All about dussehra in hindi: वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक और शौर्य की उपासक रही है। हमारी संस्कृति की गाथा इतनी निराली है कि देश के अलावा विदेशों में भी इसकी गूंज सुनाई देती है। तभी तो पूरी दुनिया ने भारत को विश्व गुरु माना है। भारत के प्रमुख पर्वों में से एक पर्व है ‘दशहरा’ (dussehra puja in hindi), जिसे विजयादशमी के नाम से भी मनाया जाता है। दशहरा केवल त्यौहार ही नहीं, बल्कि इसे कई बातों का प्रतीक भी माना जाता है। दशहरे में रावण के दस सिर इन दस पापों के सूचक माने जाते है-काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा, आलस्य, झूठ, अहंकार, मद और चोरी।
इन सभी पापों से हम किसी ना किसी रूप में मुक्ति चाहते हैं और इस उम्मीद में हर साल रावण का पुतला बड़े से बड़ा बनाकर जलाते हैं कि हमारी सारी बुराइयां भी इस पुतले के साथ अग्नि में स्वाह हो जाये। लेकिन क्या ऐसा होता है? नहीं, क्योंकि अगर हमारी व समाज की बुराइयां सच में रावण के पुतले के साथ अग्नि में स्वाह होती, तो क्या हम हर वर्ष रावण के पुतले को बड़े से बड़ा बनाते? कभी नहीं, इसका अर्थ यह निकलता है कि हम मानते और जानते है कि समाज में दिनों-दिन बुराइयां व असमानताएं भी रावण के पुतले की तरह बड़ी होती जा रही है।
तर्क तो यह है कि हम इन पर्वों पर सिर्फ परंपरा निभाते हैं। इन त्योहारों से मिले संकेत और संदेशों को अपने जीवन में नहीं उतारते। यह पर्व हमें यह संदेश देता है कि अन्याय और अधर्म का विनाश तो हर हाल में सुनिश्चित है। फिर चाहे आप दुनियाभर की शक्तियों और प्राप्तियों से संपन्न ही क्यों न हो, अगर आपका आचरण सामाजिक गरिमा या किसी भी व्यक्ति विशेष के प्रति गलत होता है, तो आपका विनाश भी तय है। दशहरा यानी न्याय, नैतिकता, सत्यता, शक्ति और विजय का पर्व है, लेकिन आज हम इन सभी बातों को भूलकर सिर्फ मनोरंजन तक ही सीमित रखते हैं अपने त्योहारों को। हर युग में अन्याय, अहंकार, अत्याचार और आतंकवाद जैसे कलंक रूपी असुर रहे हैं (essay on dussehra in hindi)।
हमारा इतिहास गवाह है कि त्रेता युग में रावण, मेघनाथ,ताड़का आदि द्वापर युग में कंस, पूतना, दुर्योधन, शकुनी आदि और आज इस कलियुग में आंतक, भय, अन्याय और आतंकवाद जैसे असुर पनपते रहे हैं और पनपते जा रहे हैं।
आज हमारे समाज में राम और रावण दोनों विद्यमान हैं। ये सही है कि बदलते दौर में रावण का रूप जरूर बदल चुका
है। आज यह रावण हमारे बीच जातिवाद, महंगाई, अलगाववाद, बेरोजगारी व भ्रष्टाचार के रूप में मौजूद है। सच तो यह
है कि हम हर साल रावण, कुंभकर्ण व मेघनाद के पुतलों का दहन कर व आतिशबाजी के शोर में मशगूल होकर पर्व के
वास्तविक संदेश को गौण कर देते हैं।
आज के संदर्भ में रावण के कागज के पुतले को फूंकने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि हमारे मन में बैठे उस रावण को मारने की जरूरत है, जो दूसरों की प्रसन्नता देखकर ईर्ष्या की अग्नि से दहक उठता है। हमारी उस दृष्टि में रचे-बसे रावण का संहार जरूरी है, जो रोज न जाने कितनी स्त्रियों व बेटियों की अस्मत के साथ खेलता है। हमें समाज व देश में उस विचारधारा को प्रोत्साहन प्रदान करना होगा, जो बेटियों के प्रति पनप रहे भेदभाव व असमानता का अंत कर उनको हर दिन गौरव व गरिमा अहसास कराएं। साथ ही, हमें इस दिन पर राष्ट्र सेवा का प्रण लेने की आवश्यकता है।
श्री राम और रावण दोनों ही शिव के उपासक थे, लेकिन दोनों की व्याख्या अलग-अलग हैं, क्योंकि रावण की साधना और भक्ति स्वार्थ, मान, सत्ता, भोग-विलास और समाज को दुख देने हेतु (आसुरी वृति की) थी, जबकि श्री राम की साधना परोपकार, न्याय, मर्यादा, शांति, सत्य और समाज कल्याण के उद्देश्य हेतु थी। तभी तो इतने सालों बाद आज भी हम श्री राम की जय-जयकार से रावण के पुतले का अंत करते हैं। रावण की तरह जब कभी राष्ट्र की अस्मिता पर संकट के मेघ घिरने लगेंगे, तो हम राम की भांति साधना के पथ पर अटल रहकर निर्भीकता, साहस व शौर्य का परिचय देकर देश की एकता, अखंडता, नैतिकता के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे।