ये सच्चा सौदा आदमियों के आसरे नहीं है!
डेरा सच्चा सौदा बागड़ किकराली, नोहर, जिला हनुमानगढ़ (राज.)
पुट्टर! तू फिक्र ना कर। सत्संग जरूर होगा और जिंदाराम की खूब रड़ मचेगी। सब कुछ सतगुरु पर छड्ड दे। सतगुरु अंदर से उनको घुटेगा। ये सच्चा सौदा आदमियों के आसरे नहीं है।
तू चल कर गांववालों को बोल दे कि ‘मस्ताना जी’ आ रहे हैं!’ पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने अपने सख्त अलफाजों से काल को चुनौती देते हुए गांव किकरांवाली (किकराली) में जबरदस्त सत्संग फरमाया और गुरुमंत्र की दात भी खुलकर बांटी। वैसे इस गांव में काल और दयाल के बीच कशमकश का बड़ा दौर चला। लेकिन रूहानी ताकत के सामने काल घुटने टेकने को मजबूर हो गया। गांववाले आज भी सतगुरु की रहमतों का बखान करते नहीं थकते। इन्हीं खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ इस बार आपको डेरा सच्चा सौदा के इतिहास में बागड़ के नाम से मशहूर डेरा सच्चा सौदा बागड़ किकरांवाली से रूबरू करवा रहे हैं।
सन् 1955-56 की बात है। उस दिन दोपहर बाद पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज बैलगाड़ी की शाही सवारी के द्वारा लालपुरा गांव से किकरांवाली की ओर रवाना हुए। साथ में बड़ी संख्या में साध-संगत थी, जिसमें जबरदस्त उत्साह दिख रहा था। पूज्य सार्इं जी आगे-आगे तो संगत पीछे-पीछे खुशी-खुशी दौड़ती जा रही थी। कई सत्संगी इस दरमियान खेतों में से मतीरे, ककड़ियां, काचर आदि तोड़ कर खाते और फिर से दौड़ कर संगत के पास पहुंच जाते। जब उन लोगों की इस हरकत पर पूज्य सार्इं जी की दृष्टि गई तो कड़क आवाज में हुक्म फरमाया- ‘खबरदार! किसी ने भी खेत के एक तिनके को भी नुकसान नहीं पहुंचाना है। वरना गांव वाले ये बोलेंगे कि मस्ताना जी ने हमारी फसल बर्बाद करवा दी।’ 82 वर्षीय गणपत राम बताते हैं कि जब पूज्य सार्इं जी ने हुक्म फरमाया तो साध-संगत ने उसे सत् वचन कहकर माना भी। शाही हुक्म के बाद सारी संगत एक पगडंडी यानि एक लाइन में चलते हुए गांव में पहुंची। इधर किकरांवाली गांव में भी उत्सव-सा माहौल था, क्योंकि प्रेमी सही राम खाती तथा लाल चंद गोदारा ने पूर्व में ही गांव में पूज्य सार्इं के शुभआगमन के बारे में बता दिया था।
सत्संग की खबर आस-पास के गांवों में भी हो गई थी। उस दिन पे्रमी धन्ना राम लालपुरा, ख्याली राम, पतराम, मुखराम, दादू बागड़ी रामपुरिया, खेता राम, आदराम मेघवाल, सूरजाराम, लालचंद और ननाऊ गांव के प्रेमी रावत राम व गुरमुख भी शाही कारवां के साथ आए थे। सूरज की ढलती लालिमा के बीच पूज्य सार्इं जी ने गांव में पधारकर ग्रामीणों के बुझे चेहरों को रूहानी नूर से चमका दिया था। उधर रात के सत्संग की तैयारियां शुरू हो गई। बताते हैं कि मेघा राम गोदारा के चबुतरे पर स्टेज लगा दी गई।
जबकि संगत पहले से सत्संग पण्डाल में जाकर बैठ गई थी, जो प्रेमी सही राम खाती के घर लगा हुआ था। जब पूज्य सार्इं जी सत्संग करने के लिए स्टेज की तरफ आ रहे थे तो सेठ दुली चंद ने खड़े होकर जोर-जोर से ‘धन-धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ के नारे बुलाए। पूज्य सार्इं जी अपने प्यार की अलौकिक मस्ती बिखेरते हुए धीरे-धीरे मदमस्त चाल से स्टेज की तरफ बढ़ रहे थे। चारों तरफ अपनी पावन दृष्टि डालते हुए मस्ती भरे अंदाज में वचन फरमाया, ‘वाह बई, वाह! हर तरफ से ही बड़े प्रेम की आवाजें गूंज रही हैं। बल्ले! वरी! इस नगर में तो बहुत प्रेम है। कौन कहता है यहां पर प्रेम नहीं है!’
