दूसरों के कष्ट में सहृदयता का भाव रखें
दूसरे के कष्ट का मनुष्य को तभी ज्ञान होता है जब तक वह स्वयं उसका स्वाद नहीं चख लेता। अपनी परेशानियों से मनुष्य बहुत ही दुखी होता है। वह चाहता है कि सभी उससे सहानुभूति रखें। उसका ध्यान रखें और उसकी परवाह करें। बड़े दु:ख की बात है कि उसके इन दुखों को दूसरा कोई भी समझने के लिए तैयार नहीं होता। उसके कष्ट शायद उसके अपने ही होते हैं। किसी के भी मन में उसके प्रति सहृदयता का भाव नहीं आ पाता।
सम्भवत: दूसरे के कष्ट को महसूस करने की भावना प्रदर्शित करने के लिए ही यह उक्ति प्रचलन में है-
‘जाकि न फटे बिवाई सो क्या जाने पीर पराई।’
इस उक्ति का अर्थ है कि जब तक मनुष्य के अपने पैरों की बिवाई नहीं फटती, तब तक उसे दूसरे की पीड़ा का अहसास नहीं हो सकता। इस उक्ति का स्पष्ट सन्देश यही है कि स्वयं दु:ख सहन किए बिना दूसरे की व्यथा का अनुभव नहीं किया जा सकता।
कुछ दिन पूर्व फेसबुक पर निम्न कथा विश्वजीत जी ने पोस्ट की थी जो मुझे बहुत प्रेरणादायक प्रतीत हुई। इसमें थोड़ा-सा परिवर्तन करके आपके साथ साझा कर रही हूँ। एक बादशाह अपने कुत्ते के साथ नदी में नाव से यात्र कर रहा था। उस नाव में अन्य यात्रियों के साथ एक दार्शनिक भी बैठा हुआ था। कुत्ते ने पहले कभी नौका में सफर नहीं किया था, इसलिए वह अपने को सहज महसूस नहीं कर पा रहा था। वह उछल-कूद कर रहा था और किसी को भी चैन से नहीं बैठने दे रहा था।
मल्लाह भी उसकी उछल-कूद से परेशान हो रहा था। उसे ऐसा लग रहा था कि इस स्थिति में यात्रियों की हड़बड़ाहट से नाव डूब जाएगी। कुत्ते के साथ-साथ वह तो डूबेगा ही और दूसरों को भी ले डूबेगा। कुत्ता अपने स्वभाव के कारण उछल-कूद में लगा हुआ था। ऐसी स्थिति के कारण वह बादशाह भी गुस्से में था पर कुत्ते को सुधारने का कोई उपाय उन्हें समझ में नहीं आ रहा था।
सबकी परेशानी को देखते हुए नाव में बैठे हुए दार्शनिक से रहा नहीं गया। वह बादशाह के पास गया और उससे बोला – ‘अगर आप इजाजत दें तो मैं इस कुत्ते को भीगी बिल्ली बना सकता हूँ।‘ बादशाह ने उसे तत्काल अनुमति दे दी। दार्शनिक ने वहाँ बैठे दो यात्रियों का सहारा लिया। उसने उस कुत्ते को नाव से उठाकर नदी में फेंक दिया। कुत्ता तैरता हुआ नाव के खूँटे को पकड़ने लगा। उसको तो अब अपनी जान के लाले पड़ रहे थे। कुछ देर बाद दार्शनिक ने उसे खींचकर नाव में चढ़ा लिया।
अब वह कुत्ता चुपके से जाकर एक कोने में बैठ गया। नाव में बैठे यात्रियों के साथ बादशाह को भी उस कुत्ते के बदले हुए व्यवहार पर बड़ा आश्चर्य हुआ। बादशाह ने दार्शनिक से पूछा – ‘यह पहले तो उछल-कूद और हरकतें कर रहा था, अब देखो कैसे यह पालतू बकरी की तरह बैठा है?‘
दार्शनिक ने राजा के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा- ‘जब तक स्वयं तकलीफ का स्वाद न चखा जाए तब तक किसी को दूसरे की विपत्ति का अहसास नहीं होता। इस कुत्ते को जब मैंने पानी में फेंका तो इसे पानी की ताकत और नाव की उपयोगिता समझ में आ गयी।‘
यह कथा हमें यही समझाती है कि दूसरों के दुखों और परेशानियों में उनका उपहास नहीं करना चाहिए और न ही यह सोचना चाहिए कि वे कामचोर हैं। वे काम से जी चुराने के कारण बहाने बना रहे हैं। उस समय यदि वे वास्तव में कष्ट में हों तो उनकी परेशानियों को देखते हुए उनके साथ सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करना चाहिए।
प्रत्येक मनुष्य को सदैव ही सहृदय बनना चाहिए। उसे दूसरों की पीड़ा को अनुभव करके उनकी सहायता के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाना चाहिए।
-चन्द्र प्रभा सूद