‘सतपुरुष की बॉडी को यहां आकर सुख मिला है’ डेरा सच्चा सौदा ज्ञानपुरा धाम, रामपुरिया बागड़ियान, जिला सरसा (हरि.)
पूजनीय सार्इं मस्ताना जी महाराज को बागड़ के बादशाह के रूप में भी जाना जाता है।

सार्इं जी ने बागड़ एरिया में अपनी अपार रहमतें लुटाई और लोगों को रामनाम से जोड़ा। देश की आजादी से पूर्व बागड़ एरिया में लोग देहदारी गुरु से अनभिज्ञ थे, लेकिन सार्इं जी ने जब इस क्षेत्र में डेरा सच्चा सौदा की नींव रखी तो उनकी सोई हुई आत्मा जाग उठी, उनकी विचारशैली में इतना बदलाव आ गया कि वे इन्सानियत के पहरेदार बन खड़े हुए। डेरा सच्चा सौदा की स्थापना के कुछ समय बाद ही सार्इं जी ने जीवोद्धार यात्राएं शुरू कर दी।

ज्ञानपुरा धाम का वह दरवाजा, जिसे पूज्य हजूर पिता जी ने स्वयं पास खड़े होकर खुलवाया था। बता दें कि इसी दरवाजे के बारे में पूजनीय सार्इं मस्ताना जी महाराज ने वचन किए थे।

हालांकि उन दिनों संसाधनों की कमी थी, लेकिन सार्इं जी ने पैदल चलकर गांव-गांव जाकर लोगों को रामनाम का असल सार समझाया। सार्इं जी अकसर अपनी बोली में सिंधी भाषा का प्रयोग करते, लेकिन आपजी की वाकपटुता और मुधभाषी अंदाज लोगों के दिलों को इस कदर छू जाता कि वे आपके दीवाने बन जाते। सार्इं जी ने बागड़ एरिया में दर्जनों डेरों का निर्माण भी करवाया, जो आज भी ज्यों के त्यों रूहानियत का संदेश देते प्रतीत होते हैं। इतिहास के जानकार बताते हैं कि महाराजा गंगासिंह के समय की बात है, तब राजस्थान और पंजाब की सीमाएं कई किलोमीटर तक एक-दूसरे को स्पर्श करती थी। उस समय हरियाणा राज्य अस्तित्व में नहीं आया था।

महाराजा गंगासिंह ने एक समझौते के तहत अपने रियासत के सीमावर्ती 45 गांव पंजाब के साथ अदला-बदली किए थे। जो कभी राजस्थान का अटूट हिस्सा थे, वहीं 45 गांव आज हरियाणा में ‘पैंतालिसा’ के नाम से मशहूर हैं। इसी पैंतालिसा क्षेत्र में एक गांव है रामपुरिया नवाबाद, जहां सार्इं मस्ताना जी महाराज ने सन् 1958 में ज्ञानपुरा धाम का निर्माण करवाया। सच्ची शिक्षा के इस अंक में आपको डेरा सच्चा सौदा ज्ञानपुरा धाम रामपुरिया नवाबाद से रूबरू करवा रहे हैं जिसे आस-पास के गांव रामपुरिया बागड़ियान के नाम से जानते हैं, क्योंकि यहां बागड़िया गौत्र की प्रधानता है।

सर्द ऋतु की ढलती सायं सूरज को अपने आगोश में लेने को लालायित नजर आ रही थी। उड़ती धूल के बीच धुंध के आवरण को चीरती हुई एक आवाज सुनाई पड़ती है। तभी पश्चिम दिशा से एक युवक दौड़ता हुआ आता प्रतीत होता है। उसकी कदमताल से ज्यादा जुबान में उतावलापन था। ‘ओ ताऊ, ओ ताऊ, सुनो हो कै, आपणे गाम गो भाग्य खुलण आलो है।’ चौपाल पर बैठे लोग अभी घर जाने की तैयारी में थे, जैसे ही यह आवाज उन तक पहुंची तो वे सभी सहसा ही उस ओर देखने लगे। आश्चर्यजनक अंदाज में एक ने पूछा- क्या हुआ? ‘गाम मै आपणो बाबा आवैगो, जिक्को बड़ा खेल करै, कदी हंसावअ कदी रूआवे। बोही मस्तानो बाबो, जिन्हे सुण्ण खातर लोग दूर-दूर स्यूं आवै।’ 8 साल के बच्चे ने जब हांफते हुए यह बात कही तो एक बार तो उन लोगों को उसकी बात पर यकीन नहीं हुआ।

लेकिन जब उसने फिर से वही बात दोहराई तो कदकाठी के धनी आदराम उर्फ दादू बागड़ी जी ने उस बच्चे को अपनी बाहों में ले लिया और प्यार से सहलाते हुए पूरी बात बताने को कहा। यह वाक्या सन् 1958 का है, उस दिन चौथी कक्षा काछात्र रामलाल, गेऊ गाम (राजस्थान का सीमावर्ती गांव) में बाबा मस्ताना जी महाराज का सत्संग सुनकर आया था और वह बता रहा था, बाबा जी ने फरमाया है कि कल सुबह तुम्हारे गांव में आवैंगे और सत्संग भी करेंगे। यह बात सुनकर उन लोगों में उत्सुकता और प्रबल हो उठी, क्योंकि उन दिनों गांव में डेरा सच्चा सौदा दरबार का निर्माण कार्य अंतिम चरण में था। देखते ही देखते यह खबर गांव की गलियों से होती हुई हर घर, द्वार तक जा पहुंची।

ग्रामीणों में अपने मुर्शिद के आगमन को लेकर उत्साह देखते ही बन रहा था। हर कोई खुशी में इतना मस्त हो उठा कि उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि सार्इं जी के स्वागत के लिए किस प्रकार से तैयारी की जाए। अगली सुबह ही सार्इं मस्ताना जी महाराज अपनी जीप के द्वारा गांव में आ पधारे। गांववालों ने भव्य स्वागत किया। ग्रामीणों के देशी अंदाज और भरपूर प्यार को देखकर पूज्य शहनशाह जी बहुत प्रसन्न हुए।