Table of Contents
‘ये डेरा इसरार ने मंजूर किया है…’
पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने उन दिनों राजस्थान के जीवोद्धार के दौरान दो बार किकरांवाली गांव में सत्संग किया। ऐसी रूहानी रहमत बरसी कि गांव के अधिकतर लोग नामलेवा जीव बन चुके थे। एक बार गांव वालों ने मिलकर सहमति बनाई कि अपने गांव में भी डेरा बनाया जाए। इसके लिए बकायदा सर्वसम्मति से गांव की पूर्व दिशा में खाली पड़ी जमीन का चयन किया गया। उस समय वहां झाड़-बीयाबान होता था। 71 वर्षीय विजय गोदारा बताते हैं कि उसके बाद प्रेमी खेमा पूनिया, हरजी मेघवाल, सही राम, लालचंद, नंद राम, लाधू राम, कृष्ण राम और छोटा लाल चंद आदि कई सत्संगी दरबार पहुंचे और पूज्य सार्इं जी के चरण कमलों में अपने गांव में डेरा बनवाने के लिए अरदास की।
प्रेमी भाई उस दौरान डेरे के लिए जमीन का नक्शा भी बनाकर ले गए जो शहनशाही हजूरी में पेश कर दिया गया। गांव वालों की तड़प को देखकर शहनशाह जी ने गांव में डेरा बनाने की मंजूरी प्रदान कर दी। पूज्य सार्इं जी ने गुरमुख तथा प्रेमी सही राम को हुक्म फरमाया, ‘भाई! डेरे की जमीन पर वहां पहले एक छप्परी बनाओ।’ उस दौरान एक दिलचस्प वाक्या सामने आया। शाही हुक्म के अनुसार सेवादारों ने पहले दिन एक छप्परी बनाई तो नजदीकी एरिया में बसे एक घर से भैंस ने रात्रि के समय वहां आकर अपने सीगों में फंसाकर उस छपरी को गिरा दिया। दूसरे दिन फिर से छपरी खड़ी की गई, लेकिन फिर से भैंस ने अगली रात्रि को उसको भी गिरा दिया। तीसरी बार फिर से छप्परी बनाई गई, किंतु उसके बाद वैसा घटनाक्रम नहीं हुआ। छप्परी तैयार हो जाने पर पूज्य सार्इं जी का हुक्म आया कि उस छपरी को आग लगा दो और ऊँची आवाज में ये नारे लगाते हुए वापिस आ जाना- ‘काल हारा, दयाल जीता। काल हारा, दयाल जीता।’
ग्रामीण बताते हैं कि किकरांवाली(बागड़) में डेरे की मंजूरी तो मिल गई थी, लेकिन डेरा का निर्माण कार्य शुरू करने को लेकर अभी कोई शाही हुक्म नहीं आया था। एक दिन पूज्य सार्इं जी लालपुरा दरबार में पधारे हुए थे, जब वहां पर किकरांवाली डेरा बनाने की बात चली तो लालपुरा की साध-संगत ने डेरा न बनाने की बात कहते हुए बताया कि सार्इं जी! वहां पर अब काल का जोर बढ़ गया है। इसलिए वहां पर डेरा न बनाओ। अगली सुबह ही पूज्य सार्इं जी सैर करने व घूमने के बहाने एक सेवादार को साथ लेकर पैदल ही किकरांवाली गांव में पहुंच गए। पूज्य सार्इं जी को अचानक गांव में पाकर सत्संगी बड़े खुश हुए। पूज्य सार्इं जी ने दरबार बनाने की तैयारी शुरू करवा दी। अगले दिन ही डेरे निर्माण का कार्य शुरू करवा दिया और हुक्म फरमाया, ‘भाई! ये डेरा इसरार ने मंजूर किया है और उसी के हुक्म से बन रहा है। कोई भी आदमी इसे रोक नहीं सकता।’ दिन-रात सेवा शुरू हो गई।
शुरू-शुरू में वहां पर भूमि में खुदाई करके एक गुफा, एक कच्ची कोठरी, एक कच्चा कमरा बनाया गया। साथ में एक सीढ़ी भी चढ़ा दी गई। उसके बाद 44 फुट व्यास का एक गोल ऊँचा चबूतरा बनाया। विजय सिंह बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी के हुक्म फरमाने की देर थी, जैसे पूृरा गांव ही डेरा बनाने की सेवा में जुट गया था। उन दिनों गांव में ऊंटों की बड़ी भरमार थी, लोग गांव की दूसरी साइडों से झाड़-बोझे काटकर अपने ऊंटों से खींच कर लाने लगे। डेरा की बाहरी दिशा में कंटीली झाड़ियों से बाड़नुमा दीवार बना दी गई। वहीं दरबार में दक्षिण दिशा में निर्माण कार्य करवाया गया, जिधर आज मुखद्वार बना हुआ है। पूज्य सार्इं जी वहां बने छप्परे में विराजमान रहते और संगत सेवा में लगी रहती। उस समय पूज्य सार्इं जी दो महीने के ्रकरीब किकरांवाली दरबार में रहे। दिन में खूब सेवा चलती और रात को रोज रूहानी मजलिस होती। गांव के लोग मजलिस में भी खूब आते और रूहानी नजारे लूटते।
‘वरी! यह संगत के प्रेम की निशानी है’
डेरा बनाने के शुरूआती दिनों के कुछ समय बाद ही गांव की साध-संगत ने दरबार मेंं एक पक्का हाल कमरा तथा ऊपर एक चौबारा भी बना लिया। कार्य पूरा करने के बाद प्रेमी हरजी राम तथा प्रेमी ख्याली राम जी सरसा दरबार में आए। अर्ज की कि सार्इं जी, साध-संगत आपजी के दर्शनों की बहुत प्यासी है। दर्शन देवें जी और चौबारे को भी अपने पवित्र चरणों का स्पर्श प्रदान कर पवित्र करें जी। पहले तो पूज्य सार्इं जी ने यह फरमाते हुए बिल्कुल मना कर दिया कि, ‘भाई! हमारे पास समय नहीं है।
