बेटियांजो बनींसमाज का गौरव Daughters who became the pride of society
किसी ने शायद ठीक ही कहा है कि बेटे यदि भाग्य से मिलते हैं तो बेटियां सौभाग्य से। ऐसे ही नसीब वाले हैं मैहना खेड़ा (जिला सिरसा) गांव के भागीरथ गरवा, जिनकी तीन बेटियां अपने दम पर पुरुष प्रधान समाज में महिला सशक्तिकरण का एक उदाहरण बनी हैं। जहां बड़ी बेटी सुलेख रानी ने नई नजीर पेश करते हुए गांव में सबसे पहले दसवीं, बारहवीं व बीए तक शिक्षा हासिल करने का गौरव हासिल किया, वहीं मंझली बेटी विनोद कुमारी आज अधिकारिक रेंक पर सेवाएं दे रही है। Daughters who became the pride of society
जबकि सबसे छोटी बेटी पंकजा देवी ने ट्रेक्टर का स्टेयरिंग संभाल कर खेतों की नुहार बदल डाली। खेतों में दौड़ते पहिये देखते ही देखते सड़क पर फर्राटेदार चलती बस की शान बन गए। उसने पहली महिला बस ड्राइवर बनकर जिला ही नहीं, प्रदेश का मान बढ़ाया। वहीं बेटियों के प्रति समाज की मिथ्या धारणा को भी बदल दिया। ।
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पहली महिला बस ड्राइवर बनने
हालांकि पहली महिला बस ड्राइवर बनने वाली पंकज देवी के लिए यहां तक पहुंचना इतना आसान नहीं था, पर उसने कभी हौसला नहीं हारा। खुद को साबित करने की जिद्द ने उसके इरादों को दृढ़ बना दिया। मर्दाें की घृणा दृष्टि और टोंट को नजरांदाज करते हुए पंकजा देवी ने हौसले रूपी बस की गति को कभी थमने नहीं दिया।
बस का स्टेयरिंग थाम कर उसने यह दर्शा दिया है कि भले ही रास्तों में कितनी भी कठिनाइयां व अड़चनें हो, लेकिन जिंदगी की रफ्तार को कभी कम नहीं होने देना चाहिए। उसने गांवों की बेटियों को इतना मजबूत बनाया कि वे शहर में बिना किसी संकोच के अपने शिक्षा प्राप्ति के लक्ष्य को हासिल कर सकें। छात्राओं को आत्म सम्मान के साथ जीने की सीख भी दी। पंकज देवी मजनुओं को सबक सिखाने के लिए दुर्गा शक्ति के रूप में विख्यात हुई।
पिताजी को खेती कार्य
पंकजा देवी बताती हैं कि तीन बहनों के अलावा उसका एक छोटा भाई भी है। बचपन के दिनों में मुझे अकसर पिताजी के साथ खेतों में जाने का अवसर मिलता। पिताजी को खेती कार्य में मेहनत करते देखती तो मेरे मन में भी ऐसा कार्य करने की इच्छा होती। धीरे-धीरे मैं खेती कार्य में हाथ बंटाने लगी। कस्सी लेकर पानी लगाती। उन दिनों किराये पर बुहाई करवाते थे। किरायेदार ट्रेक्टर के साथ कई बार गांव से खेत जाने का अवसर मिलता तो पिताजी को आग्रह कर मैं ट्रेक्टर चलाने की जिद्द करती और पिता जी मान भी जाते।
कच्चे रास्ते पर ट्रैक्टर अकसर इधर-उधर दौड़ता, लेकिन मैंने कभी हार नहीं मानी। बाद में अपना टैÑक्टर ले लिया, जिसके बाद मैं पूरा खेती कार्य स्वयं करने लगी। देर रात तक बुआई, बिजाई करना, ट्राली बैक लगाना, डॉली कराहा चलाना जैसे कार्य मेरे मनपसंद रहे हैं। हालांकि शुरूआत में गांव के लोग मेरे मां-बाप को ताहने मारते थे, कि यह तो अपनी बेटी से खेत का कार्य करवाते हैं। लेकिन पिता जी ने कभी हमें यह अहसास तक नहीं होने दिया। उलटा वे हमेशा बेटियों को बेटा समझकर हौसला बढ़ाते रहे हैं पंकजा बताती है कि मन में हमेशा कुछ बड़ा करने की इच्छा थी। एक बार चाचा जी काट्रक ड्राइव किया तो देखने वाले सभी हैरान हो गए। इसी दौरान मेरी फेफाना गांव में शादी हो गई। ससुराल परिवार ने भी पूरा सहयोग किया, जिसके चलते मैंने ड्राइविंग लाइसेंस बनाया और नौकरी ज्वाइन की।
मुश्किलें बड़ी थी, पर हौसला कभी नहीं हारा
