एक दिन में ही गांव में तीन अलग-अलग जगह पर सत्संग लगाई, जिसमें एक सत्संग सरदार गज्जन सिंह मुनि के खेत में बने कमरे (कोठे) में हुआ था। वह कोठा आज भी ज्यों का त्यों खड़ा इस बात की गवाही भर रहा है। तीसरी पातशाही पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां 17 जनवरी 2007 तक 14 सत्संगें लगा चुके हैं, जिनमें बड़ी संख्या में लोग गुरुमंत्र लेकर अपने जीवन का उद्धार कर चुके हैं।
गांव की पांडु माटी के चर्चे दूर तलक
प्रसिद्धि में यह गांव ही नहीं, यहां की माटी भी अपने साथ कई खूबियां समेटे हुए है। बताते हैं कि श्री जलालआणा साहिब की पांडु एवं चिकनी माटी क्षेत्र में बड़ी मशहूर है, अकसर लोग यहां की मिट्टी को अपने घरों की छत्तों पर डालने व चिनाई आदि कार्य में प्रयोग करते हैं। यही नहीं, इस माटी से तैयार क्रिकेट पिचों पर कई अंतर्राष्टÑीय खिलाड़ी भी अपने जौहर दिखा चुके हैं। शाह सतनाम जी क्रिकेट स्टेडियम सरसा में भी पिच इसी माटी से तैयार की गई है। खास बात यह भी है कि पूज्य हजूर पिता जी बहुत बार इस माटी की प्रशंसा कर चुके हैं और बकायदा डेरा सच्चा सौदा के दरबारों में बने मकानों की छतों पर भी यह माटी डलवाई गई है।
सार्इं जी ने कभी यहां करवाई थी कुश्ती, आज बना है विशाल स्टेडियम
संत वचन की सत्यता देखनी हो तो कभी श्री जलालआणा साहिब में अवश्य आइयेगा। पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज सन् 1955 में गांव में पधारे थे। उन दिनों सार्इं जी अकसर कुश्ती का खेल करवाया करते थे। उस दिन भी सत्संग के बाद एक निश्चित जगह की ओर इशारा करते हुए वचन फरमाए- ‘वरी! वहां कुश्ती का खेल करवाओ। वहां पहुंचे लोग उस कुश्ती का भरपूर आनंद लेने लगे, लेकिन शायद ही किसी के संतों की रमज समझ में आई हो। सार्इं जी ने उस दिन ही वह जगह खेलों के लिए निर्धारित कर दी थी।
लेकिन इस बात को समझने में 43 साल का समय लग गया। वर्ष 1998 में पूज्य हजूर पिता जी ने उसी जगह पर शाह सतनाम जी स्टेडियम का नींव पत्थर रखा जहां सार्इं जी ने कभी कुश्ती का खेल करवाया था। हालांकि पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज भी वहां पर ही बुजुर्गों की खेलें करवाते थे।
करीब 19 एकड़ में फैला यह स्टेडियम आज गांव ही नहीं, अपितु क्षेत्र की एक अलग पहचान बना हुआ है। तत्कालीन सरपंच रहे जमना दास इन्सां बताते हैं कि यह क्षेत्र का सौभाग्य है कि पूज्य हजूर पिता जी ने युवाओं को नशों से दूर रखने के लिए शाह सतनाम जी स्टेडियम का निर्माण करवाया है जिसमें क्रिकेट, फुटबाल सहित दर्जनों खेल खेले जा सकते हैं।
शाही अंदाज में भी संग-संग चलती थी सादगी
पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की सादगी का हर कोई कायल रहा है। गांव के लोग आज भी उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि पूजनीय परमपिता जी ने कभी दूसरों को यह अहसास नहीं होने दिया कि वे बड़े घराने से हैं, या उनके पास बहुत धन-दौलत है। हमेशा ही सादगी भरा जीवन जीते।
दूसरी पातशाही के रूप में विराजमान होने के बाद भी पूजनीय परमपिता जी की सादगी गांव में हमेशा चर्चा का विषय रहती। जब भी पंजाब में सत्संग होता, तो वापसी में अकसर पूजनीय परमपिता जी श्री जलालआणा साहिब में अवश्य रुककर जाते। जब भी शाही कारवें में आते तो गांव के बाहर स्कूल के पास ही अपनी गाड़ी से नीचे उतर जाते और पैदल चलते हुए ही गांव की गलियों में बैठे बुजुर्गों का हाल-चाल जानते। उनसे परिवार का कुशलक्षेप भी पूछते। इतनी बड़ी हस्ती और ऐसी सादगी, यह अद्भुत दृश्य देखकर ग्रामीण खुद को धन्य पाते थे।
ट्री-प्लांटेशन: सार्इं जी ने जब खोदकर दूसरी जगह लगवाया बेरी का पेड़
ट्री-प्लांटेशन का जिक्र होता है तो बरबस ही डेरा सच्चा सौदा का नाम जुबां पर आ जाता है। पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने अपने पावन सान्निध्य में दर्जनों बड़े-बड़े पेड़ जो रास्ते में, सड़क में या फिर भवन निर्माण के दौरान बीच में आ रहे थे, उनको खोद कर दूसरी जगह पर लगाने की सफलतम एवं नवीन विधि इजाद की है। दरअसल इस तकनीक की शुरुआत तो पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने बहुत पहले ही कर दी थी, इसके बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं। श्री जलालआणा साहिब में अपने प्रवास के दौरान सार्इं जी ने एक दिन सेवादार बन्ता सिंह और नन्द सिंह को हुक्म फरपाया, ‘भई! फावड़े लाओ। बेरी (बेरी का पेड़) खोद (पुट) कर लाएंगे।’ हालांकि वह पेड़ काफी बड़ा था। उसे खोदकर डेरे में दूसरी जगह लगाना था।
काफी गहरा गढ्ढा खोद कर बेरी की गाची (जड़ को ढकने वाली मिट्टी) बना ली गई, परन्तु जब उसे बाहर निकालने लगे तो गाची टूट गई और उस पौधे की जड़ बाहर नंगी हो गई। सेवादार बन्ता सिंह बोला- बाबा जी! जड़ रब्ब को दिख गई है, अब यह नहीं लग सकता। यह सुनकर सार्इं जी खूब हंसे और वचन फरमाया, ‘भई! सचमुच रब्ब को दिख गई है। वाकई ही दिख गई है भई। परन्तु तुम्हें क्या यकीन है कि तुम्हारे साथ कौन फिरता है! बॉडी से प्यार आता है। खुदा वाली बात का एतबार नहीं आता। जब शरीर छोड़कर आगे गए तब रोवोगे, पछताओगे कि हमने कदर नहीं की। वो तो सचमुच ही दोनों जहानों के मालिक थे।’ सार्इं जी द्वारा रोपित वह बेरी का पेड़ बाद में दूसरी जगह वैसा ही हराभरा हो गया था।
‘दस्सो बेटा, हुण होर कित्थे जाणा है!’