हम नहीं आ सकते।’ परन्तु थोड़ी देर के बाद फिर से वचन फरमाया, ‘अच्छा बई! हरजी राम! अवश्य आएंगे।’ इस प्रकार पूज्य सार्इं जी किकरांवाली में डेरा बनवाने के बाद सन् 1957 में एक बार फिर पधारे। पूज्य बेपरवाह जी ने पक्का हाल कमरा देखा और चौबारे में अपने मुबारिक चरण टिकाकर उसे पवित्र किया। पूजनीय बेपरवाह जी बहुत खुश थे। ‘भाई! यह प्रेम की निशानी है।’ उस दिन पूज्य साईं जी ने दरबार का नामकरण करते हुए ‘डेरा सच्चा सौदा, बागड़-किकरांवाली (किकराली), राजस्थान’ लिखवाया और रूहानी मजलिस लगाकर साध-संगत में खूब खुशियां बांटी।
अपनी भव्यता से गांव की शोभा बढ़ा रहा दरबार
पूज्य सार्इं जी के पावन सान्निध्य में बने इस दरबार का समय-समय पर विस्तार होता रहा है। ग्रामीण बताते हैं कि पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज गुरगद्दीनशीनी से पूर्व इस दरबार के निर्माण कार्य में बहुत सेवा करते रहे, लेकिन बाद में गांववालों की आपजी के दर्शनों की रीझ अधूरी ही रही। वहीं पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिह जी इन्सां अब तक दो बार अपने पावन चरणकमल यहां टिका चुके हैं। रोशन इन्सां के अनुसार, पूज्य हजूर पिता जी 2009-10 के करीब यहां दरबार में पधारे और सायं की रूहानी मजलिस लगाई थी। उस दौरान पूज्य हजूर पिता जी ने गोल चबूतरे पर विराजमान होकर बड़ी संख्या में पहुंची साध-संगत को भरपूर खुशियों से नवाजा था।
वर्तमान परिदृश्य में इस दरबार की भव्यता गांव की सुंदरता को चार चांद लगाती प्रतीत होती है। सेवादार उमेद इन्सां बताते हैं कि 4 बीघा भूमि पर बने इस दरबार की खास बात यह भी है कि पूज्य सार्इं जी के समय में जिन कच्ची र्इंटों से तेरा वास व अन्य कमरे बनाए गए थे, वे आज भी ज्यों के त्यों बरकरार हैं। इन दीवारों के दोनों तरफ पक्की इंटों की परत चढ़ा कर उसको और मजबूत बना दिया गया है। इन दीवारों की मोटाई इस कदर है कि आदमी आराम से इस दीवार पर लेट सकता है। गलेफीनुमा यह दरबार वातानुकूलित भी है, क्योंकि इसकी मोटी दीवारें गर्मी व सर्दी के मौसम में पूरा बचाव करती हैं। साध-संगत की सुविधा के लिए यहां लंगर घर बनाया गया है, वहीं पेयजल के लिए एक डिग्गी भी बनी हुई है। हालांकि गांव के रकबे में सिंचाई का एकमात्र साधन बरसात ही है, इसलिए दरबार में भी बरानी फसल उगाई जाती है। वहीं सब्जियों के साथ-साथ फलदार पौधे भी दरबार में हरियाली का पर्याय बने हुए हैं।
रहमत: सतगुर की माला फेरते, तो वो तुझे मालामाल कर देते!
एक दिन पूज्य सार्इं जी साध-संगत को पास बिठाकर वचन-विलास कर रहे थे। उस दौरान एक पंडित वहां पर आया। विजय गोदारा बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी के पास बैठकर वह अपना दुखड़ा सुनाने लगा। बाबा जी! मैंने अपने जीवन में बहुतों (कई पाखंडी लोगों के नाम बताए) की माला जपी। इस चक्कर में मेरी एक मुरबा जमीन भी बिक गई और घर में भी पैसे को मोहताज हो गया।
यह सुनकर पूज्य सार्इं जी ने सेवादार को तेरा वास से एक कौथली (छोटी-सी थैली) लेकर आने का हुक्म फरमाया। वह सेवादार जब थैली लेने गया तो उसने गुस्ताखी करते हुए उस थैली को खोल कर देखा तो उसमें आध सैर (500 ग्राम) चीनी निकली। पूज्य सार्इं जी ने जब भी उस पंडित को देने के लिए उस थैली में हाथ डालें तो कभी दो-दो के नोटों की गट्टी निकल आए, कभी पांच-पांच व दस-दस रुपये के नए-नए नोटों की गट्टियां निकलें। पूज्य सार्इं जी ने वो सब रुपये उस पंडित को थमा दिए। यह नजारा देखकर वहां बैठी संगत भी बहुत हैरान थी, खासकर वह सेवादार जो थैली को लेकर आया था। पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘तुमने आज तक झूठी माला फेरी है, अगर तुम सच्चे सतगुर की माला फेरते तो तुझे सतगुर इस तरह से नोट (धन-दौलत) देते।’
परोपकार: ‘अज तों सूरजा साडा हो गया’