पंकजा देवी के लिए बस चलाने के शुरूआती दिनों में समस्या रूपी सड़क बड़ी उबड़-खाबड़ थी। मुझे महिला कॉलेज में 3 अक्तूबर 2007 को बस ड्राइवर की नौकरी मिली। मुझे कई गांवों से पढ़ने वाली लड़कियों को शहर में लेकर आना होता है। शुरू के दिनों में दूसरे वाहन चालक मुझे बड़ा घूर-घूर कर देखते कि एक लड़की बस चला रही है। ओटू हैड के नजदीक अकसर एक ड्राइवर मुझे क्रॉस करते समय अजीब सी हरकतें करता रहता।
इस बारे में जब पिता जी से चर्चा की तो उन्होंने मुझे हौंसला देते हुए कहा बेटा घबराना नहीं, बल्कि मुंह तोड़ जवाब देना है। अगले रोज उसी स्थान पर मैंने अपनी बस उसकी बस के आगे सड़क पर लाकर खड़ी कर दी और सीट के नीचे से डंडा निकालकर हवा में लहराया तो वह ड्राइवर माफी मांगने लगा। ऐसी कई घटनाएं हुई पर मैं कभी डरी नहीं। कई बार लड़के बस में आने वाली छात्राओं को परेशान करने की कोशिश करते, लेकिन मैंने उनको ऐसा सबक सिखाया कि अब कोई आंख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं करता।
डयूटी के प्रति समर्पण लाजवाब
पंकज देवी अनुशासन प्रिय इन्सान है। वह अपनी डयूटी में कभी कोताही नहीं बरतती। अपितु कर्त्तव्य निष्ठा की अनूठी मिसाल पेश की है। 8 वर्षीय बेटी की मां पंकज देवी बताती हैं कि मेरी बेटी जब पेट में पल रही थी, उन दिनों में मैंने कभी छुट्टी नहीं ली। यहां तक जिस दिन बेटी पैदा हुई उस सुबह भी वह बस लेकर कॉलेज पहुंची थी। दोपहर में थोड़ी तबीयत खराब हुई तो वह संबंधित अधिकारी के पास गई, और जब उन्हें बताया कि डाक्टर ने आज डिलीवरी के लिए बोला है, तो उस अधिकारी ने खड़ी होकर मुझे सैल्युट किया, कि वाह! ड्यूटी के प्रति ऐसा समर्पण कमाल है!!
खुद को इतना मजबूत बनाओ कि समाज आपसे अपेक्षा करे
लड़कियां आज उन कामों को करने में भी गुरेज नहीं कर रही हैं जिनमें हमेशा पुरुषों को प्राथमिकता दी जाती रही है। पंकज देवी का कहना है कि लड़कियों को कभी भी खुद को कमजोर या कमतर नहीं आंकना चाहिए। कोई समस्या, परेशानी आए तो अपने माता-पिता से नि:संकोच चर्चा करें। खुद को इस काबिल बनाएं कि समाज आपसे अपेक्षा करे, ना कि आपकी उपेक्षा करे।
भाईचारे के संदेश लेकर 22 शहरों में दौड़ी ‘सूफिया’
जब कोई सबके हित को ध्यान में रखकर किसी बड़े मिशन, किसी बड़े संकल्प से लैस होकर चल पड़ता है, सबसे अलग, सबसे बड़ा दिखने लगता है। ऐसी ही शख्सियत बन चुकी हैं अजमेर (राजस्थान) की 33 वर्षीय अल्ट्रा रनर सूफिया खान, जिन्होंने 87 दिन में 4035 किमी दौड़कर वर्ल्ड रिकॉर्ड कायम कर दिया है। यह सिर्फ, केवल रिकॉर्ड बनाने जैसी बात नहीं, इसके पीछे एक बड़ा मकसद रहा है, भारतीय समाज में भाईचारा का संदेश देना।
सूफिया खान पिछले दिनों कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक दौड़ीं। मकसद था- देश के 22 शहरों में जाना और लोगों से मिलकर उन्हें भाईचारा, एकता, शांति और समानता का संदेश देना। मिशन पूरा कर उन्हें गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिकॉर्ड का सर्टिफिकेट भी मिल गया है। सूफिया कहती हैं कि उनका टारगेट दौड़ को 100 दिन में पूरा करना था लेकिन उन्होंने उसे 87 दिनों में ही हासिल कर लिया। अपने मिशन ‘रन फॉर होप’ के दौरान वह जिस भी शहर से गुजरीं, वहां-वहां के लोगों ने उनका अभिवादन किया।
महिला के नाम से होती घर की पहचान
महिला उत्थान की गर बात करें तो पंजाब का हिम्मतपुरा गांव ने जो नजीर पेश की है, उसका कोई सानी नहीं है। इस गांव में महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, क्योंकि यहां हर घर की पहचान उन महिलाओं के नाम से ही है। भटिंडा जिले का यह ऐसा आदर्श गांव है जहां हर घर के बाहर पुरुषों का नाम लिखने की बजाए महिलाओं के नाम की नेम प्लेट लगी हुई है। इस गांव की सड़कों और गलियों का नाम भी महिलाओं के नाम पर रखा गया है।
