Dera Sacha Sauda Shah Satnampura Dham Gangwa, Hisar

प्रेम के वश में होती है मौज
डेरा सच्चा सौदा शाह सतनामपुरा धाम गंगवा, हिसार

“तुम्हारे पिछले गुनाह पाप कुल मालिक से माफ करवा दिए हैं और कल आपको नाम-दान देंगे। नाम-दान लेकर प्रेम से सुमिरन करना। आप हर तरह से सुखी रहेंगे। नाम तुम्हारी हर तरह और हर समय रक्षा करेगा। जिस तरह किसी मन्त्री के बॉडी गार्ड साथ रहकर उसकी रक्षा करते हैं, इस तरह ‘नाम’ तुम्हारी रक्षा करेगा।

डेरा सच्चा सौदा के स्वर्णिम पन्नों में गांव गंगवा (हिसार) का नाम शीर्ष श्रेणी में आता है। पूज्य सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज ने इस क्षेत्र में तड़पती रूहों की पुकार सुनकर कई बार सत्संग लगाए और यहां दरबार बनाकर लोगों की तकदीर के साथ क्षेत्र की तस्वीर भी बदल दी। पूज्य सार्इं जी गांववासियों के प्रेम के इतने वश में हुए कि एक बार पशुओं के बाड़े में खुशी-खुशी उतारा कर लिया। तब पूज्य सार्इं जी ने वचन फरमाया, ‘इतनी बड़ी मौज को यहां किसने बैठाया? बई! पशुओं के नोहरे(बाड़े) के अन्दर? इनके प्रेम की जंजीरों ने बांधकर बिठाया है। मौज प्रेम के वश में होती है।’ बकौल गांववासी, पूज्य सार्इं जी यहां तीन बार पधारे और सत्संगें लगाकर लोगों को रामनाम से जोड़ा।

पूज्य सार्इं जी ने वचन फरमाए थे कि यहां की जमीन कभी सोने के भाव बिकेगी, यहां पैसों का हड़ (दरिया) बहेगा। तब शायद किसी को भी यकीन न आया हो, लेकिन आज वह वचन हूबहू सच साबित हो रहे हैं। हिसार-राजगढ़ रोड़ पर हिसार से करीब 6 किलोमीटर दूरी पर बसा यह गांव वर्तमान में शहर का आवरण ओढ़ चुका है। स्टील हब के रूप में उबरे हिसार शहर का प्रभाव इस गांव में भी खूब देखने को मिल रहा है। यह गांव डेरा सच्चा सौदा के उन ऐतिहासिक पलों का भी साक्षी रहा है, जब सन् 1990 में पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज व पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने शाही स्टेज पर एक साथ विराजमान होकर रूहानी सत्संग फरमाया था। पूज्य हजूर पिता जी ने यहां पर करीब 3 सत्संगें लगाकर हजारों नहीं, लाखों लोगों को गुरुमंत्र की दात प्रदान की। वहीं पूज्य सार्इं जी के समय में बने डेरा सच्चा सौदा धाम गंगवा का पुनर्उद्धार करते हुए नई इबारत लिखी। वर्तमान में यह धाम गांव ही नहीं, अपितु हिसार शहर के लिए गौरव का विषय बना हुआ है। इस अंक में गंगवा गांव में बने शाह सतनामपुरा धाम की स्थापना से जुड़े दिलचस्प वृतांतों से रूबरू करवाएंगे।