गांववासी बीरबल राम बताते हैं कि गांव में एक चौधरी खानदान में डुमासर गांव का सूरजाराम नाम का व्यक्ति सीरी (नौकर) का काम किया करता था। पूज्य सार्इं जी की पहली सत्संग में सूरजाराम ने गुरुमंत्र ले लिया और बड़ा मुरीद बन गया। जब सार्इं जी तीसरी बार गांव में पधारे तो सूरजाराम को देखकर फरमाने लगे- वरी! तूं आजकल सत्संग में कहीं नहीं दिखता! इस पर वह बताने लगा कि बाबा जी, मैं नौकर आदमी हूं, जिस घर में काम करता हूं, वहां तीन अलग-अलग परिवार हैं, मेरा सारा दिन ही काम से पीछा नहीं छूटता।
मैं क्या करूं जी। यह सुनकर पूज्य सार्इं जी ने सूरजाराम के चौधरी जो सत्संग में आए हुए थे, से पूछा- ‘क्यों वरी!’ क्या ऐसा ही है?’ जी हां, बाबा जी, हमने इसको पैसे दे रखे हैं। फिर पूछा- कितने पैसे दे रखे हैं? उसने बताया कि दो हजार रूपये। पूज्य सार्इं जी ने साथ खड़े सेवादार को हुक्म फरमाया- ‘दयो वरी! इनको दो हजार रूपये और सूरजा अज तो साड़ा हो गया।’ इस प्रकार पूज्य सार्इं जी ने साहुकार प्रथा के नीचे दबे एक दीन-हीन को छुड़ाकर उसे आजाद जिंदगी जीने का हक प्रदान किया।
जब बौखला उठा काल, इलाही नारा बना संगत की ढाल
जब संत-महात्मा अपनी बिछड़ी हुई रूहों की पुकार सुनकर उनका उद्धार करने आते हैं तो काल बौखला उठता है। इसका संजीव उदाहरण किकरांवाली में तब देखने को मिला जब पूज्य सार्इं जी संगत के साथ गांव में पहली बार पधारे। ज्यों ही पूज्य सार्इं जी गांव की हद में पहुंचे तो कुछ मनमते लोगों ने साध-संगत को वहीं रोक लिया। कहने लगे कि आप सब को गांव में दाखिल नहीं होने देंगे। यह देखकर पूज्य सार्इं जी ने साध-संगत को इशारा करते हुए हुक्म फरमाया, ‘भाई! सब धन-धन सतगुरु तेरा ही आसरा बोलते हुए पीछे-पीछे चले आएं।’ संगत ‘धन -धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ के जोर-जोर से नारे लगाते हुए सीधे प्रेमी सहीराम के घर पर पहुंच गई। उतारे वाली जगह पर पहुंच कर पूज्य सार्इं जी ने साध-संगत को सुमिरन करने का हुक्म फरमाया। संगत वहीं भजन पर बैठ गई। दरअसल एक दिन पूर्व जब गांव में सत्संग होने की चर्चा हुई थी तो बेशक गांववालों को चाव चढ़ गया, लेकिन कुछ तथाकथित लोगों को ईर्ष्या हो गई। शायद वे नहीं चाहते थे कि पूज्य सार्इं जी यहां गांव में आकर सत्संग फरमाएं।
उन्होंने कुछ लोगों को बहका दिया कि सच्चे सौदे वाले बाबा जी के साथ जो भेड़कुट, बौरिया, सैंसी और सिक्ख लोग आते हैं, वे लोगों को पकड़कर पीटते हैं और घरों में घुसकर लूटपाट करते हैं। कुछ भोले-भाले लोग उनकी बातों में आ गए और कहने लगे कि बाबाजी को गांव में सत्संग नहीं लगाने देंगे। जब इसकी खबर प्रेमी सही राम को मिली तो वह दौड़ता हुआ लालपुरा गांव में पूज्य सार्इं जी की हजूरी में पेश हो गया और सारी बात कह सुनाई। उसने अर्ज की कि सार्इं जी! आप किकरांवाली का सत्संग कैंसिल कर देवें, क्योंकि निंदक लोग पत्थर फेंकने की बात कह रहे हैं। इस पर पूज्य सार्इं जी ने जोश में आकर वचन फरमाया कि, ‘पुट्टर! तू कोई फिक्र न कर। सत्संग जरूर होगा और जिन्दाराम की खूब रड़ मचेगी। तू सब कुछ सतगुरु पर छड्ड दे। सतगुरु अन्दर से उनको घुटेगा। ये सच्चा सौदा आदमियों (दुनिया) के आसरे नहीं है। तू चल कर गांव वालों को बोल दे कि मस्ताना जी आ रहे हैं। तू चल असीं तेरे पीछे आते हैं।’
यहां दिखता है कलाकृतियों का अद्भुत नमूना
दरबार में कलाकृतियों की अनूठी छटा देखने को मिलती है। दीवार पर टेलीफोन को हाथों में थामे बंदर की लंबी पूंछ हर आंगतुक का ध्यान अपनी ओर खींचती है। वहीं तेरा वास, चौबारे व हॉल की उपरी दीवार पर बनाई गई घड़ी, शेर व मछली अपने-आप में बेमिसाल प्रतीत होती है।
डेरा सच्चा सौदा बागड़ किकराली में पौधारोपण करते हुए स्थानीय साध-संगत।
सार्इं जी के मीठे शब्दों का मुरीद बना पूरा गांव
पूज्य सार्इं जी ने गांव में पहली बार सत्संग लगाया तो बड़ी रहमतें बरसाई। इस दौरान पूज्य सार्इं जी ने कई निराले चोज दिखाए। कुत्तों के गले में नोटों की माला डालकर उसे भगा देना, कुश्ती करवाना और खेल में हारने वाले व्यक्ति को बड़ा ईनाम देना जैसे खेल देखकर गांव वाले बड़े हैरान थे। उस दिन जिस भजन पर सत्संग हुआ वह था:-