रूहानियत की खुशबू बिखेरने वाली गांव की पवित्र माटी को जितना सजदा किया जाए उतना ही कम है। पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने भी इस गांव को बड़ा प्यार बख्शा है। घर-घर जाकर रहमतें लुटाते, बेशुमार प्यार बांटते। इस बारे में सेवादार मक्खन सिंह इन्सां बताते हैं कि पूज्य हजूर पिता जी जितनी बार भी यहां पधारे हैं, गांव के युवा हर बार नए अंदाज में स्वागत करते हैं। गांव के करीब 40 युवाओं का एक ग्रुप बनाया गया था, जो अपने स्तर पर स्वागत की तैयारियां करता था। तैयारी इतनी जबरदस्त तरीके से होती कि कई बार तो सेवा समिति के सेवादार भी चकमा खा जाते। पूज्य पिता जी का जिस घर में भी जाने का कार्यक्रम होता, उसी मौके घर के सामने एक बड़ा पोल जो डेकोरेटिड होता, खड़ा किया जाता, साथ ही गली को कुछ ही समय में सजा दिया जाता। सेवा समिति के सेवादार भी पोल से यह जान पाते कि पूज्य पिता जी अब यहां पधारने वाले हैं। युवा प्रेम को देखकर एक बार पूज्य पिता जी ने वचन भी फरमाए-‘भई! समिति होवे तां ऐहो जेही होवे।’
पूज्य पिता जी कहते- ‘दस्सो बेटा, हुण होर कित्थे जाणा है?’ वे बताते हैं कि एक बार पूज्य हजूर पिता जी के स्वागत के लिए सफेद घोड़े मंगवाए गए। पूज्य पिता जी जिस भी घर में अपनी रहमतें लुटाने जाते तो यह घोड़े अगवानी करते हुए निकलते। ऐसा सुंदर नजारा देखकर सभी बहुत खुश होते। अतीत की बात सांझा करते हुए मक्खन सिंह बताते हैं कि मेरे पिता बाबू सिंह का पूजनीय परमपिता जी से बड़ा लगाव था। एक बार दोनों साथ में पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज का सत्संग सुनने के लिए दिल्ली गए हुए थे। पूजनीय परमपिता जी ने दिल्ली से ही मेरे पिता जी को एक घड़ी दिलवाई थी, जो आज भी हम बतौर शहनशाही निशानी संभाले हुए हैं।
गांव में सभी धर्मों के लोग रहते हैं, जो अमन एवं भाईचारा पसंद हैं। करीब 5 हजार की आबादी वाले इस गांव का मुख्य व्यसाय खेतीबाड़ी है। यह हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात है कि हमारा गांव संतों की जीवन-स्थली के रूप में विश्वभर में विख्यात हो चुका है। डेरा सच्चा सौदा मौज मस्तपुरा धाम को लेकर ग्रामीणों की गहरी आस्था है। डेरा सच्चा सौदा के प्रयासों से ही युवाओं को गांव में ही खेलों की अंतर्राष्टÑीय स्तर की सुविधाएं मिली हुई हैं।
– रणबीर कौर, सरपंच श्री जलालआणा साहिब।
दरबार दर्शन हेतू ऐसे पहुंचें
डेरा सच्चा सौदा मौज मस्त पुरा धाम श्री जलालआणा साहिब को सजदा करने का कभी दिल करे तो यहां पहुंचने के लिए रेल एवं सड़क दोनों मार्ग ही सुगमता से उपलब्ध हैं।
- रेल मार्ग: यहां पहुंचने के लिए आपको सिरसा-बठिंडा रूट पर कालांवाली स्टेशन पर उतरना होगा। वहां से श्रीजलालआणा साहिब की दूरी 7 किलोमीटर है, जो बस या अन्य वाहन के द्वारा तय की जा सकती है।
- सड़क मार्ग: सिरसा-डबवाली मार्ग पर स्थित ओढ़ा गांव से (5 किलोमीटर) लिंक रोड से होकर या फिर चोरमार गांव से (4 किलोमीटर) लिंक रोड पर चलते हुए भी यहां पहुंचा जा सकता है। इन गांवों से समयानुसार बस सेवा भी उपलब्ध रहती है।