पूज्य सार्इं जी जब पहली बार गंगवा गांव में पधारे तो उस दिन का उतारा प्रेमी भाई भैरा राम, राम लाल व राजा राम (तीनों भाई) के घर पर था। 64 वर्ष पूर्व इस परिवार के हालात अच्छे नहीं थे, लेकिन सतगुरु से प्रेम बड़ा बेशुमार था। इस प्रेम के पाश में बंधकर ही पूज्य सार्इं जी उनके घर पधारे थे। घर में जगह के अभाव के चलते पूज्य सार्इं जी का उतारा घर के बाहर वाली साइड में बने पशुओं वाले बाड़े में तय हुआ था। हालांकि उस बाड़े में नीचे पल्ली बिछाकर व साइडों में बाग-फलकारियों से पूरा सजाया गया था। भव्य स्वागत के उपरांत पूज्य सार्इं जी वहां आकर विराजमान हो गए। करीब 15-20 सेवादार भी आस-पास में बैठ गए। बताते हैं कि कुछ समय बाद वहां साइड से एक चुहिया निकल आई, जिस पर पूज्य सार्इं जी की दृष्टि पड़ गई। यह देखकर पूज्य सार्इं जी ने फरमाया, ‘इतनी बड़ी मौज को यहां किसने बैठाया? बई! पशुओं के नोहरे के अन्दर? इनके प्रेम की जंजीरों ने बांधकर बिठाया है। मौज प्रेम के वश में होती है।’ पूज्य सार्इं जी की अपार रहमत की बदौलत आज वही राजाराम जी का परिवार हिसार शहर के टॉप अमीरों की श्रेणी में शुमार हो चुका है। उनका एक बेटा रणबीर गंगवा वर्तमान में हरियाणा विधानसभा में डिप्टी स्पीकर के पद पर सुशोभित है।

सन् 1956 की बात है, उन दिनों पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज गांव डाबड़ा (हिसार) में सत्संग फरमाया करते थे। सार्इं जी का उतारा अकसर चौधरी बलदेव सिंह के घर पर होता और सत्संग भी। उन्हीं दिनों गंगवा गांव से भैरा राम, राम लाल, राजा राम (तीनों सगे भाई) और उदमी राम कई अन्य लोगों को साथ लेकर वहां सत्संग सुनने जाने लगे। एक-दो सत्संग सुनने के बाद उन्होंने पूज्य सार्इं जी से नाम-दान प्राप्त कर लिया। एक दिन गंगवा के इन डेरा प्रेमियों ने अर्ज की, कि सार्इं जी! हमारे गांव में भी दरबार का कोई सेवादार भेजें जो लोगों को सत्संग के बारे में समझाए और गांव में सतगुरु का प्रेम बढ़ जाए। इस पर पूज्य सार्इं जी ने चार सेवादार वहां भेज दिए। वे सेवादार सुबह-सायं सतगुरु का यशगान करते और गांववासियों को भजन-वाणी सुनाकर डेरा सच्चा सौदा के बारे में समझाते। धीरे-धीरे गांव वालों पर इन बातों का असर दिखने लगा। उनमें डेरा सच्चा सौदा के प्रति तड़प बढ़ने लगी और पूज्य सार्इं जी के दर्शन-दीदार की लालसा जाग उठी। एक दिन गांव के सरपंच सेठ पितरू मल्ल, पंडित रामेश्वर दास, चौधरी तोखा राम बिश्नोई अमरचंद गंगवा, हरी सिंह मिर्जापुर सहित करीब 150 लोग सत्संग सुनने के लिए डेरा सच्चा सौदा सरसा दरबार आ पहुंचे।

उस दौरान एक गांव से इतनी संख्या में संगत का आना बड़ी बात थी। सेवादारों ने पूज्य सार्इं जी के चरण कमलों में अर्ज की कि सार्इं जी! गंगवा गांव से संगत दर्शनों के लिए आई है जी। पूज्य सार्इं जी उस समय चौबारे में थे। संगत के प्रेम-भाव से खुश होकर पूज्य सार्इं जी ने सारी संगत को चौबारे में अपने पास ही बुला लिया। खुद चारपाई पर विराजमान थे, और संगत को प्रेम से पंक्ति में बैठा लिया। संगत भी बड़े प्रेम से मुर्शिद का दीदार करने लगी। पूज्य सार्इं जी ने इसी दरमियान अपने ऊपर चादर ओढ़ ली और कुछ समय के लिए अंतर्ध्यान हो गए। जैसे ही ध्यान हटा तो वचन फरमाया, ‘सुनो वरी! तुम्हारे पिछले पाप-गुनाह कुल मालिक से माफ करवा दिए हैं और कल आपको नाम-दान देंगे। नाम-दान लेकर प्रेम से सुमिरन करना। आप हर तरह से सुखी रहेंगे। नाम तुम्हारी हर तरह और हर समय रक्षा करेगा। जिस तरह किसी मन्त्री के बॉडी गार्ड साथ रहकर उसकी रक्षा करते हैं, इस तरह नाम तुम्हारी रक्षा करेगा।’ इसके उपरांत बाबू खेम चन्द को हुक्म फरमाया-‘सभी साध-संगत को एक-एक मुट्ठी भरकर प्रसाद दो।’ जब प्रसाद बांटता-बांटता खेमचन्द सरपंच के पास आया तो बेपरवाह जी ने फिर से हुक्म फरमाया, ‘इनको दो बुक्क भरकर दो। सरपंच के नाते इनका डबल हक है।’ इस प्रकार साध-संगत अपने सतगुरु का इतना प्रेम पाकर खुशी में मचल उठी और धमकते चेहरे लेकर खुशी-खुशी चौबारे से नीचे उतर आई।