‘क्यों नहीं जपदा अंदर वाला, राम तेरे क म्म आवेगा। तेरी डुबदी बेड़ी बंदेआ, सतगुरु पार लंघावेगा।’ उस दिन सत्संग में किकरांवाली के अलावा आस-पास के गांवों से भी संगत पहुंची हुई थी। पूज्य सार्इं जी ने अलौकिक मस्ती में इलाही वचन फरमाए, ‘सोचो भाई! तुम कहां से आए हो! मालिक ने कैसी सुंदर बॉडी (यह शरीर) बनाई है। इसके अंदर मालिक खुद बैठा है। वो सब काम करने वाला जिंदाराम, मौत से छुड़ाने वाला सच्चा गुरु तुम्हारे सब के अंदर है।’ इस प्रकार पूज्य सार्इं जी ने मीठे प्यारे वचनों के तीरों से लोगों के हृदयों को बींध कर रख दिया। सत्संग के दौरान सेवादारों को सोने चांदी के बर्तन दिए और नए-नए नोटों के हार पहनाकर लोगों को आश्चर्य में डाल दिया।
पूज्य बेपरवाह जी ने नाम-दान की बख्शिश की तो कुछेक घरों को छोड़कर बाकी सारे गांव के बच्चे-बच्चे ने नाम दान प्राप्त कर लिया। बताते हैं कि उस दिन उन नाम वाले जीवों में एक बुजुर्ग माता माना भी शामिल थी, जो आंखों की दृष्टि से अधीर थी। नाम की इलाही दात बख्शते समय पूज्य सार्इं जी ने माता माना को वचन फरमाया, ‘बेटा! चोला छोड़ते समय तेरे को मस्ताना (पूज्य बेपरवाह जी)की आवाज आएगी। उस आवाज को पहचान कर उसके पीछे-पीछे चले आना। यह आवाज तेरे को धुर सचखण्ड अनामी में ले जाएगी।’ इस प्रकार पूज्य सार्इं जी ने गांव पर अपनी अपार रहमत बरसाई।
‘फकीरों का मुंह ही बंदूक है! ’
सर्दी का मौसम था, पूज्य सार्इं जी ने गांव में दूसरी बार सत्संग मंजूर कर दिया। निश्चित दिन पर रूहानी सत्संग का कार्यक्रम शुरू हुआ। पूज्य सार्इं जी स्टेज पर विराजमान थे। साध-संगत में गर्म जर्सियां, कम्बल, टोपे, घड़ियां, स्वेटर, पगड़ियां आदि खूब बांटे जा रहे थे। संगत भी मस्ती का खूब नजारा ले रही थी। इतने में गांव का एक व्यक्ति इलाका के तहसीलदार, एक सरकारी वकील तथा आस पास के कुछ चौधरियों को जीप में भर कर ले आया। कई पुलिस कर्मचारी भी उसके साथ थे। पूज्य सार्इं जी अपने अखुट खजाने में से इलाही दातें सत्संगियों को निरंतर बांटते रहे और वे सब लोग स्टेज के सामने खड़े होकर इस निराले खेल को देखते रहे।
कुछ देर उपरांत पूज्य सार्इं जी ने उन लोगों की तरफ देखते हुए पूछा, भाई! आप लोग कैसे खड़े हैं?’ परन्तु वे लोग बिना कुछ बोले ज्यों के त्यों अपने अहंकार में ही खड़े रहे। पूज्य सार्इं जी ने फरमाया, ‘तुम लोग तो बंदूक का निशाना बांधने और इसका घोड़ा दबाने में देर लगाओगे, परन्तु फकीरों का मुंह ही बंदूक है। फकीर के मुख से वचन निकला नहीं और एकदम सब कुछ फना (खत्म)। परन्तु मालिक, प्रभु के सच्चे संत-महापुरुष रूहानी फकीर अपना हर वचन सोच-समझ कर बोलते हैं और सभी की भलाई के वचन बोलते हैं।’ यह सुनकर वे सभी घबरा गए। पूज्य सार्इं जी ने उन्हें अपने पास ही बैठ जाने का हुक्म फरमाया। ‘भाई! यहां पर तो केवल आत्मा, परमात्मा और अन्दर वाले सच्चे राम-नाम की बात होती है। हर शख्स (आदमी) पूछता है कि माया कहां से आती है! इसी बात ने ही सभी को चक्कर में डाल रखा है। अपनी आत्मा के कल्याण वास्ते कोई कुछ नहीं करता और न ही किसी को फिक्र है। सब चौरासी में धक्के खा रहे हैं।
ये माया नाम वाले जीव के तो पीछे-पीछे धक्के खाती फिरती है। ये सतगुरु के नाम पर ही आती है और सतगुरु के नाम पर ही लुटा दी जाती है।’ सत्संग का कार्यक्रम पूरा होने के बाद पूज्य सार्इं जी ने उन सब को अपने पास बैठाकर चाय पिलाई और बर्फी का भी खूब रज्ज कराया। बताते हैं कि बर्फी का वह एक छोटा सा डिब्बा था। इतने लोगों में बांटी भी गई परन्तु वह डिब्बा ज्यों का ज्यों भरा ही रहा। इस अद्भुत खेल को देखकर वे लोग भी हैरान थे। पूज्य सार्इं जी ने पुलिस के जवानों को नए-नए नोटों की सौ रुपये की एक गट्टी भी बख्शिश में दी कि इससे मिठाई खरीद लेना, परन्तु उन लोगों ने पहले तो लेने से इन्कार किया परन्तु जब सच्चे पातशाह जी ने उन्हें कहा, ‘असीं तुम्हें रिश्वत नहीं देते। यह तो सतगुरु के नाम पर आई हुई इलाही दात है। इस शै के लिए तो देवी-देव भी तरसते हैं।’ बाद में उन्होंने पूज्य बाबा जी की इस इलाही दात को अत्यंत श्रद्धा से प्राप्त किया और ‘धन-धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ बोलते हुए आज्ञा पाकर चले गए।