हिम्मतपुरा के लोगों की हिम्मत अब अन्य पंचायतों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन रही है। बठिंडा से 30 किलोमीटर दूर बसे इस गांव में प्रवेश करते ही गलियों में घरों की दीवारों पर ‘धीयां दा सत्कार करो’, ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के स्लोगन लिखे दिखाई पड़ते हैं। हर घर के बाहर परिवार की सबसे बुजुर्ग महिला के नाम की नेम प्लेट लगी है। एक गली का नाम पहली महिला अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला के नाम पर रखा गया है।
एक अन्य गली का नाम मशहूर साहित्यकार दलीप कौर टिवाणा के नाम पर रखा गया है। दलीप कौर को साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम के लिए 2004 में पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा गया था। यही नहीं, इस गांव में हर लड़की को स्कूल भेजना अनिवार्य बनाया गया है। इस गांव में कुछ खास नियम भी बनाए गए हैं जिसमें महिला को अपशब्द कहने पर 500 रुपये जुर्माना लगाया जाता है, वहीं बेटी के पैदा होने और शादी के बाद विदाई से पहले पौधा लगाने का रिवाज है।
गांव की बेटी बनी योगा में गोल्ड मेडलिस्ट
जो लोग सोचते हैं कि लड़कियां कुछ नहीं कर सकती, उन्हें चूल्हा-चौका ही संभालना चाहिए, तो हरियाणा प्रदेश के पश्चिमी कोने पर पंजाब सीमा से सटे गांव पन्नीवाला मोरिका की बेटी किरणजीत कौर ऐसे लोगों के मुंह पर तमाचा जड़ती है।
किरणजीत कौर ने मलेशिया में योगा प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीतकर साबित कर दिया है कि लड़कियां किसी भी मामले में किसी से भी कम नहीं हैं। दरअसल किरणजीत कौर एक किसान की बेटी है और घर-परिवार भी बिल्कुल साधारण है। लेकिन किरणजीत एक बुलंद हौसले वाली मजबूत लड़की है, जो अपने दम पर सफलता हासिल करती है। उन्हें परिवार का भरपूर सहयोग मिलता है, लेकिन फिर भी वह खेल, पढ़ाई के साथ-साथ घरेलू काम-धंधों में भी अपनी मां व मौसी का खूब साथ देती है। यही नहीं, अपने छोटे भाई को पढ़ाने का समय भी वह निकाल ही लेती है। किरणजीत कौर का जन्म 9 अक्टूबर 2000 में हुआ था और करीब 19 वर्षीय किरणजीत कौर ने बताया कि अब उसका लक्ष्य देश की ओर से खेलना व आईपीएस बनकर बेटियों के लिए प्रेरणा बनना है।
सफलता की कहानी
किरणजीत कौर पढ़ाई के दौरान से ही स्कूल में पीटीआई नीलम रानी व अनिल कुमार की मदद से योगा के लिए प्रोत्साहित हुई। वह स्कूल गेम्स में राष्ट्रीय स्तर पर दो बार खेल चुकी है। वर्ष 2018 में उसने पंजाब के अकाल यूनिवर्सिटी तलवंडी साबो में बीएससी की पढ़ाई में एडमिशन लिया है। पढ़ाई के साथ-साथ योगा पर भी पूरा ध्यान रखा और कॉलेज स्तर पर पंजाब की ओर से हिस्सा लेती रही। जबकि अन्य फेडरेशन व फाउंडेशन और चैंपियनशिप गेम्स में हरियाणा की ओर से खेलते हुए राष्ट्रीय स्तर पर कई प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले चुकी है। इस बार उसने 9 से 11 फरवरी तक मलेशिया में हुई इंटरनेशनल चैंपियनशिप में हिस्सा लिया है और उसमें योगा प्रतियोगिता में इंटरनेशनल स्तर पर गोल्ड मेडल पाने का सपना पूरा किया है।
