खुशहाली का प्रतीक लोहड़ी
लोहड़ी को नए वर्ष का पहला त्यौहार कहा जा सकता है। इसे मकर संक्रांति की पूर्व संध्या पर नाच गान के साथ बड़े धूमधाम से मनाते हैं। लोहड़ी के दिन तक ठंड अपनी चरम शिखर पर होती हंै। अगले दिन मकर-संक्रांति से सूर्य का उत्तरायण काल प्रारंभ होता है इसीलिए इसे ‘उत्तरायणी’ कहा जाता है।
पर्व या त्यौहार भारतीय संस्कृति और सभ्यता के शाश्वत प्रतीक हैं। भारत में समय-समय पर पर्व उत्सवों को अत्यंत श्रद्धा, आस्था, उमंग, उल्लास और उत्साह के साथ विभिन्न परंपराओं और रीति-रिवाजों के साथ मनाया जाता है। इनसे जुड़ी पौराणिक कथाएं हमें प्रेरणा तो देती हैं, साथ ही रीति-रिवाज, संस्कृति से जुड़ने का अवसर भी देती हैं। ऐसा ही पारस्परिक सौहार्द और रिश्तों की मिठास सहेजने का पर्व है-‘संक्रांति पर्व’। लोहड़ी को उत्तरी भारत अर्थात पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश एवं दिल्ली आदि राज्यों में बड़े धूमधाम एवं उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह मूलत: किसानों का पर्व है। लोहड़ी पंजाब में मनाया जाने वाला विशेष त्यौहार है और प्राय: 13 जनवरी को मनाया जाता है।
किसान इसे खेतों में मनाते हैं। इस समय दूसरी फसल अर्थात रबी की फसल खेतों में खड़ी होती है। लोहड़ी हेतु अलाव जलाने के लिए छोटे-छोटे बच्चे घर-घर दिन में लकड़ी उपले मांगते हैं। शाम को लकड़ियों की ढेरी लगाकर उस पर उपले रखे जाते हैं। अलाव जलाया जाता है। सपरिवार या समाज भर के लोग मिलकर चारों तरफ एकत्र होकर नाच-गाकर खुशी मनाते हैं। जलती आग को तिल, मक्का, चावल, गेहूं, मूंगफली आदि की ‘तिलचौली‘ डालते हैं। धारणा है कि इससे वातावरण में कफ, ठंड का प्रकोप कम होता है। इस अवसर पर रंग-बिरंगे नए कपड़े पहन एवं सजकर आग के चारों तरफ ढोल एवं नगाड़ों की थाप पर भंगड़ा एवं गिद्दा डालते, नाचते व गाते हैं।
इस पर्व पर पूरी तरह पंजाब की लोक-संस्कृति झलकती है। यह मिट्टी की सोंधी खुश्बू वाले पंजाब के मेहनती एवं बलशाली लोगों का मुख्य त्यौहार है। सम्पूर्ण पंजाबी लोक-संस्कृति स्वरूप वाले इस त्यौहार में जो भंगड़ा एवं गिद्दा नृत्य किया जाता है उसमें पंजाबियों का शौर्य-बल दिखता है। ये दोनों नृत्य अन्य सभी भारतीय-नृत्यों से हट कर हैं।
लोहड़ी का पर्व उस घर परिवार के लिए खास होता है जहां ब्याह कर नई बहू आई होती है या नए सदस्य (संतान) का आगमन हुआ होता है। लोहड़ी के दिन मक्के की रोटी, सरसों का साग, तंदूरी रोटी एवं गन्ने के रस व चावल से बनी रौ (खीर) खाते हैं। इस अवसर पर एक-दूसरे को बधाई एवं उपहार देते हैं। भुना मक्का, मूंगफली, तिल, गुड़ की गजक, मिठाई, रेवड़ी आदि खाते व खिलाते हैं। मनोरंजन करते एवं खुशियां मनाते हैं।
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पर्व की महिमा, महत्व और मान्यताएं:-
किसानों की खुशहाली से जुड़े लोहड़ी पर्व की बुनियाद मौसम बदलाव तथा फसलों के बढ़ने से जुड़ी है। लोकोक्ति के अनुसार, ‘लोही’ से बना लोहड़ी पर्व, जिसका अर्थ है ‘वर्षा होना, फसलों का फूटना’। ठंड के मौसम में किसान अपने खेत की जुताई-बुवाई जैसे सारे फसली काम करके फसलों के बढ़ने और उनके पकने का इंतजार करते हैं। इसी समय से सर्दी भी घटने लगती है, इसलिए किसान लोहड़ी पर्व के माध्यम से इस सुखद, आशाओं से भरी परिस्थितियों को सैलिब्रेट करते हैं।
धार्मिक कथाओं, मान्यताओं एवं किवंदतियों में इस पर्व से जुड़ी कई धारणाएं प्रचलित हैं। शास्त्रों के मुताबिक आग और पानी नए जीवन का प्रतीक है। आग को धरती पर सूर्य का प्रतिनिधि भी कहा गया है, इसलिए लोहड़ी पर दोनों का महत्व बढ़ जाता है। खेतों में अन्न का उत्पादन होता है और धरती पर पशु, पक्षी, पेड़-पौधे और मानव जीवन का विकास होता है।