रूहानी रहबर ने रूहानी बॉडी का किया सत्कार
यह गांववासियों का सौभाग्य ही रहा, कि यहां डेरा सच्चा सौदा की तीनों पातशाहियों ने अपना पावन सान्निध्य देकर क्षेत्र पर अपनी दया-दृष्टि की रहमत बरसाई है। बात उन दिनों की है जब पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज, अपनी हजूरी में यहां दरबार तैयार करवा रहे थे। इस दौरान पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने भी खूब सेवा की। सेवादार रोशन इन्सां बताते हैं कि गांववासी चौ. पतराम, बीरबल सहित कई बुजुर्ग लोग अकसर यह बातें सुनाया करते कि जिन दिनों यहां दरबार बनाने की सेवा चल रही थी, उन दिनों श्री जलालआणा साहिब के सरदार हरबंस सिंह (पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज) भी यहां सेवा करने आए थे।
पूरा दिन सेवा चलती, सेवा के बाद पूजनीय परमपिता जी रात्रि को बहादुर सिंह गोदारा के घर पर आराम फरमाया करते। यह ऐसा सुनहरी समय था, जब पूज्य सार्इं जी और पूजनीय परमपिता जी काफी समय तक एक साथ रहे। पूज्य सार्इं जी ने एक बार सत्संग के दौरान सेवादार मक्खण सिंह को पास बुलाकर पूछा, ‘भाई! तुम्हारी रीत के अनुसार, जब किसी को अपना लीडर बनाते हैं तो उसे क्या निशानी भेंट करते हैं?’ इस पर सेवादार मक्खण सिंह जी ने अर्ज की कि सार्इं जी! उन्हें दस्तार देते हैं। इस पर पूज्य सार्इं जी ने पूजनीय परमपिता जी को स्टेज पर बुलाया और बड़े पे्रम व सत्कार से अपने पवित्र कर कमलों के द्वारा सम्मानित किया।
जब अध-उबले मोठ खाकर पूजनीय परमपिता जी को काटनी पड़ी रात
वाक्या बड़ा दिलचस्प है, लेकिन साथ ही यह प्रेरणा भी देता है कि संत स्वरूप में भगवान भी दुनियादारी के घटनाक्रमों को आत्मसात करते हैं, अपने धैर्य व सहनशीलता का अनूठा पाठ लोगों को पढ़ाते हैं। दरअसल पूज्य सार्इं जी जब किकराली गांव में सत्संग करने पधारे तो यहां के कुछ शरारती किस्म के लोगों ने ग्रामीणों के मन में यह भय बिठा दिया कि जो लोग बाबा जी के साथ आए हैं उनमें सरदार लोग तो गांव वालों को पकड़कर कूटते-पीटते हैं और बांवरिये व भेड़कुट आदि लोग घरों में घुस कर लूटपाट करते हैं। इसी पशोपेश के चलते गांव वाले साध-संगत के खाने-पीने और आराम करने के लिए कोई खास प्रबंध नहीं कर पाए थे, क्योंकि उनके मन में एक अजीब सा द्वंद्व चल रहा था।
उधर पूजनीय परमपिता जी ने जब देखा कि सायं होने को है और संगत के लिए लंगर की पूरी व्यवस्था नहीं हो रही है तो आपजी ने अपने साथी मक्खण सिंह को पैसे देकर दुकान से मोठ(दाल) मंगवा लिए। अब एक और समस्या खड़ी हो गई कि इस दाल को पकाया कैसे जाए? मक्खण सिंह नजदीक के किसी बाड़े में से एक दो मोटी लकड़ियां खींच लाया और मोठ पीपे में डालकर चूल्हे पर पकने के लिए रख दिए। लेकिन जब सेवादार ने बाड़े से लकड़ी उठाई तो वहां किसी बच्चे ने उसे देख लिया। उसने अपने घर में जाकर शोर मचा दिया। यह सुनने की देर थी कि बच्चे की मां तो भागती हुई वहां पहुंची और जलते चूल्हे में से लकड़ी निकाल कर ले गई। यह दृश्य देखकर पूजनीय परमपिता जी को बहुत अफसोस हुआ और मक्खण सिंह जी को समझाया कि तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। अब पीपे में मोठ अध-उबले ही रह गए जिसे खाकर पूजनीय परमपिता जी ने रात काटी।
बताते हैं कि उसी रात अचानक बारिश भी शुरू हो गई और तेज ठंडी हवा भी साथ चलने लगी। सर्दी का मौसम था, ऐसे में ठंड भी अपना जौहर दिखाने लगी। उधर गांव वालों ने अपने घरों के दरवाजे भी बंद कर दिए कि ये बाहरी लोग घर में न घुस आएं। ऐसे हालात में रात कहां गुजारी जाए, यह बड़ा सवाल था। बुजुर्गवार बताते हैं कि मक्खण सिंह पूजनीय परमपिता जी को गांव से बाहर बने किसी के कच्चे कोठे में ले गया। जब उसका दरवाजा खोला और टार्च की लाइट में देखा उसमें तूड़ी रखी हुई थी। पूजनीय परमपिता जी ने अपने मुर्शिद के प्यार में रात उसी तूड़ी वाले कोठे में बिताई। पूजनीय परमपिता जी अपने प्यारे मुर्शिद के इलाही प्रेम में दु:ख तकलीफ की जरा भी परवाह नहीं करते थे।
शाही चोज: क्या कोई मानेगा कि रब्ब मतीरा खा रहा है?’