बताते हैं कि उस समय सच्चा सौदा दरबार में गोल चबूतरा हुआ करता था। पूज्य सार्इं जी शाही कुर्सी पर विराजमान होकर सत्संग फरमाया करते थे। उस रात करीब 9 बजे सत्संग शुरु हुआ। पूज्य सार्इं जी के मुखारबिंद से निकले हर वचन को संगत ने बड़ी श्रद्धा और विश्वास से आत्मसात किया। इस दौरान पूज्य सार्इं जी ने कई सत्संगियों के गले में नोटों के हार पहनाए और सरपंच पितरूमल को पगड़ी बख्शिश की। सत्संग की समाप्ति के बाद रात्रि को 12:00 बजे के करीब गुरुमंत्र की दात प्रदान की गई, जिसमें गंगवा की साध-संगत भी शामिल थी। नामदानी बनने के बाद गंगवा के इन प्रेमियों में वैराग्य आ गया। सभी ने एकत्रित होकर एक राय बनाई और पूज्य सार्इं जी से फिर से मिलने का इरादा बनाया। पूज्य सार्इं जी के चरणों में अर्ज की कि बाबा जी, हमारे गांव में भी अपने पावन चरण टिकाओ जी, और वहां भी डेरा बनाओ। संगत की अर्ज स्वीकारते हुए पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘बई, आप जमीन देखो, फिर आपका प्रेम देखकर सोचेंगे।’ यह वचन सुनकर संगत के चेहरों पर खुशी छा गई, क्योंकि गांव में दरबार बनाने की प्राथमिक स्वीकृति मिल चुकी थी। उसके बाद साध-संगत सरसा दरबार से गांव के लिए रवाना हो गई।

गंगवा पहुंचकर गांव के मुख्य सेवादारों ने अगले दिन साध-संगत को एकत्रित कर सहमति से निर्णय लिया कि पूज्य सार्इं जी के हुक्मानुसार गांव में दरबार बनाने के लिए उचित जगह का चयन किया जाए। कुछ सेवादारों ने दूर-दराज एरिया में जमीन देने की बात कही तो किसी ने गांव के नजदीक भूमि देने की बात रखी। कई दिनों तक यह दौर चलता रहा। आखिरकार गांव की उत्तर दिशा में हिसार शहर की साइड में चौधरी परसा राम की जमीन पर सभी ने सहमति जताई। उस समय परसा राम भी पूज्य सार्इं जी का अनन्य भक्त था। उसने खुशी-खुशी यह जमीन मुफ्त में देने का प्रस्ताव रखा। अगले दिन कुछ सेवादार सरसा दरबार पहुंचे और अर्ज की कि सार्इं जी, डेरा बनाने के लिए जमीन मिल गई है और उसका मालिक यह जमीन मुफ्त में देने को भी तैयार है। यह सुनकर पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘डेरा सच्चा सौदा दरबार में मुफ्त में कुछ भी नहीं लिया जाता, उस जमीन की रजिस्ट्री करवाओ और उसको बनती कीमत से ज्यादा पैसा दो।’ आज्ञा पाकर वह सेवादार फिर से गांव आ पहुंचे और इस बारे में साध-संगत से चर्चा की। आखिरकार यह तय हुआ कि परसा राम को उसकी भूमि की कीमत अदा की जाएगी।

सचखंडवासी परसा राम के 65 वर्षीय पुत्र लीलू राम बताते हैं कि उस समय हमारे परिवार ने 900 रुपये में 9 कनाल जमीन की रजिस्ट्री दरबार के लिए करवाई थी। यह रजिस्ट्री पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज के नाम पर हुई थी।