सार्इं जी लगभग 12-13 दिन गांव में बने आश्रम में ही ठहरे। इस दौरान सार्इं जी ने बहुत से विचित्र खेल भी खेले, गांववालों को बेशुमार प्यार भी बख्शा। हर रोज सायं को रूहानी मजलिस होती, जिसमें रूहानी वचनों की मूसलाधार बरसात होती। एक दिन पूज्य शहनशाह जी ने वचन फरमाया, ‘‘सतपुरुष की बॉडी को कहीं लू (गर्मी) और कहीं सर्दी ने पकड़ा। इस डेरे में सतपुरुष की बॉडी को सुख मिला है। दिल करता है कि सारी उम्र यहां पर ही ठहरें परन्तु केलनियां गांव का सत्संग है। वहां पर भी जरूर जाना पड़ेगा।’

1957 में मंजूर हुआ था गांव का डेरा

सार्इं मस्ताना जी महाराज ने सन् 1957 में नेजिया खेड़ा (सरसा) में सत्संग तय किया हुआ था। आदराम (जिसे बाद में सार्इं मस्ताना जी महाराज प्यार से ‘दादू जी’ पुकारने लगे थे) गांव के मौजिज व्यक्तियों को साथ लेकर सत्संग में पहुंचा। उस दिन श्री रावत राम नम्बरदार, श्री पतराम जी, श्री तोख राम जी, श्री सही राम जी, श्री बीरू राम जी, श्री जिया राम जी, श्री नेकी राम जी, श्री हनुमान पंडित, श्री हरि सिंह जी, श्री अमीचन्द नम्बरदार, श्री अमीचन्द गोदारा सहित करीब 25 जीवों ने सत्संग सुनकर नाम की अमोलक दात प्राप्त की। देखते-देखते ही गांव में सत्संगियों की संख्या बढ़ने लगी।

एक दिन इन सत्संगी भाइयों ने इकटठे बैठकर अपने गांव में डेरा बनवाने और सत्संग करवाने का निर्णय किया। सन् 1957 के अंत में सेवादार दादू जी, दयालपुरा के श्री धन्नाराम, श्री सहीराम, किकरांवाली के श्री राम कोहड़ी व रामपुरिया गांव के जिम्मेवार लोगोें को अपने साथ लेकर सच्चा सौदा दरबार सरसा आ गया। पूजनीय बेपरवाह जी की उपस्थिति में डेरा बनाने और सत्संग के लिए प्रार्थना की। इस पर वाली दो जहान दातार जी ने ग्रामवासियों के परस्पर प्यार को देखते हुए खुश होकर फरमाया, ‘बई! सतगुरु के हुक्म से हमने तुम्हारे गाँव में डेरा मंजूर कर दिया है। इसलिए पहले जाकर डेरा बनाओ, बाद में सत्संग भी जरूर करेंगे।’ हालांकि पूज्य बेपरवाह जी ने सभी ग्रामवासियों की सहमति लेना जरूरी समझते हुए एक दिन दरबार में से 4-5 जिम्मेवारों को रामपुरिया गांव में भेज दिया। गांववालों ने ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ के जोशीले नारोें से अपनी रजामन्दी जताई और आश्रम बनाने के लिए जमीन भी दिखाई।

दादू जी के भतीजे माड़ूराम इन्सां (79 वर्ष) बताते हैं कि उस दिन सरसा दरबार से आए सेवादारों को दरबार बनाने के लिए कई जगह जमीन दिखाई गई। सबसे पहले हरी सिंह नंबरदार ने खुद की जमीन भी दिखाई जो गांव के बिलकुल पास थी। लेकिन गांववालों ने यह कहकर मना कर दिया कि आज तुम जमीन देकर डेरा बनवा रहे हो, कल को तुम्हारे परिवार के लोग यह कहेेंगे कि हमने डेरे को जमीन दी थी। दादू जी ने भी इस बात पर सहमति जताई। आखिरकार गांववालों ने निर्णय लिया कि यहां जो डेरा बनेगा वह गांव का होगा, ना कि किसी व्यक्ति विशेष का। इसलिए जमीन पंचायत की ओर से ही दी जाएगी। आजादी के बाद बनी नई सरकार द्वारा अभी जमीनों की नई इस्तेमाली का कार्य शुरु नहीं किया गया था। उस समय पंचायत के पास 300 बीघा शामलाट भूमि थी। जिसमें से कुछ जमीन डेरा बनाने के लिए निर्धारित कर दी गई।

डेरा से आए सेवादारों व ग्रामीणों ने इस बात पर सहमति जताई, जिसके बाद ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ का नारा लगाकर डेरा की नींव रख दी गई। डेरा बनाने को लेकर ग्रामीणों में बड़ी खुशी थी, क्योंकि गांव में यह पहला अवसर था जब कोई धार्मिक स्थल बन रहा था। इससे पूर्व गांव में न कोई मंदिर था और न ही कोई अन्य धार्मिक स्थल।

जीवन के 59 बसंत देख चुके भागीरथ इन्सां बताते हैं कि गांव के लिए यह बहुत बड़ी बात थी कि यहां पहला धार्मिक स्थल बनने जा रहा है। इसलिए गांव के अधिकतर लोग इस सेवाकार्य में हाथ बंटाते थे। बेशक उस समय गांव की आबादी ज्यादा नहीं थी, फिर भी सेवाकार्य लगातार चलता रहा। मौजूदा समय में स्थापित डेरा के थोड़ी दूरी पर ही तालाब होता था, जिसके पास कच्ची इंटें बनाई जा रही थी। कोई मिट्टी को गलाकर गारा तैयार करता तो कोई उसको इंटों के सांचे में डाल देता। ज्यों ही इंटें सूखकर तैयार हो जाती, उन्हें दरबार में लाया जाता। शुरूआती चरण में दो कमरे और एक चौबारा तैयार किया गया, वहीं एक गुफा भी बनाई गई जो जमीन में खुदाई कर तैयार की गई थी।