गणपत राम बताते हैं कि मेरी उम्र उस दौरान 8-10 साल की रही होगी, उन दिनों पूज्य सार्इं जी लालपुरा में पधारे हुए थे। मैंने खेतों में से बहुत ही अच्छा सा मतीरा ढूंढा और पूज्य सार्इं जी को देने के लिए चला गया। वहां जब सेवादारों ने बताया कि बदरूराम का लड़का आपजी के लिए मतीरा लेकर आया है तो पूज्य सार्इं जी बहुत खुश हुए। उस समय पूज्य सार्इं जी स्वयं भी मतीरा ही खा रहे थे।
एकाएक पूज्य सार्इं जी ने वचन फरमाया ‘क्या कोई मानेगा कि रब्ब मतीरा खा रहा है!’अगले ही पल यह भी फरमाया दिया कि जो बात हमने कही है अगर किसी ने उसे आगे कहा तो वह नरकों में सड़ेगा। पूज्य सार्इं जी के ऐसे अजब खेल देखकर बहुत खुशी हुई। पूज्य सार्इं जी ने मुझे मतीरा लाने के बदले में एक सेब दात के रूप में दे दिया। यह देखकर वहां मौजूद अन्य सेवादारों के मन में भी वह सेब पाने की लालसा पैदा हो गई। उन लोगों ने कई तरह से लालच देने की कोशिश भी की कि तुझे सेब के बदले में पैसे दे देंगे, कोई कुछ कहे तो कोई और कुछ। जब मेरे पिता जी को इस बात का पता चला तो उन्होंने कहा कि इस सेब को जल्दी से पूरा का पूरा खा ले। मैंने झट से वह सेब खा लिया। आज मेरी उम्र 82 साल के करीब है, और बिलकुल हृष्टपुष्ट हूं। यह सब पूज्य सार्इं जी की रहमत का ही कमाल है।
कृपादृष्टि: जब टांगों से अधीर बछड़ी लगाने लगी छलांगें
जगदीश गोदारा ने बताया कि ननाऊ गांव में मेरे नाना मोटा राम बिजारणिया उर्फ गुरमुख सिंह के घर पर एक बार पूज्य सार्इं जी का उतारा था। उस दिन दिन में उनके घर पर ही सत्संग हुआ और दोपहर बाद घूमते-घूमते पूज्य सार्इं जी उनके पशुओं वाली साइड में आ गए। वहां एक छोटी सी बछड़ी को चारपाई में रसियों के सहारे खड़ा किया हुआ था। दरअसल उस बछड़ी की जन्म से ही चारों टांगें इतनी कमजोर थी कि वह खड़े हो पाने की स्थिति में नहीं थी। पूज्य सार्इं जी ने घरवालों से पूछा-‘इसको क्या हुआ भई!’ उन्होंने सारी कथा सुना दी।
इस पर पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘गुरमुख, अपनी माता को बोलना कि आज सायं बछड़ी को बलेरा(काफी मात्रा में) दूध पिलाए।’ यह हुक्म फरमाकर पूज्य सार्इं जी बाहर घूमने चले गए। रात्रि का सत्संग हुआ, जमकर रामनाम का डंका बजा। अगली सुबह घरवालों ने देखा तो वह बछड़ी छलांगें लगाती हुई इधर-उधर दौड़ रही थी। यह देखकर उनकी हैरानी की कोई सीमा ना रही। पूज्य सार्इं जी की प्रत्यक्ष रहमत पाकर परिवारवाले खुशी में फूले नहीं समा रहे थे।
‘ये क्या वरी! कदी मर चिड़िए, कदी जीअ चिड़िए!