हालांकि मास्टर जसबीर सिंह बताते हैं कि पड़ताल के दौरान जब तहसील से सन् 1955 के आस-पास की पुरानी फर्द निकलवाई गई तो उसमें बकायदा इस बात का जिक्र आता है कि डेरा सच्चा सौदा की ओर से एक हजार रुपये में 9 कनाल भूमि की खरीद की गई। उस समय का रिकार्ड उर्दू में आज भी उपलब्ध है।

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17 अप्रैल 1957 को रखी गई दरबार की नींव

बैसाखी का त्यौहार गंगवा गांव के लिए खुशियों का पैगाम लेकर आया। शाही हुक्म से डेरा बनाने की रूपरेखा तैयार हो गई। गांववासियों के बताए अनुसार, साध-संगत ने शाही मंजूरी के बाद ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ का इलाही नारा लगाकर 17 अप्रैल 1957 को दरबार की नींव रख दी। इस जमीन के पास ही तालाब बना हुआ था। संगत ने उस तालाब के किनारे ही कच्ची इंटें निकालने की सेवा शुरू कर दी, उसी तालाब से पानी लेते और गारा तैयार करते। आस-पास के गांवों से भी सेवादार यहां पहुंचने लगे और दिन-रात सेवा चलने लगी।

उधर इंटें निकाली जा रही थी, तो कुछ सेवादार चिन्हित भूमि पर उगे झाड़-बोझे उखाड़कर उनसे चारों ओर बाड़ बनाने लगे। बताते हैं कि उस समय गंगवा गांव में उत्तर दिशा में काफी एरिया खाली पड़ा हुआ था, जहां घने कंटीले झाड़ जैसे पेड़-पौधे उगे हुए थे। सेवादारों ने अथक मेहनत के बलबूूते एरिया को पूरी तरह से खाली कर उसको समतल कर दिया। शुरूआती चरण में कच्ची इंटों से एक तेरा वास का निर्माण किया गया। उसके ऊपर एक कमरा और साथ में एक और कमरा बनाया गया। सेवा का क्रम उन दिनों चलता ही रहता। जब गांववासियों को लगा कि दरबार बन चुका है (उस समय के अनुसार), तो सभी ने मिलकर विचार बनाया और सरपंच पितरू मल्ल और भैरा राम को डेरा सच्चा सौदा में भेज दिया और कहा कि पूज्य सार्इं जी को अपने साथ अवश्य लेकर आना। दोनों सत्संगी सरसा दरबार पहुंचे तो यहां सत्संग का नजारा चल रहा था। खूब आनन्द लिया और अपने मुर्शिद के खूब दर्शन किए।

बाद में जब हजूर की हजूरी में पेश हुए तो अर्ज की कि शहनशाह जी, गंगवा गांव की साध-संगत ने आपजी की दया मेहर से डेरा बना लिया है जी, आप वहां सत्संग फरमाएं जी। यह सुनकर पूज्य सार्इं जी एक बार मुस्कुराए और फिर वचन फरमाया, ‘सोचेंगे बई! तुम्हारा प्रेम देखेंगे।’ यानि हामी भी भर दी और बात को हंसकर टाल भी दिया। यह देखकर दोनों सत्संगी खुश भी हुए और थोड़ा मायूस भी, क्योंकि गांववालों ने तो साथ लेकर आने को बोला था। दोनों सेवादार अगले दो दिन वहीं रुके रहे। दूसरे दिन सरपंच पितरू मल्ल को देखकर पूज्य सार्इं जी ने पूछा, ‘पुटटर! आप यहां पर ही हो, गए नहीं?’ सरपंच साहब ने जवाब दिया कि जी! गए नहीं? गांव वालों से वायदा करके आए थे कि पूज्य सार्इं जी को साथ लेकर ही आएंगे। तब तक वापिस नहीं जाएंगे। यहां पर ही बैठे रहेंगे। यह सुनकर पूज्य सार्इं जी खूब हंसे और फरमाया, ‘सरपंच! आपने इस बॉडी को मना ही लिया। आप जाकर सत्संग की तैयारी करो। सभी प्रेमियों को सूचना कर दो। असीं आज से पांचवें दिन आपके पास पहुंच जाएंगे।’ दोनों सेवादार खुशी में उछलते-कूदते गांव पहुंचे और संगत को यह खुशखबरी सुनाई। संगत भी खुशियों से गद्-गद् हो उठी और ‘धन-धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ के नारे लगाकर पूज्य सार्इं जी का शुक्राना करने लगी।