धार्मिक मान्यता के अनुसार होलिका और लोहड़ी दोनों बहनें थीं। छोटी बहन लोहड़ी के नाम पर यह पर्व मनाया जाता है। किवंदतियों में लोहड़ी की शुरूआत ‘लोही’ के नाम से हुई थी। ‘लोही’ संत कबीर जी की पत्नी थी। पंजाब में ग्रामीण इलाकों में आज भी इस पर्व को ‘लोही’ कहा जाता है। ‘लोही’, लोहे के उस छोटे टुकड़े को कहा जाता है, जिससे आज भी पंजाब के ग्रामीण इलाकों में तवे का काम लिया जाता है।
पंजाब की लोक-कथाओं में मुगल शासनकाल के दौरान एक मुसलमान डाकू था, दुल्ला भट्टी। उसका काम था राहगीरों को लूटना, और गरीबों की मदद करना! उसने एक निर्धन ब्राह्मण की दो बेटियों सुंदरी और मुंदरी को जालिमों से छुड़ाकर उनकी शादी की तथा उनकी झोली में शक्कर डाली। एक डाकू होकर भी निर्धन लड़कियों के लिए पिता का फर्ज निभाकर वह सभ्यता की एक किवदंती बन गया और आज भी लोहड़ी के मौके पर उसको याद करते हैं।
सुन्दर मुन्दिरिये हो
तेरा कौण विचारा हो
दुल्ला भट्ठी वाला हो
दुल्ले धी विआही सानूं शक्कर पाई हो
पा माई लोहड़ी जीवे तुहाडी जोड़ी
यह लोहड़ी पर्व अब राज्यों की सीमा लांघकर पूरे भारत-भर में एवं विश्व के उन देशों में, जहां पंजाबी भारतीय हैं, वहां बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इस त्यौहार के बहाने सर्वत्र पंजाबी भारतीय लोक-संस्कृति महकती है। इस अवसर पर स्त्री-पुरुषों द्वारा पहनी जाने वाली पोशाक खास तरह की होती है। रात को धूमधाम के साथ लोहड़ी मनाई जाती है। सुबह मकर संक्रांति का दिन आ जाता है।
वर्षभर में बारह संक्रांतियां होती हैं। इसमें से मकर-संक्रांति विशेष महत्व रखती है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन सूर्य का मकर राशि में प्रवेश होता है। सूर्य का उत्तरायण काल, देवों का समय, उत्तरायणी आरंभ होता है। इस दिन से सूर्य उत्तर दिशा की ओर गमन करता है। सूर्य नजदीक आता जाता है। साथ ही रातें छोटी होना आरंभ हो जाती हैं जबकि लोहड़ी के दिन पौष मास, बड़ी रात एवं तेज ठंड वाली होती है।
मकर-संक्रांति से मौसम बदलने की शुरूआत होती है। ठंड विदाई एवं ग्रीष्म का पदार्पण होता है। संक्रांति के दिन पतंग उड़ाते एवं खुशियां मनाते हैं। इस अवसर पर भारत भर में अनेक स्थानों पर मेले भी लगते हैं। भारत के कई राज्यों में यह त्यौहार अन्य नामोें एवं क्षेत्रीय पहचान, आंचलिक खासियत के साथ मनाया जाता है।
पोंगल
भारत के दक्षिणी क्षेत्र तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में मकर-संक्रांति ‘पोंगल’ के रूप में मनायी जाती है। इन प्रदेशों की स्थानीय भाषा में पोंगल शब्द का अर्थ है ‘चावल से बनाया गया मीठा और स्वादिष्ट व्यंजन।’ किसान अच्छी फसल के लिए अपने ईष्ट देव,भगवान को धन्यवाद देने के लिए यह त्यौहार मनाते हैं।
पोंगल उत्सव तीन दिनों तक नृत्य, संगीत आदि विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ संपन्न होता है। इन तीन दिनों में वहां दिवाली जैसा उत्सवी माहौल रहता है। किसान अपने खेतों, हल और अन्य कृषि उपकरणों की साफ-सफाई करते हैं। घरों के आंगन में कोलम्स (चावल के आटे से बनी सुंदर रंगोली) सजाई जाती है। सर्वत्र हंसी-खुशी का माहौल रहता है। नई फसल का स्वागत करने के लिए एक मिट्टी के बर्तन में दूध उबाला जाता है
और फिर उसमें नए चावल, दाल व घी डालकर खिचड़ी बनायी जाती है। इसे पूरे परिवार के लोग खाते हैं। पोंगल का दूसरा दिन ‘मट्टू पोंगल‘ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन किसान अपने पशुधन को स्वच्छ कर फूलों व घंटियों से सजाता है, उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना करता है और अच्छी फसल प्राप्त होने का धन्यवाद देता है। तमिल पंचांग का नववर्ष पोंगल के पर्व से प्रारंभ होता है।