महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों में अपना नाम रोशन कर रही हैं। इस वर्ष अन्तरर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) पर कितनी ही महिलाओं को सम्मानित किया गया। किसी विद्वान कवि ने कहा कि ‘गृहिणी गृहमित्याहु:न गृहं गृहमुच्यते’, अर्थात् ‘गृहिणी से ही घर है और बिना गृहिणी के घर को घर नहीं कहा जा सकता।’
गृह की यह परिभाषा अपने में नितान्त परिपूर्ण है।
बिना गृहिणी के घर नहीं है और यदि घर हो भी तो उस घर में जाने को मन नहीं करता। गृहिणी गृहस्थ जीवन रूपी नौका की पतवार है, वह अपने बुद्धि-बल, चरित्र-बल एवं अपने त्यागमय जीवन से इस नौका को थपेड़ों और भंवरों से बचाती हुई किनारे तक पहुंचाने का सफल प्रयास करती है। गृहस्थी की सुख-शान्ति, आनन्द और उत्थान इसके सबल कन्धों पर आधारित रहते हैं। यदि गृहिणी चाहे तो घोर नरक रूप गृहस्थ जीवन को स्वर्ग बना सकती है।
गृहिणी के विभिन्न रूप
भारतीय गृहिणी का एक स्वरूप ‘गृहलक्ष्मी’ का है और दूसरा ‘विनाशकारी काली’ का। दूसरे शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि गृहस्थ जीवन रूपी गाड़ी के पति-पत्नी दो आधारभूत पहिए हैं। इस गाड़ी को सुचारू रूप से अग्रसर करने के लिए दोनों ही पहियों को स्वस्थ और स्निग्ध होना चाहिए। यदि दोनों में से किसी एक पहिए में भी सूखापन या दरार आ गई तो निश्चय है कि वह पहिया ‘चूं-चूं’ करने लगेगा और वह कर्ण कटु ध्वनि शनै:
शनै: इतनी बढ़ जाएगी कि उसी मार्ग पर चलने वाले अन्य यात्रियों को भी अखरने लगेगी और स्वयं चलना तथा भार वहन करना तो नितान्त दूभर ही हो जाएगा।
कौन जानता है कि वह पहिया किस समय गाड़ी में से निकल कर सड़क से दूर जा पड़े और गाड़ी रेतीले मार्ग में जमकर बैठ जाए। जीवन को समृद्धिमय बनाने का पूर्ण श्रेय आदर्श गृहिणी को ही प्राप्त है।
आदर्श गृहिणी से केवल घर का ही उद्धार और कल्याण ही नहीं होता है, बल्कि वह समाज ओर देश की भी कल्याणकारिणी होती है। वह ‘वीर प्रसवा जननी’ के रूप में देश के रक्षक वीर पुत्रों को जन्म देती है, जो रणक्षेत्र में शत्रु के दांत खट्टे कर देते है और विजयी होकर घर लौटते है। वह ‘भक्त माता’ के रूप में ऐसी ज्ञानमयी सन्तान उत्पन्न करती है जो उस अगोचर और अगम्य ब्रह्म का साक्षात्कार करते हुए इस भवसागर में डूबे हुए असंख्य प्राणियों का अपने ज्ञान और भक्ति के उद्देश्यों से उद्धार कर देते है।
‘विदुषी माता’ उन मेधावी पुत्रों को जन्म देती है, जो अपनी अकाटय विद्वता के समक्ष दूसरों को खड़ा नहीं होने देते। ‘त्यागी जननी’ ऐसे दानी पुत्रों को जन्म देती है, जो अपना सर्वस्व देश, जाति और समाज के कल्याण के लिए दान कर देते हैं, और प्रतिफल में कुछ नहीं चाहते। देश के नागरिकों का सभ्य होना, सुशिक्षित होना अनुशासनप्रिय होना आदि, यह सब कुछ आदर्श-गृहिणी पर आधारित है।
बच्चे के लिए शिक्षा, सभ्यता, अनुशासन, शिष्टता आदि सभी विषयों की प्राथमिक पाठशाला घर ही है, जिसकी प्रधानाचार्या माता है, वह जो चाहे, अपने बालक को बना सकती है। भारत में जितने भी महापुरुष हुए हैं, इतिहास साक्षी है कि उनके जीवन पर उनकी माताओं के उज्ज्वल चरित्र की स्पष्ट छाप अंकित हुई है।