किरनजीत उस समय छठी कक्षा में पढ़ती थी और घर में कहीं उसे मां-बाप को बातें करते सुन लिया कि यह तो वैसे ही पैदा हो गई, अगर मर जाती तो अच्छा था। इस बात को लेकर वह दो-तीन दिन परेशान-सी रही। जब मैंने खामोश रहने का कारण पूछा तो वह मेरे पास आकर रोने लगी और उसने आपबीती मुझे बताई और कहा कि मैं भी कुछ कर दिखाना चाहती हूं। उसकी लगन व मौके की स्थिति को देखते मैंने उसे योगा की ट्रेनिंग देनी शुरू की। अपनी कड़ी मेहनत और लगन से उसने ये सफलता हासिल की है।
-नीलम रानी, योगा टीचर
एक परिवार, तीन बेटियां और तीनों ही शानदार खिलाड़ी
कहते हैं कि औलाद अच्छी हो तो बाप को सिर गर्व से हमेशा ऊंचा रहता है, लेकिन जिस बाप की तीन बेटियां हों और तीनों ही एक से बढ़कर एक खिलाड़ी हों, तो सोचिए उस बाप का सीना गर्व से कितना चौड़ा होगा। जी हां, बेटियों ने बाप को इस गर्व से नवाजा है और समाज में उदाहरण पेश किया है कि बेटियों को अगर अच्छी परवरिश व शिक्षा दी जाए, तो बेटियां हर अच्छे नेक काम में आगे बढ़ सकती हैं।
राजस्थान राज्य के गांव श्री गुरुसर मोडिया में रहने वाली गुरविंदर कौर, अकवीर कौर व कंचनजीत कौर पढ़ाई के साथ-साथ खेलों में भी अपनी सफलता के झंडे गाड़ रही हैं। इनका इकलौता भाई सुखदीप सिंह भी क्रिकेट में जिला स्तर पर अपना हुनर दिखा चुका है। तीनों लड़कियां गांव में ही शाह सतनाम जी गर्ल्स स्कूल की छात्राएं हैं।
पहली बेटी गुरविंदर कौर हैंडबॉल की खिलाड़ी है। स्कूली स्तर के साथ-साथ जिला स्तर पर वह गई बार खेल चुकी है और जब वह 12वीं कक्षा में थी, तब पढ़ाई के साथ-साथ राष्टÑीय स्तर पर हैंडबाल प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और सिल्वर मेडल हासिल किया।
दूसरी बेटी अकवीर कौर बास्केटबॉल की बेहतरीन खिलाड़ी है। वह कई बार जिला स्तर की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेकर अपने स्कूल व गांव का नाम रौशन कर चुकी है।
सबसे छोटी बेटी कंचनजीत कौर की बचपन से ही तीरंदाजी में रूची रही है। गत दिनों झारखंड के रांची में 65वीं नेशनल चैपियनशिप में चौथा स्थान हासिल कर उसने अपने मां-बाप के साथ-साथ स्कूल, गांव व गुरुजनों का नाम रोशन किया।
पिता का जज्बा काबिले-तारीफ:
चारों बच्चों के पिता 50 वर्षीय जसवीर सिंह बचपन से ही डेरा सच्चा सौदा से जुड़े हैं। पहले वह गांव में कपड़े सिलाई का काम करते थे, परंतु बाद में आॅपरेशन हो जाने के चलते सिलाई का काम छोड़ दिया और अब एक दुकान कर मेहनत-मजदूरी कर बच्चों की परवरिश व पढ़ाई करवा रहे हैं। आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद भी बच्चों की पढ़ाई और खेलों में कोई कमी नहीं आने दी। वहीं उनकी पत्नी चरणजीत कौर भी मेहनत-मजदूरी कर घर-बार चलाती हैं। दोनों मां-बाप इस बात की मिसाल हैं कि बेटियां कभी भी मां-बाप पर बोझ नहीं होती, बस जरूरत है उन्हें सही दिशा और शिक्षा देने की।
पूज्य गुरु जी की मिली प्रेरणा
तीनों लड़कियों का कहना है कि पूज्य गुरु जी जब कभी भी स्कूल में आते, तो स्कूली बच्चों से गेम के बारे में स्पेशली बातें करते और गेम के प्रति नए-नए टिप्स बताते। उन्हीं का अनुसरण कर वे खेलों में आगे बढ़ती रहीं। कंचनजीत काफी समय से तीरंदाजी की ट्रेनिंग ले रही है। और कभी कोई निशाना चूक जाता तो वह जिद कर बैठ जाती थी कि सर ऐसा क्यों हो रहा है और उन्हें दोबारा टिप्स बताकर करने को कहते तो वह मेहनत करने से पीछे नहीं हटती जिसकी बदौलत उसने कई जगह से गेम जीते और 65नेशनल चैंपियनशिप में चौथा स्थान हासिल कर स्कूल गांव अपने मां-बाप के साथ-साथ गुरुजनों का भी नाम रोशन किया
-विनेश कुमार, पीटीआई
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