बताते हैं कि गुफा की खुदाई के लिए ग्रामीणों को कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी, क्योंकि यहां की मिट्टी बड़ी सख्त थी, जिसकी हर रोज थोड़ी-थोड़ी खुदाई ही हो पाती थी। करीब 10 फुट गहरी खुदाई करके बहुत ही शानदार गुफा तैयार की गई। खास बात यह भी थी कि शुरूआती दौर में बनाए गए कमरे व गुफा को गलेफीनुमा तरीके से बनाया गया था, जो अंदर से कच्ची इंटों व बाहरी साइड से पक्की इंटों के द्वारा तैयार किए गए थे। बताते हैं कि उन दिनों में पास के गांव में एक र्इंट भट्ठा हुआ करता था जिससे र्इंटें खरीदकर लाई गई थी। पूज्य सार्इं जी के गांव में शुभ आगमन से कुछ समय पूर्व ही डेरा बनाने का कार्य करीब-करीब पूरा हो चुका था। उन दिनों डेरे की चार-दीवारी की जगह झाड़ आदि पेड़ों की कंटीली टहनियों से बाड़ की गई थी। इसकी एक वजह यह भी थी कि उस समय पंचायती भूमि पर झाड़-बोझे आदि के पेड़ बहुतायत में उगे हुए थे। गांव का सेवाभाव और प्यार इस कदर उमड़ रहा था कि पूजनीय शहनशाह जी ने इनको भरपूर प्यार लुटाया।


पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने सन् 1958 में दरबार में अपने पवित्र चरण टिका कर ग्रामीणों की सेवा को सार्थक कर दिया। उस दौरान सार्इं जी दरबार में करीब 13 दिनों तक विराजमान रहे। इस दौरान दरबार के निर्माण कार्य को पूरा करवाकर इसका नाम डेरा सच्चा सौदा ज्ञानपुरा धाम रख दिया। बताते हैं कि शनिवार व रविवार को सार्इं जी ने सत्संग भी लगाया जिसे सुनने के लिए आस-पास के गांवों से भी लोग पहुंचे थे। समय बदला, लेकिन रूहानियत की बरसात इस गांव पर लगातार बरसती रही। करीब 7 वर्ष बाद पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज गांव में आए तो सार्इं जी की चेताई हुई रूहें खिल उठी। सन् 1965 में पूजनीय परमपिता जी ने यहां पधारकर आश्रम को नया लुक दिया।

पूजनीय परमपिता जी ने गांव वालों के लिए पीने वाले पानी की सुविधा को और भी अच्छा बनाते हुए दरबार मेंं 24 फुट लम्बी 24 फुट चौड़ी और 10 फुट गहरी डिग्गी खुदवाकर उसे पक्का करवा दिया और इसके अलावा उस पर दो हैंड पम्प भी फिट करवा दिए ताकि गांव के लोग आसानी से पानी भर सकें। पूजनीय परमपिताजी ने पूरे दरबार को पक्का बनवाने का निश्चय किया और जल्दी ही वहां तीन कमरे नीचे, ऊपर चौबारा, साध-संगत के बैठने और आराम करने के लिए एक बड़ा हाल, खुला बरामदा, रसोई व स्नानगृह बनवा दिए।

लगभग 6 एकड़ में फैले दरबार की पहले से बनी कच्ची चार दीवारी को गिरवाकर उसकी जगह पर पक्की चारदिवारी करवा दी। वहीं एक बहुत ही सुन्दर मेन गेट बनवाकर उस पर लोहे का बड़ा दरवाजा भी लगवा दिया। डेरे के अन्दर फर्श भी लगवा दिया। इस प्रकार सन् 1965 में लगभग सारे डेरे को ही पक्का कर दिया गया। इसके ठीक 7 वर्ष बाद सन् 1972 में पूजनीय परमपिता जी फिर से गांव में पधारे और बड़ा रूहानी सत्संग फरमाया जिसमें सैकड़ों लोगों ने नामदान भी लिया। यही नहीं, पूजनीय परमपिता जी सन् 1975 में तीसरी बार गांव में पधारे और आश्रम के अन्य विस्तार कार्याें को नई गति दी।

समय ने फिर करवट ली, और डेरा सच्चा सौदा नित नई बुलंदियों को छूने लगा। पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने इस गांव पर बेशुमार रहमत लुटाई। पूज्य सार्इं जी ने सन् 1958 में ज्ञानपुरा धाम के तेरावास की एक दीवार में नया गेट बनाने के लिए वचन किए थे, उन्हीं बातों को गांववासियों ने साक्षात होते देखा, जब पूज्य हजूर पिता जी ने सन् 1994 में दरबार में पहुंचकर एक बुजुर्ग माता को बुलाकर फरमाया- ‘ल्याओ बई! अपना बट्ठल, ते गारा, अज आपां गेट कढणा है।’ यह सुनते ही वह बहन एकदम ऊंची-ऊंची आवाज में रोने लगी। वहां मौजूद संगत को यह देखकर बड़ी हैरानी हुई, जब रोने की वजह पूछी तो उसने बताया कि किसी समय में यही वचन पूज्य सार्इं मस्ताना जी ने फरमाए थे कि ल्याओ बई! अपना बट्ठल तै गारा, आपां ऐथे गेट कढणा है।

जब वह यह सामान लेकर सार्इं जी के पास पहुंची तो एकाएक साईं जी ने फिर से वचन फरमाया- ‘नहीं बई, तैथ्थों एह सेवा कदी फेर लवांगे, असीं पास खड़े होके एह गेट बनवाएंगे।’ पूज्य हजूर पिता जी ने ज्ञानपुर धाम के कर्मठ सेवादार दादू जी की अंतिम इच्छा का भी पूरा मान रखा। सेवादार की इच्छानुसार पूज्य हजूर पिता जी ने जहां उसके अंतिम संस्कार की क्रिया अपनी पावन मौजूदगी में पूर्ण करवाई, वहीं तेरहवीं पर रूहानी सत्संग भी फरमाया, जिसमें गांववासियों की भागीदारी रिकार्ड तोड़ रही। पूज्य हजूर पिता जी यहां अलग-अलग समय में तीन बार 13 मई, 23 मई 1994, 21अक्तूबर 2009 को दरबार में पधारे और संगत की सुविधा के अनुसार आश्रम में कमरों व हॉल का निर्माण करवाया। वहीं सेवादारों को खेतीबाड़ी के टिप्स देकर आश्रम की चारदीवारी में खाली भूमि पर आधुनिक खेती करने का तरीका समझाया। इन्हीं पावन प्रेरणाओं का अनुसरण करते हुए आश्रम में बागबानी कार्य शुरू हुआ, जो आत्मनिर्भर बनने की दिशा में बेहतर प्रयास साबित हुआ।

