लौट आये वो Sunday…!
एक दिन होता है जब लगभग पूरा परिवार साथ होता है,।।।उममम।।।
सच कहूं तो ‘साथ’ होता था। साप्ताहिक पर्व की तरह मनाया जाता था संडे। अब भी चाहें तो साथ मना सकते हैं! छुट्टी के दिन की सुबह अनूठी होती है। अलसाई सी, मुस्कान भरी, जैसे ही ख्याल आता है कि आज छुट्टी है, एक इत्मीनान-सा लगता है। नींद तो मारे खुशी के गायब हो जाती हैं, पर आँखें सुकून में फिर मुंद जाती हैं। शायद सुबह अभी भी ऐसी ही होती है, लेकिन अब सबके संडे अलग-अलग हो गए हैं।
रामायण, महाभारत और चाणक्य के जमाने में ये साझा हुआ करते थे। मतलब जब ये धारावाहिक टीवी पर आते थे, तब पूरे परिवार को अपने सामने पाते थे। इसके बाद भी जंगल बुक, डिफरेंट स्ट्रोक्स, देखो मगर प्यार से, इधर-उधर, एक कहानी, दर्पण जैसे धारावाहिक हर उम्र के दर्शक को बांधे रखते थे।
खैर बात टीवी देखने की नहीं हो रही है, यहां बात तो संग मिलकर छुट्टी का दिन बिताने की है। रविवार की योजना बनाने का जिम्मा पहले घर के बड़ों के पास था, सो जो तय होता, उसमें सबकी हामी होती ही थी।
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वो बुआ-मामा का लंच:
ओफ्फो।।। कितना पैर पटकते थे कि आज क्यों बुला लिया खाने पर। लेकिन बड़ों से ये सुनने के बाद कि ‘‘ऐसा नहीं कहते, बड़े हैं वो लोग। सबसे मिलना-जुलना सीखो।’’ चुपचाप सोफों की सफाई और कुशन्स के कवर बदलने में जुट जाते थे। ममेरे-फुफेरे भाई-बहनों के साथ दोपहर की मटरगश्ती, लूडो, कैरम के खेल और झींगा-मस्ती। ऐसा भी हुआ करता था कि परिवार के किसी सदस्य के विवाह, जन्मदिन की पुरानी तस्वीरें देखते हुए बीती बातों को याद करते थे। बचपन के किस्से याद करते दोपहर से शाम तक हो जाने की खबर नहीं रहती थी। तब मोबाइल नहीं था, फिर भी कम्युनिकेशन कितना ज्यादा था।
रविवार के विशेष काम:
कुछ विशेष काम होते थे, जो लगभग रविवार को ही होते थे। टेबल सजाना, परदे बदलना, गाड़ी धोना, अपनी अल्मारी व्यवस्थित करना, बालों में तेल लगाकर घंटों यह बात सुनने के बाद कि ‘कब नहाओगे’, दोपहर बाद नहाना और फिर लम्बी तान के सोना। देर शाम तक जब आंख खुलती थी, तो संडे बीत चुका होता था। कोई कहता कि लिखो, आज क्या मजा आया, तो अलमारी से निकले पुराने कागजों के किस्सों से लेकर, घर के बड़ों से मिली व्यवस्था और मेलजोल के सबक की लम्बी लिस्ट बना देते।
जब पिज्जा-बर्गर नहीं थे:
तब हर संडे एक नए प्रयोग की भरपूर गुंजाइश हुआ करती थी। कितनी बार तो हर संडे नियम बदलने का मन भी नहीं करता था। सुबह फेंटी हुई कॉफी बनाना, पोहे-ब्रेड पकोड़े का नाश्ता, दोपहर के दाल-चावल और अचार, ठंड के दिनों में धूप सेकते हुए हरे चने खाते हुए पूरे परिवार का बतियाना, गर्मियों में आमों की दावत और बरसात के संडे के तो कहने ही क्या। शाम को गरमा-गर्म चने-चबेने, पकौड़े और अदरक की चाय की चुस्कियों के साथ फुआरों के नजारे आंखों में भरना। जाहिर सी बात है, छुट्टी का दिन मनाना, साथ में जीना सीखने का एक नाम हुआ करता था। अब आधुनिक एकाकी परिवारों में रविवार भी एकाकी होकर रह गया है।
सबका अपना-अपना संडे:
संडे का अपना फंडा मानते हुए, घर के सबसे छोटे सदस्य तक के पास अपनी एक निजी योजना होती है संडे के लिए। परिवार के हर व्यक्ति का इस दिन को जीने का अपना अलग अंदाज हो गया है। यूँ माना जाता है कि इस दिन हर सदस्य की अपने हफ्ते भर वाले कामों से छुट्टी है। बच्चों की पढ़ाई से , बड़ों की घर के काम से और हां रसोई से भी। शॉपिंग अब हर हफ्ते हो जाती है, सो बाहर खाना भी।
समझ का कितना अभाव है, इससे ही पता चल जाता है कि खरीदारी के समय बच्चों के पास भी मोबाइल रहता है कि कहीं निगाह से ओझल हो जाएँ तो फोन कर ढूंढ सकें।
खो तो शायद सभी गए है। एक दूजे को जोड़ने वाला तार कहीं उलझ गया है। इस तार का सिरा ढूंढोगे, तो सबसे आगे संडे मिलेगा। यहीं से फिर डोर थाम लें और संडे को साझा बना लें, तो कितना मजा आये।
वह संडे फिर आ जाएगा:
- एक दूसरे के साथ मिलकर घर की साफ सफाई करें।
- साथ बैठकर टीवी देखें।
- नाश्ता खाना बनाने में पुरुष भी सहयोग दे सकते हैं।
- इस एक दिन मोबाइल त्याग दें।
- एक दिन साथ बैठकर खाना खाएं। खूब बातचीत करें।
- मिलजुलकर गाड़ी धोएं।
- हो सके, तो घर में रहकर साझी गतिविधियों में वक्त बिताएं।
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