पूजनीय सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज का रहमो-करम -सत्संगियों के अनुभव
प्रेमी श्री रामशरन खाजांची सरसा शहर से बेपरवाह मस्ताना जी महाराज के निराले करिश्मे का इस प्रकार वर्णन करते हैं:-
सन् 1958 की बात है। मुझे टाइफाईड बुखार हो गया था। उलटियों व दस्त (लूजमोशन) से मुझे बहुत कमजोरी आ गई थी। उन दिनों में शहनशाह मस्ताना जी महाराज रोहतक में पधारे हुए थे। बीमारी की हालात में ही मैं प्रेमी गोबिंद मदान के साथ अपने सतगुरु जी के दर्शनों के लिए रोहतक को चल दिया।
मुझे घर वालों ने बहुत रोका कि तुम बीमार हो परन्तु सतगुर जी की कृपा से मैं उनके कहने पर नहीं रुका। जहां पूज्य बेपरवाह जी विराजमान थे, हम भी वहां जाकर पूज्य सार्इं जी के पवित्र चरण-कमलों में बैठ गए। दयालु दातार जी ने अपने पवित्र कर-कमलों से हमें खरबूजे का प्रशाद दिया। मैं अंदर ही अंदर पछता रहा था कि मुझे टाइफाईड है और खरबूजा खाने से मुझे हैजा हो जाएगा। गोबिंद मदन ने मुझे धीमी आवाज में कहा कि सतगुरु के हाथों का प्रसाद है, कुछ नहीं होता। अपने सतगुरु के हाथों का प्रसाद मैं कैसे छोड़ सकता था।
मैं धीरे-धीरे सारा प्रसाद खा गया। दयालु दातार जी ने हमें खरबूजे का और प्रसाद दिया। वह भी हमने खा लिया। खरबूजे के प्रसाद से मेरा पेट पूरी तरह से भर गया। इतने में वहां एक सेवादार दूध की कच्ची लस्सी लेकर आ गया। पूज्य शहनशाह जी ने स्वयं एक गिलास लस्सी का पिया और हमें भी लस्सी पीने का आदेश फरमाया। मैं डर रहा था और मन में सोच रहा था कि खरबूजे के ऊपर कच्ची लस्सी पीने से हैजा हो जाएगा। मैं ऊंची आवाज में रोने लग गया और रोते-रोते कहा कि मैं अपनी माता का इकलौता पुत्र हूं।
मुझे हैजा हो जाएगा और मैं मर जाऊंगा। घट-घट की जाननहार सतगुरु जी ने मेरी तरफ इशारा करते हुए वचन फरमाया, ‘पी ले लस्सी, कुछ नहीं होता! इससे तू मरता नहीं, तेरे से सेवा लेनी है।’ मैंने दयालु शहनशाह जी का हुक्म मानते हुए लस्सी का एक बड़ा गिलास पी लिया। मन में सोच रहा था कि खरबूजे और लस्सी की दुश्मनी है और मैं तो पहले ही बीमार हूं। बीमारी और बढ़ जाएगी।
दयालु सतगुरु जी के पवित्र हाथों का प्रसाद और हुक्म में लस्सी ने दवा का काम किय। मैंने कुछ मिनटों में अपने आप को ठीक महसूस किया। और दो घंटों में मैं पूरी तरह से तंदुरुस्त हो गया। उसी दिन कुछ समय के बाद शहनशाह जी ने हमें भुने हुए चनों का प्रसाद दिया। एक-एक मुट्ठी भर कर दिया। मैंने उनमें से आधे चने खा लिए और आधे अपनी जेब में डाल लिए। शहनशाह जी ने मेरी जेब की तरफ इशारा करते हुए फरमाया, ‘ये मां के लिए ले जा रहा है? ये चने किस के लिए रखता है? और माल आ रहा है।’ इतने में सेवादार एक गठड़ी मिठाई की लेकर आ गए जिसमें खोए की बर्फी, गुलाब-जामुन और इम्रतियां थी। बेपरवाह जी ने हमें इम्रतियों का प्रसाद दिया और रात का सत्संग रोहतक में करने के लिए चल पड़े। सतगुरु की कृपा से उसी दिन मेरे अंदर पूरी ताकत आ गई थी। उस दिन मुझे इस तरह लगता था कि जैसे मैं कभी बीमार ही नहीं हुआ।
इसी प्रकार एक बार प्रेमी सोहन लाल दर्जी के भतीजे को पेचिस हो गई। वह डाक्टरों से ठीक नहीं हो रहा था। पीली पगड़ी वाले की दवाई चल रही थी परन्तु उसकी दवा से कोई आराम नहीं आ रहा था। उन्हीं दिनों में प्रेमी सोहन लाल को सेवा करने पर बेपरवाह जी ने जलेबी का प्रसाद दिया था। सोहन लाल ने अपने घर जाकर वोही प्रसाद अपने भतीजे को खिला दिया। प्रसाद खाते ही प्रेमी का भतीजा बिल्कुल ठीक हो गया। वैद्य जी भी यह देख कर हैरान रह गए और कहने लगे कि जलेबी का खाना पेचस के लिए जहर है पर जलेबी के प्रसाद ने अमृत का काम किया है। इस करिश्मे को देखकर वैद्य जी पूज्य बेपरवाह जी के दर्शन करने के लिए डेरा सच्चा सौदा दरबार में आया।
इस साखी प्रमाण से यह स्पष्ट होता है कि सतगुरु का बख्शा हुआ प्रसाद अमृत है। सतगुरु का बख्शा प्रसाद खाने से भयानक से भयानक कर्म भी टल सकता है अगर जीव श्रद्धा व विश्वास रखे तो।
सच्ची शिक्षा हिंदी मैगज़ीन से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook, Twitter, LinkedIn और Instagram, YouTube पर फॉलो करें।