जब लूट में पड़ गई लूट

पूज्य सार्इं जी अकसर संगत को हंसाने के लिए नए-नए तरीके अपनाते। बताते हैं कि रविवार को सत्संग के बाद सार्इं जी दरबार के बाहर लगी हुई मिठाई की दुकानों पर आ पधारे। सारी संगत भी आपजी के पीछे-पीछे थी। सार्इं जी ने दुकानदारों से सारी मिठाई का मोल-भाव करके दस रुपये और फालतू दिए और फिर साध-संगत को सारी मिठाई लूट लेने का हुक्म फरमाया, ‘लुटो भैणेया।’ हुक्म और वह भी सारी मिठाई चट करने का, बस! फिर क्या देर थी? संगत मिठाई वाली दुकानों पर टूट पड़ी और देखते ही देखते सारी मिठाई साफ कर गई। इसी आपाधापी के बीच एक व्यक्ति का कंबल गायब हो गया। उसने सोचा कि पूज्य सार्इं जी के चरणों में जाकर अर्ज करूंगा तो शायद इसकी पूर्ति हो जाए। उस सत्संगी ने सार्इं जी के पास जाकर प्रार्थना की, ‘बाबा जी! कोई मेरा कम्बल भी लूट ले गया है।

’ तो इस पर शहनशाह जी बहुत हंसे और वचन फरमाया, ‘बल्ले! लूट में लूट पड़ गई भई।’जब लूट में पड़ गई लूट पूज्य सार्इं जी अकसर संगत को हंसाने के लिए नए-नए तरीके अपनाते। बताते हैं कि रविवार को सत्संग के बाद सार्इं जी दरबार के बाहर लगी हुई मिठाई की दुकानों पर आ पधारे। सारी संगत भी आपजी के पीछे-पीछे थी। सार्इं जी ने दुकानदारों से सारी मिठाई का मोल-भाव करके दस रुपये और फालतू दिए और फिर साध-संगत को सारी मिठाई लूट लेने का हुक्म फरमाया, ‘लुटो भैणेया।’ हुक्म और वह भी सारी मिठाई चट करने का, बस! फिर क्या देर थी? संगत मिठाई वाली दुकानों पर टूट पड़ी और देखते ही देखते सारी मिठाई साफ कर गई।

इसी आपाधापी के बीच एक व्यक्ति का कंबल गायब हो गया। उसने सोचा कि पूज्य सार्इं जी के चरणों में जाकर अर्ज करूंगा तो शायद इसकी पूर्ति हो जाए। उस सत्संगी ने सार्इं जी के पास जाकर प्रार्थना की, ‘बाबा जी! कोई मेरा कम्बल भी लूट ले गया है।’ तो इस पर शहनशाह जी बहुत हंसे और वचन फरमाया, ‘बल्ले! लूट में लूट पड़ गई भई।’

तीसरी बॉडी में पूरे हुए दोनों पातशाहियों के इलाही वचन

रामपुरिया गांव बड़ा सौभाग्यशाली है, जिसने डेरा सच्चा सौदा की तीनों पातशाहियों को एक रूप में निहारा है। तीनों पातशाहियों के पावन स्पर्श से उज्ज्वल हुआ यह गांव इस बात की भी गवाही भरता है कि डेरा सच्चा सौदा की पहली दोनों पातशाहियों के इलाही वचनों को वर्षों बाद पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने हू-ब-हू पूरा कर दिखाया। बताते हैं कि पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज जब सन् 1958 में ज्ञानपुरा धाम में पधारे थे तो सेवादारों को तेरा वास की चार-दीवारी में पश्चिम दिशा में गेट रखने का हुक्म फरमाया। सार्इं जी ने उस दिन इसी दिशा में अपनी शहनशाही स्टेज भी लगवाई थी।

सेवादार चार-दीवारी में से जब गेट निकालने लगे तो बेपरवाह जी ने उन्हें एकदम रोक दिया और वचन फरमाया, ‘बई! अभी ठहर जाओ। यह गेट हम स्वयं पास खड़े होकर ही खुलवाएंगे।’ सन् 1960 में पूज्य बेपरवाह जी ज्योति-जोत समा गए, परन्तु गेट वाली जगह जैसे की तैसे ही पड़ी रही। बाद में दूसरी पातशाही के रूप में पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज भी करीब 3 बार इस गांव में पधारे। सन् 1975 में अपने प्रवास के दौरान पूजनीय परमपिता जी ने वचन भी फरमाए कि ‘हम दोबारा फिर यहाँ आएंगे’। इसके करीब 16 वर्ष बाद पूजनीय परमपिता जी भी अखंड ज्योत में समा गए। सन् 1994 में पूज्य हजूर पिता जी डेरा सच्चा सौदा की तीसरी पातशाही के रूप में ज्ञानपुरा धाम में पधारे।

गांव के व्योवृद्धजन बताते हैं कि संतों का इस गांव पर बड़ा रहमोकरम रहा है, जिन्होंने समय-समय पर यहां आकर हमें अपने दर्शनों से निहाल किया है। पूज्य हजूर पिता जी जब पहली बार गांव में पधारे तो स्वयं पास खड़े होकर वह गेट खुलवाया, जिसका जिक्र पूज्य सार्इं जी ने 36 वर्ष पूर्व किया था। उसी दिन पूजनीय परमपिता जी के ईलाही वचन भी साक्षात हुए कि ‘हम दोबारा फिर यहाँ आएंगे’।