करीब 70 वर्ष पूर्व की बात करें तो उस समय गांव किकराली की हालत बड़ी दयनीय थी। सूखे के बीच गांव वालों की उम्मीदें भी सूखकर टूटने लगी थी। जब पूज्य सार्इं जी गांव में पधारे तो गांव के सम्मानित लोगों को यह महसूस हुआ कि शायद अब हमारा भाग्य बदलने वाला है। एक दिन पूज्य सार्इं जी दरबार में विराजमान थे, उस समय नियामत राम सेवादार हुआ करता था। उसी सायं गांव के कई लोग एकत्रित होकर पूज्य सार्इं जी से मिलने पहुंचे। इससे पहले उन्होंने सेवादार नियामत राम से इस बारे में चर्चा की। सेवादार ने पूज्य साईं जी की हजूरी में पेश होकर अर्ज कि सार्इं जी! गांव के लोग एक विनती लेकर आए हैं कि बाबा जी, बारिश करवा दें तो हम काफी मात्रा में मूंग-मोठ व बाजरा इत्यादि अनाज सरसा दरबार में पहुंचा देंगे। यह सुनकर पूज्य सार्इं जी मुस्कुराए और फरमाया- ‘अच्छा बारिश के लिए ये रिश्वत दे रहे हैं, और तुम इनकी सिफारिश कर रहे हो।’ इस पर सभी हाथ जोड़कर खड़े हो गए।
फिर फरमाया- ‘चलो कोई ना, बारिश हो जाएगी।’ बताते हैं कि उस रात बड़ी जोरदार बारिश हुई, पूरी रात बारिश होती रही। अगली सुबह ही वही लोग फिर से सार्इं जी की हजूरी में पेश हो गए। पूज्य सार्इं जी ने पूछा- हां वरी! कैसे आना हुआ। कहने लगे कि बाबा जी, बारिश बंद करवाओ जी, नहीं तो हमारे कच्चे मकान गिर जाएंगे। हम तो मारे जाएंगे। इस पर पूज्य साईं जी ने हंसते हुए फरमाया- ‘ये क्या वरी! कदी मर चिड़िए, तै कदी जीअ चिड़िए।’ यानि कभी बारिश चाहिए तो कभी बारिश बंद करवाओ। आखिरकार पूज्य सार्इं जी की कृपादृष्टि से बारिश बंद हो गई।
शहनशाही मौज लाई गांव में बरकतों की मौज
82 वर्षीय बीरबल राम बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी संवत 2013 (सन् 1955-56) के करीब यहां पहली बार पधारे। उस दौरान गांव में सूखे जैसे हालात बने रहते थे, क्योंकि फसलें बरसात पर ही निर्भर थी। एक दिन पूज्य सार्इं जी अपनी मौज में थे, तभी गांव के सत्संगी लालचंद ने कुछ अर्ज करनी चाही।
पूज्य सार्इं जी ने फरमाया कि ‘बोल लालचंद, क्या मांगना चाहते हो? कहो तो आज स्वर्ग उतार दें।’ लालचंद ने अर्ज की कि सार्इं जी, गांववालों के पास नहरी पानी की व्यवस्था नहीं है, बरसात की कमी के चलते फसलें खराब हो जाती हैं। बस इतना कर दो कि कभी सूखा ना पड़े, बरसात समय पर होती रहे। साईं जी मुस्कुराए और फरमाया ‘चाकी गालौ मिलतो रहवे गो’ यानि खाने के लिए अनाज की कभी कमी नहीं आएगी। बताते हैं कि आज तक एक बार भी ऐसा समय नहीं आया जब वर्ष भर में फसल ना हुई हो, अमूमन तो हाड़ी-सावणी की दोनों फसलें होती हैं, अन्यथा एक फसल तो पक्की ही है। गांव की भूमि कभी खाली नहीं रहती। गांववाले इसे पूज्य सार्इं जी की कृपा मानते हैं।
सार्इं जी की रहमत से मीठा हुआ पानी
एक दिन पूज्य सार्इं जी ने गांव की संगत से पूछा, ‘भाई! बोलो! तुम्हारे यहां पानी मीठा है या खारा?’ प्रेमियों ने अर्ज की, सार्इं जी! हमारे यहां तो पानी खारा है। ‘भाई! तुम तो जिंदा राम को जपते हो। गांव के सभी प्रेमी सिर झुकाए चुपचाप बैठे रहे। कोई नहीं बोला और न ही किसी के पास शहनशाही प्रश्न का जवाब था। विजय सिंह बताते हैं कि उस समय गांव में एक कुंआ हुआ करता था, जिसका पानी बहुत खारा था। वर्षा के दिनों में गांव में बनी बावड़ी बरसाती पानी से भर जाती। इससे 15-20 दिनों तक लोग उसका पानी पीने के लिए प्रयोग करते, परन्तु बरसाती पानी खत्म होने पर गांववाले गांव असरजान और भगवान से ऊँटों पर लाद कर पेयजल लाया करते। उस दिन पूज्य सार्इं जी ने हुक्म फरमाया, ‘भाई! तुम ऐसा करना, सुबह तीन बजे उठकर सब पे्रमी बैठकर भजन करना।
सतगुरु तुम्हारा पानी भी मीठा कर देगा।’ पूज्य सार्इं जी ने खांड (चीनी) की दो बोरियां मंगवाकर उस कुएं के पानी में डलवा दी, उसके अगले दिन ही पानी मीठा हो गया। यह देखकर गांववाले तरह-तरह की चर्चाएं करने लगे कि बाबा जी ने चीनी की बोरी डालकर पानी मीठा कर दिया। तो कोई अपने सतगुरु की रहमत को महसूस कर रहा था। बताते हैं कि करीब 3 महीने तक गांव वालों ने उस मीठे पानी का आनन्द उठाया। एक दिन दरबार से एक सेवादार वहां से पानी लेने गया तो कुछ तथाकथित लोगों ने उसको पानी भरने से मना कर दिया और वापिस लौटा दिया। यह वाक्या जब पूज्य सार्इं जी की हजूरी में रखा गया तो पूज्य सार्इं जी ने फरमाया, ‘जो अफसर मिसल को मंजूर कर सकता है उसे खारिज करने का अधिकार भी उसे प्राप्त है, वह खारिज भी कर सकता है।’ बताते हैं कि इसके कुछ दिन बाद ही उस कुएं का पानी फिर से पहले की तरह खारा हो गया।
ऐसे पहुंचें दरबार सड़क मार्ग:
- नोहर (इरड़की बस स्टेंड) से बस सेवा(20 किलोमीटर)
- रावतसर से सीधी बस सर्विस(35 किलोमीटर)
ऐसे पहुंचें दरबार रेल मार्ग
- नोहर रेलवे स्टेशन से टैक्सी व बस सर्विस उपलब्ध है।