सत्य-भाषिणी, धर्मप्राणा पुतलीबाई के शुभ संस्कार ज्यों के त्यों पुत्र मोहनदास में बचपन से ही दृष्टिगोचर होने लगे थे। भविष्य में वह बालक सत्य और अहिंसा का अनन्य उपासक हुआ, जिसे आज भी समस्त विश्व मानवता का ‘अमर पुजारी’ कहकर श्रद्धा से नत मस्तक होता है। इसी प्रकार छत्रपति शिवाजी की माता जीजाबाई ने घर की प्राथमिक पाठशाला में जो शिक्षा उन्हें (शिवाजी को) दे दी, वही जीवन के अन्तिमक्षणों तक सबल बनकर उनके साथ रही।
महादेवी वर्मा के बाल्यकाल में कबीर और मीरा के जो मधुर गीत उनकी माता ने धीरे-धीरे उनके कर्णकुहरों (कानों) में गुनगुनाए थे, वे गीत आज उनकी ‘विरह की पीर’ बनकर सहसा फूट निकले हैं।
इस प्रकार के एक-दो नहीं, असंख्य उदाहरण दिए जा सकते है, जिनके जीवन के उत्थान का श्रेय आदर्श गृहलक्ष्मियों पर आधारित रहा है। समाज और देश के उत्थान और भावी समृद्धि के लिए एक गृहिणी जितना उपकार कर सकती है, उतना कोई दूसरा व्यक्ति नहीं।
आदर्श गृहिणी के लिए सर्वप्रथम शिक्षा की आवश्यकता है। शिक्षा से मनुष्य की बुद्धि का परिमार्जन होता है। उसे अपने कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का ज्ञान होता है। गुण और अवगुणों की पहचान होती है। जीवन का वास्तविक मूल्य समझ में आता है। मस्तिष्क की ग्रन्थियां खुल जाती हैं।
अत: यदि गृहस्थी के इतने बड़े भार को वह्न करने वाला आधार स्तम्भ ही अशिक्षित है, तो फिर गृहस्थी सुचारूतापूर्वक नहीं चल सकती। वैसे तो कुत्ता भी घर-घर की फटकार खाता हुआ अपना जीवन व्यतीत करता ही है, परन्तु जीवन सुचारू ढंग से जीने के लिए है, इसको अच्छे रूप में व्यतीत करना है, और यह परमावश्यक है कि गृह-लक्ष्मी सुशिक्षित हो।
शास्त्रों में गृहिणी के कई स्वरूप बताए गए हैं। वह विपत्ति के समय सत्परामर्श से मित्र का कर्त्तव्य पालन करती है, माता के समान स्वार्थ रहित साधन और सेवा में तल्लीन रहती है। सुख के समय वह ‘पत्नी’ के रूप में अपने पति को पूर्ण सुख प्रदान करती है। ‘गुरू’ की भांति बुरे मार्ग पर चलने से अपने पति और बच्चों को रोकती है।
बताइये, जिसके इतने महान कर्त्तव्य हों और वही अशिक्षित हो तो फिर कैसे काम चल सकता है? अत: आदर्श गृहिणी के लिए शिक्षा की परम आवश्यकता हैं, परन्तु शिक्षा भी आदर्श-शिक्षा हो, न कि आजकल की जैसी दूषित शिक्षा।
गृह कार्य-दक्षता आदर्श गृहिणी के लिए नितान्त आवश्यक है। यदि वह गृहकार्यों में कुशल नहीं है, तो वह घर को नहीं चला सकती। भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोजन बनाकर अपने गृहस्वामी तथा परिवार के अन्य सदस्यों को खिलाकर आदर्श गृहिणी एक असीम आह्लाद (संतोष) का अनुभव करती है।
लक्ष्मण जब राम के साथ बन चले गए तब उर्मिला को केवल यही दु:ख था कि –
‘‘बनाती रसोई, सभी को खिलाती,
इसी काम में आज मैं मोद पाती।
रहा आज मेरे लिए एक रोना,
खिलाऊं किसे मैं अलोना-सलोना।’’
भोजनादि की व्यवस्था करने में आदर्श गृहिणी को कभी कोई संकोच या लज्जा नहीं होता। यह तो आज की ािश्क्षा और स्वतन्त्रता का दुष्प्रभाव है कि स्त्रियां भोजन बनाने में अपमान समझती हैं। भोजन की व्यवस्था के साथ, आय और व्यय का हिसाब भी गृहिणी को रखना चाहिए।
आदर्श गृहिणी सदैव अपने पति की आय से कम ही खर्च करती है और कुछ थोड़ा बहुत अपने विपत्ति के क्षणों के लिए आर्थिक संकट में अपने पति की सहायता करने के लिए अवश्य बचाकर रखती है। इसीलिए केन्द्रीय एवं अन्य सभी राज्य सरकारों ने भी सबसे ज्यादा जोर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ पर दिया है।
(हिफी)