गांव पर 13 दिन बरसती रही रहमतें

पूज्य सार्इं जी जब रामपुरिया बागड़ियान दरबार में पधारे, तब करीब 13 दिन तक यहीं विराजमान रहे। माड़ूराम इन्सां बताते हैं कि उन दिनों सर्दी का मौसम था। उस दिन भी कड़ाके की ठंड थी। पूज्य सार्इं जी जीप से जैसे ही दरबार में पधारे तो यहां पर सेवादारों ने पहले ही आग के रूप में अंगीठी जलाई हुई थी। शहनशाह जी ने भी उस अंगीठी पर हाथ सेंकते हुए फरमाया था- ‘वाह वरी! बहुत ही अच्छा’। उस दौरान सार्इं जी के साथ काफी संगत भी आई थी। सर्व-सामर्थ दातार जी ने सत्संग का दिन निश्चित करते हुए साथ आई हुई सारी साध-संगत को सख्त हुक्म फरमाया- ‘फलां दिन को यहाँ पर सत्संग करेंगे। इसलिए अब सभी अपने-अपने घर को चले जाओ और यहां पर किसी ने भी नहीं ठहरना।

’ अपने प्यारे मुर्शिद जी का हुक्म सुनते ही सारी संगत वापिस अपने घरों को चली गई। सत्संग के निश्चित दिन काफी संख्या में संगत दरबार में पहुँच गई। सार्इं जी ने शनिवार रात तथा रविवार दिन में सत्संग किया। सेवादारों को जर्सियाँ, कम्बल, कपड़े आदि बेशकीमती उपहार बाँटे। बताते हैं कि उस दिन सत्संगी नेकीराम की सेवा पर खुश होकर शहनशाह जी ने उसे अपना नया कम्बल उतार कर दे दिया और साथ में वचन भी फरमाया, ‘भाई! यह कम्बल असीं दो रात ही ओढा है। यह तेरे को देते हैं। सर्दी नजदीक नहीं आएगी।’ उस दिन सत्संग में लगभग 400 नए जीवों ने नामदान लिया था।

जो करना है हम करेंगे!

सार्इं मस्ताना जी महाराज जब गांव में सत्संग करने के लिए पहली बार आने के लिए नजदीकी गांव कागदाना पहुंचे तो यह खबर गांव में आ पहुंची। सेवादारों ने ढोल बजाकर मुनादी करनी शुरू कर दी कि परम पूजनीय शहनशाह मस्ताना जी महाराज कुछ ही मिनटों में रामपुरिया गाँव में पधार रहे हैं। इसलिए सभी ग्रामवासी स्वागत के लिए इकट्ठे हो जाओ। जैसे-जैसे यह बात गांव की गलियों में पहुंची लोग उस दिशा की ओर दौड़ पड़े जिधर से सार्इं जी ने गांव में प्रवेश करना था।
उधर गाँव वालों ने दादू जी को कुछ सामान आदि लेकर आने के लिए कागदाना गांव भेज दिया। उन दिनों में भी कागदाना गांव काफी मशहूर था। जहां आवश्यकतानुसार हर खाद्य सामग्री मिल जाती थी।

दादू जी अभी रास्ते में ही थे कि पूज्य बेपरवाह जी से मिलाप हो गया। शहनशाह जी ने दादू को रोकते हुए फरमाया, ‘बई दादू! तूं कहां जा रहा है? हम तो तेरे पास आए हैं।’ दादू ठेठ बागड़ी था, उसने अपने अंदाज में कहा कि ‘तू चाल बाबा, मैं आइओ सामान लेगे’। यह कहकर दादू जी और तेजी से चलने लगा, क्योंकि वह भी चाहता था कि पूज्य बेपरवाह जी का गाँव पहुंचने पर सभी गाँव वाले प्रेमियों के साथ मिलकर स्वागत करे। लेकिन जब तक दादू जी सामान लेकर वापिस आए तो सार्इं जी दरबार में पधार चुके थे। दादू जी ने अर्ज की, ‘बाबा जी! तू बिना बताए आ गयौ तो मेह कूकर करां!’ यह सुनकर सार्इं जी ने हंसते हुए वचन फरमाया, ‘जो करना है हम करेंगे, तूने क्या करना है?’

सार्इं जी के खेल बड़े निराले

पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज की जीवनशैली हमेशा विचित्रताओं से परिपूर्ण रही है। बागड़ क्षेत्र में जहां भी सत्संग करने पधारे तो ऐसे-ऐसे विचित्र खेल खेलते कि देखने वाले सबकुछ समझ कर भी अनजान रह जाते। बताते हैं कि सार्इं मस्ताना जी महाराज जब पहली बार डेरा सच्चा सौदा ज्ञानपुरा धाम रामपुरिया बागड़ियान में पधारे, उससे पूर्व सार्इं जी ने घेऊ गाँव(भादरा तहसील, राज.) में सत्संग किया। सत्संग के तुरंत बाद आप जी वहां से भादरा की ओर रवाना हो गए।

जैसे ही बाजार में पहुंचे तो एक मिठाई की बड़ी दुकान देखकर सार्इं जी ने सेवादारों को फरमाया- वरी! इस दुकान की सारी मिठाई खरीद लो और शरेआम लुटा दो। जैसे ही सेवादारों ने फ्री में मिठाई बांटनी शुरू की तो वहां लोगों की बड़ी भीड़ लग गई। दोनों ओर के रास्ते बंद हो गए। पूज्य सार्इं जी ने सोचा कि अब इस भीड़ से बाहर कैसे निकला जाए। तभी साई जी ने अपने थैले में से सिक्कों की मुट्ठी भरी और भीड़ के दूसरी साइड में जोर से फेंक दी। जो लोग अभी तक मिठाई खाने में मस्त थे, वे अब पैसों (सिक्कों) के लालच में आकर सिक्के उठाने को दौड़ पड़े। सार्इं जी के इस चोज से रास्ते की एक साइड बिलकुल खाली हो चुकी थी, फिर बेपरवाह जी वहां से निकलकर कागदाना गांव आ पधारे।

डेरा सच्चा सौदा ज्ञानपुरा धाम का मुख्य द्वार।

डेरा सच्चा सौदा ज्ञानपुरा धाम का मुख्य द्वार।

भई! वो कह रहे थे कि गांव के लोग कंजूस हैं !

गांव के बुजुर्ग लोग बताते हैं कि पूज्य सार्इं मस्ताना जी के सामने कुछ लोगों ने चुगली कर दी कि बाबा जी, उस गांव में तो लोग दरबार में दूध भी नहीं देकर जाते। जब सार्इं जी गांव में पहली बार पधारे तो सेवादारों ने सत्संग से एक दिन पहले गांववालों से दूध पहुंचाने की बात कही, ताकि संगत के लिए चाय इत्यादि की व्यवस्था अच्छे तरीके से हो सके। 79 वर्षीय माड़ूराम बताते हैं कि उस दिन एक आह्वान पर गांव का इतना प्यार उमड़ा कि देखने वाले दंग रह गए। हर कोई हाथों में डोलू, लोटा इत्यादि बर्तन में दूध लेकर आ रहा था।

उस दिन इतना दूध आया कि बड़ा ड्रम दूध से भर गया। जब सार्इं जी ने यह देखा तो खुश होते हुए वचन फरमाए- ‘भई वो कह रहे थे कि गांव के लोग कंजूस हैं, दूध नहीं देकर जाते, यहां तो ड्रम भरे पड़े हैं। इस दूध में तो बंदा डूबके मर जाए। इसको ढको बई! कल संगत को दिखाएंगे।’ अगले दिन सार्इं जी ने सत्संग में भी इस बात का जिक्र सुनाया और साध-संगत को दूध का भरा वह ड्रम भी दिखाया।

ज्ञानपुरा धाम में पधारकर गांव वासियों को अपने पावन दर्शनों से निहाल करते हुए पूज्य हजूर पिता संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां।
ये दुर्लभ तस्वीरें सत्संगी भागीरथ इन्सां ने उपलब्ध करवाई है।
ज्ञानपुरा धाम में पधारकर गांव वासियों को अपने पावन दर्शनों से निहाल करते हुए पूज्य हजूर पिता संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां।
ये दुर्लभ तस्वीरें सत्संगी भागीरथ इन्सां ने उपलब्ध करवाई है।

ज्ञानपुरा धाम में पधारकर गांव वासियों को अपने पावन दर्शनों से निहाल करते हुए पूज्य हजूर पिता संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां।
ये दुर्लभ तस्वीरें सत्संगी भागीरथ इन्सां ने उपलब्ध करवाई है।

एमएसजी के सच्चे मुरीद थे दादू जी, पूरी हुई अंतिम अरदास

सन् 1951 की बात है। आदराम रामपुरिया बागड़ियान का वह पहला व्यक्ति था, जिन्होंने गांव से सबसे पहले पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज से नामदान प्राप्त किया था। उनकी अटूट आस्था और श्रद्धाभाव से प्रसन्न होकर सार्इं जी ने उनका नाम दादू रख दिया था, जिसके बाद सेवादार उन्हें ‘दादू जी’ के नाम से पुकारने लगे। दादू जी को इस सच्चाई का बहुत जल्दी अहसास हो गया था कि सार्इं जी खुद पूर्ण मुर्शिद हैं। वे हमेशा सुमिरन और सतगुरु का ही यश गाते रहते। यही नहीं, उन्होंने गांव के लोगों को भी इस ओर प्रेरित किया और एक-एक, दो-दो करके गाँव के काफी लोगों को नामदान दिलवाकर सत्संगी बना दिया। ग्रामीणों के अंदर गांव में डेरा बनाने का ख्याल भी उन्होंने ही जागृत किया।

दादू जी

दादू जी के भतीजे माड़ूराम इन्सां व भागीरथ इन्सां बताते हैं कि वे हमेशा डेरा सच्चा सौदा को ही समर्पित रहते थे। सुमिरन और सेवा की लगन के चलते ही वे डेरा के सेवादार बने थे। शुरूआती दिनों में दादूजी को रानियां डेरा में सेवा मिली। लेकिन काफी जिम्मेवारियों के बीच उनका अधिकतर समय बिना सुमिरन और सेवा के ही गुजरने लगा, जिससे वे बैचेन से रहने लगे। एक दिन दादू जी सरसा दरबार में पहुंचे और पूज्य सार्इं जी के चरणों में अर्ज की कि ‘बाबा जी, मै तो अठ्ठे सेवा-सुमरण खातर आयो, पर थै तो मैने और ही ब्यादियां में फसा दियौ। (मतलब जिम्मेवारियों की वजह से टेंशन बढ़ गई है, जिससे सुमिरन में ध्यान नहीं लगता)। यह सुनकर सार्इं जी बहुत हंसे और फरमाया कि चलो आपको रामपुरिया डेरे में सेवा देते हैं। बताते हैं कि उसके बाद दादूजी रामपुरिया दरबार में ही सेवा करने लगे।

एक दिन पूज्य सार्इं जी अचानक दिल्ली की ओर रवाना हो गए और सेवादारों को यह विशेष वचन फरमाए कि किसी भी सेवादार ने पीछे नहीं आना है। अभी थोड़ा ही समय गुजरा था कि दादू जी एक अन्य व्यक्ति के बहकावे में आकर दिल्ली जा पहुंचे। उस समय रेल से दिल्ली जाने का किराया मात्र 3 रुपये था। दिल्ली पहुंचते ही दादू जी को अपनी गलती का अहसास हो गया कि उसने वचनों में काट कर दी। उसके बाद दादूजी का रो-रोकर बुरा हाल हो गया। जब पूज्य सार्इं जी को इस बारे में बताया गया तो उन्हें अपने मुरीद पर रहम आ गया। उन्हें बुलाया गया और वचन फरमाया- ‘तूं भोला बागड़ी है, तुझे उसने (दूसरे व्यक्ति के बारे में) भ्रमा लिया।

दादू तुझे नहीं आना चाहिए था, तुझे उसका कहा मानना सही था, या इस मस्ताने का कहना मानना चाहिए था! चल तूं घबरा मत, तुझे एक शर्त पे छोड़ते हैं, ताउम्र तुझे रामपुरिया डेरा में ही रहना होगा। चाहे दु:ख आए, चाहे सुख आए।’ यह सुनकर दादू जी एक बार घबरा सा गए, क्योंकि उस समय डेरा के आस-पास बीयाबान था और गांव में भी 50 के करीब ही घर थे। मन में सोचा कि ऐसे हालात में वहां मन कैसे लगेगा? उसी क्षण सार्इं जी ने फिर से फरमाया- ‘घबरा मत, तुझे पास खड़े होकर सचखंड लेकर जाएंगे।’ बताते हैं कि उसके बाद दादूजी ने कभी भी रामपुरिया डेरा से बाहर कदम नहीं रखा।


सन् 1994 में दादूजी की तबीयत बिगड़ने लगी। दिन-ब-दिन उसकी हालत खराब होती जा रही थी। यह देखकर उनके भांजे नेकी राम ने पूछा, ‘मामा जी! तुम्हारी जमीन-जायदाद और जो नगदी आदि जमा है उसके बारे में आपने क्या सोचा है?’ इस पर दादू जी ने कहा, ‘मेरे मरने के बाद में मेरा अन्तिम संस्कार डेरे की चार-दीवारी के अन्दर पानी वाली डिग्गी और हाल कमरे के बीच खाली पड़ी जगह में करना है। मेरी नगदी आदि और बाकी का सारा सामान डेरा सच्चा सौदा दरबार की अमानत है। मेरे चोला छोड़ने पर यह सब कुछ दरबार को सौंप दिया जाए और मेरे पीछे मेरे प्रति कोई बाहरी क्रिया-कर्म करने की बजाए यहाँ पर पूज्य हजूर पिता जी का सत्संग किया जाए।’

पूज्य हजूर पिता जी ने अभी कुछ दिन पहले ही दादू जी को उसकी सेवा और उसके प्रबल प्रेम के बदले एक बहुत ही सुन्दर दस्तार (पगड़ी) बतौर प्रेम निशानी दी थी। दादू जी ने अपनी आखिरी इच्छा प्रकट करते हुए यह भी कहा कि ये शहनशाही इलाही दस्तार अंत समय मेरे ऊपर कफन के रूप में डाल दी जाए। उन्होंने चोला छोड़ने के समय की तरफ इशारा किया कि वह कल शाम को चोला छोड़ जाएगा और हुआ भी इसी तरह। बातें करते हुए निश्चित समय पर यानी 13 मई 1994 को 6:15 बजे शाम को चोला छोड़ दिया। दादू जी के चोला छोड़ने का समाचार दरबार में पहुंचते ही पूज्य हजूर पिताजी रामपुरिया दरबार में पधारे और दादू जी की अन्तिम इच्छा के अनुसार शाही दात (दस्तार) का कफन पहनाकर डेरे की चारदीवारी के अन्दर निश्चित स्थान पर ही उनका अंतिम संस्कार करवाया।

उस दिन सार्इं जी के ईलाही वचन भी पूरे हुए कि ‘तुझे पास खड़े होकर सचखंड लेकर जाएंगे।’ पूज्य हजूर पिता जी ने दादूजी की एक और अंतिम इच्छा पूरी करते हुए उनकी तेरहवीं पर 23 मई को रामपुरिया दरबार में रूहानी सत्संग भी फरमाया ंऔर उनके परिवार को असीम प्यार की बख्शिश की। अपने सतगुरु से ऐसा प्रेम कोई बिरले ही शिष्य कमा पाते हैं, तभी उनका नाम आज भी डेरा सच्चा सौदा के इतिहास में बड़ा अदब से लिया जाता है।

समर्पण: तेरा तुझी को अर्पण, क्या लागे मेरा

सेवादार दादू जी ने डेरा सच्चा सौदा से जुड़ने के बाद अपना जीवन परमार्थ को समर्पित कर दिया था। पूज्य सार्इं जी ने जब पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज को गुरगद्दी पर विराजमान करने से पूर्व परीक्षा लेते हुए घर-बार का सारा सामान दरबार में लाने का हुक्म फरमाया था। उस सामान को पूजनीय परमपिता जी ने सेवादारों को बतौर शाही निशानी के तौर पर दिया था, उस दौरान दादू जी को भी काठ का बना एक सुंदर दरवाजा दात स्वरूप प्रदान किया गया था। दादूजी ने यह दरवाजा अपने घर ले जाने या पहुंचाने की बजाय उसे रामपुरिया दरबार में ही लगाने का निश्चय किया।

उन दिनों रामपुरिया डेरा की चारदीवारी कांटेदार झाड़ियों से की हुई थी, जिसमें प्रवेश के दौरान संगत को पैरों में कांटे चुभने जैसी समस्याएं आती थी। दादूजी ने कारीगर की मदद से यह दरवाजा चारदीवारी में लगाकर दरबार में प्रवेश द्वार के रूप में इस्तेमाल किया, जो ‘तेरा तुझी को अर्पण क्या लागै मेरा’ की अनूठी मिसाल कही जा सकती है।

‘जै तूं नीं मानदा तां मस्ताने नंू ही मनणा पऊगा।’

बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी ने 1957 में ही एक बार गांव का सत्संग तय कर दिया था। रामपुरिया से पहले गांव कंवरपुरा में सत्संग होना था। पूज्य सार्इं जी कंवरपुरा जा पधारे, वहां पर रामपुरिया गांव के एक-दो सत्संगी ही पहुंचे थे। जब पूज्य सार्इं जी ने उन लोगों से गांव के अन्य सत्संगियों के न आने के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि बाबा जी, बाकि लोग शादी इत्यादि कार्यक्रमों में गए हुए हैं। यह सुनकर पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘भई, उन्हां लोकां दी जे सत्संग ’च दिलचस्पी ही नहीं है तां चलो पिंड दी सत्संग भी कैंसल कर देते हैं।’ बताते हैं कि कंवरपुरा के बाद सरसा दरबार में ही सत्संग रख दिया गया।

उधर जैसे ही दादूजी के पास यह खबर पहुंची कि सार्इं जी ने गांव का सत्संग कैंसिल कर दिया है तो यह सुनते ही वह बड़ा मायूस हुआ। अगले ही दिन सुबह सरसा दरबार की ओर चल दिया। जैसे ही सरसा दरबार में पहुंचा, तो बाबा जी एक ऊंचे टीले पर खड़े हुए थे। पूज्य सार्इं जी ने दूर से ही आवाज लगाई- ‘आ गया दादू, सब ठीक है ना!’ दादू जी को उतावलापन था, इसलिए कहने लगा- बाबा जी, मैंने सुना है कि मेरे गांव का सत्संग कैंसल हो गया। ‘हां, दादू तुने सही सुना है। वहां सत्संग नहीं करेंगे।’ दादू जी बोले- बाबा, मैं तो मर गया फिर, मैं तो गांव वालों को कई दिनों से समझाने में जुटा हुआ था कि बाबा जी आएंगे, सत्संग में बड़ी मीठी-मीठी बातें सुनाएंगे, सबको नाम दान भी देंगे।

यही नहीं, मैंने तो अपने रिश्तेदारों, सगे-संबंधियों को भी इस सत्संग के बारे में बताया हुआ है। दादू जी ने भावुक होते हुए कहा कि बाबा जी, यदि सत्संग नहीं हुआ तो मैं गांववालों को क्या कहूंगा, गांव वापिस किस मुंह से जाऊंगा? यह कहते हुए दादू जी रोने लगे। दादू जी एक ही रट लगाए हुए थे कि बाबा जी, मेरे गांव में सत्संग जरूर करो जी। आखिरकार अपने शिष्य की पुकार सुनते हुए सार्इं जी ने फरमाया- ‘चल दादू, जे तूं नीं मानदा तां ठीक है, मस्ताने नूं ही मनणा पऊगा। तेरे पिंड विच सत्संग जरूर करांगे।’

यहां की दीवारें भी देती हैं रूहानियत का संदेश

ज्ञानपुरा धाम आगंतुकों के लिए ज्ञान के भंडार के समान है। यहां की दीवारों पर लिखे गए आध्यात्मिक स्लोगन लोगों को जीवन के असल उद्देश्य से रूबरू करवाते हैं। ‘क्यों नहीं जपदा अंदर वाला, राम तेरे कम्म आएगा।

तेरी डुबदी बेड़ी बंदेया, सतगुरु पार लंघाएगा।।’ जैसे दर्जनों अलग-अलग स्लोगन दरबार की शोभा बढ़ाते हुए नजर आते हैं। वहीं दरबार में ‘एमएसजी’ लुक को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि संगत स्वत: ही पुकार उठती है कि ‘धन उन्हां प्रेमियां दे, जिन्हां दे सेवा हिस्से विच आई। धन उन्हां प्रेमिया दे, जिन्हां डेरे दी सेवा कमाई।।’


दरबार में लंगर बनाने की सेवा करती बहनें, लंगर ग्रहण करते हुए सेवादार।

राजस्थान, हरियाणा में मिठास बढ़ाते हैं यहां के फल

डेरा सच्चा सौदा ज्ञानपुरा धाम रूहानियत के साथ-साथ आपसी भाईचारे की भावना को बलबती बनाता हुआ प्रतीत होता है। 6 एकड़ में फैला यह दरबार जहां हर आगंतुक के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है, वहीं इसमें करीब 5 एकड़ एरिया में बागबानी भी की जा रही है, जिसके फलों की मिठास हरियाणा के साथ-साथ सीमावर्ती राजस्थान में भी बखूबी फैल रही है। सेवादार उमेद इन्सां बताते हैं कि पूज्य हजूर पिता जी के मार्गदर्शन में यहां बागबानी का कार्य शुरू हुआ था। यहां अधिकतर किन्नू के पौधे लगाए गए हैं, जिनका उत्पादन क्षमता से कहीं अधिक होता है।

यहां के फलों की सप्लाई फेफाना दरबार, निठाना व हरियाणा के कैथल दरबार तक होती रहती है। इसके अलावा यहां समयानुसार सब्जियां भी उगाई जाती हैं। बागबानी के लिए यहां 75 गुणा 50 फुट में गहरी डिग्गी बनाई गई है, जिसमें नहरी जल का संचय किया जाता है। आने वाले दिनों में यहां ड्रिप सिस्टम लगाने की योजना है ताकि भविष्य के लिए पानी की बचत की जा सके।


गांव में बना डेरा सच्चा सौदा दरबार हमेशा शांति व भाईचारे का उपासक रहा है। तीन हजार एकड़ एरिया में फैले मेरे गांव की आबादी अढ़ाई हजार के करीब है। हालांकि यहां हिंदू धर्म से जुड़े लोग ही रहते हैं, जिनमें अधिकतर डेरा सच्चा सौदा से जुड़ाव रखते हैं। गांव में सबसे पहले डेरा सच्चा सौदा दरबार ही धार्मिक स्थल के रूप में बना था। मौजूदा समय में दो मंदिर भी हैं, यह सभी धार्मिक स्थल गांव की शोभा बढ़ाते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी गांव प्रगति पर है, यहां आठवीं कक्षा तक सरकारी स्कूल की व्यवस्था है। – मोहर सिंह नैन, सरपंच।

ऐसे पहुंचें दरबार

सड़क मार्ग:

चौपटा-भादरा रोड पर स्थित गांव कागदाना से मात्र दो किलोमीटर की दूरी।
भट्टू से सीधा रामपुरिया गांव के लिए बस सेवा, वहीं चोपटा से वाया कागदाना बस सेवा।

रेल मार्ग:

भट्टू रेलवे स्टेशन से 20 किलोमीटरकी दूरी।
सिरसा रेलवे स्टेशन से टैक्सी के द्वारा वाया चौपटा होकर दरबार पहुंचा जा सकता है।

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here
Captcha verification failed!
CAPTCHA user score failed. Please contact us!