पूज्य सार्इं जी ने रूहानी सत्संग लगाकर किया जीवों का उद्धार

गर्मी का मौसम यौवन पर था, लेकिन दिलों में जोश भी इस कदर उमड़ रहा था, जैसे बरसों से तड़पती रूहों पर बेशुमार रहमतों की बारिश होने वाली हो। गांव ही नहीं, आस-पास के एरिया में भी सत्संग की तैयारियां शुरु हो गई। सत्संग पंडाल बड़े ही सुंदर तरीके से सजाया गया। उस दिन पूज्य सार्इं जी नजदीकी गांव डाबड़ा से यहां पधारने वाले थे।

डाबड़ा निवासी 77 वर्षीय रामजी लाल बताते हैं कि जुलाई (सन् 1957) का महीना था। उस दिन सार्इं जी ने डाबड़ा में सत्संग फरमाया। जाते-जाते अपने आलौकिक खेल दिखाते हुए डाबड़ा का डेरा ढहाने का हुक्म फरमा दिया और सेवादारों को साथ लेकर गंगवा डेरा की ओर रवाना हो गए। निश्चित दिन एवं समय पर पूज्य सार्इं जी गंगवा गांव में पधारे। गांववासियों ने बड़ा गर्मजोशी में स्वागत किया। ढोल बज रहे थे, उधर बहनें मंगल गीत गा रही थी, मानो पूरा गांव ही खुशी में झूम उठा हो। उस दिन पूज्य सार्इं जी का उतारा प्रेमी भैरा राम, राम लाल व राजा राम के घर पर था।

पहले दिन शनिवार को चार बजे सत्संग किया। पूज्य साईं जी जब सत्संग करने के लिए आए तो धाम के अन्दर चले गए। डेरे की सारी जगह पर दृष्टि डाली व अपने नूरी मुख की ठोडी के नीचे अपनी शाही सोटी लगाकर खड़े हो गए। कुछ देर बाद डंगोरी से इशारा करते हुए हुक्म किया, ‘यहां पर नलका लगाएं, यहां पानी मीठा है।’ फिर चोजी पातशाह जी ने थोड़ा सा आगे जाकर अपनी मौज में वचन फरमाया, ‘सरपंच साहब! इस जगह पर बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं के महलों से बढ़कर इस धाम का सुन्दर नमूना बनेगा और ये महलों से बढ़कर लगेगा। इस धाम की इतनी प्रसिद्धि हो जाएगी कि यहां पर सारी बागड़ झुकेगी और आपके इस गंगुए का नाम दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब में मशहूर हो जाएगा। सारी दुनिया यहां पर झुकेगी और दूर-दूर से प्रेमी आया करेंगे।’

पूज्य सार्इं जी दिन के अलावा रात को भी सत्संग लगाते। सत्संग में खूब संगत आती और मस्ती में नाचती भी। बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी रविवार को पूरी रात्रि सत्संग करते रहे, अगली प्रभात निकलने को थी। उस दौरान आस-पास गांवों के लोग भी आए हुए थे। सत्संग की समाप्ति के बाद नाम-दान भी दिया। साध-संगत ने अर्ज की कि सार्इं जी! एक सत्संग और करो। इस पर सच्चे पातशाह जी ने फरमाया, ‘इतने सत्संग सुनकर गांव वाले तृप्त नहीं हुए, बोले एक दिन और करें जी। नहीं! अब तो जाएंगे। तुम्हारा प्रेम देखेंगे, फिर आ जाएंगे।’ बुजुर्गवार बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी जब गंगवा दरबार में पधारे तो तेरावास के अलावा कुछेक कमरे बने थे, जो कच्ची इंटों से बनाए गए थे। कंटीली झाड़ियों से दरबार की चारदीवारी की हुई थी। पूज्य सार्इं जी की पावन मौजूदगी में कच्ची इंटों से चार दीवारी निकाली गई।

रहमतें इतनी लुटाई, झोलियां भी छोटी पड़ गई

पूज्य सार्इं जी ने शहरवासियों को भी रहमतों से निहाल कर दिया। ऐसे चोज दिखाते कि संगत खुशियों में सराबोर हो जाती। बताते हैं कि रविवार शाम करीब 5 बजे हिसार के कुछ सत्संगी भाई रोडवेज की बस लेकर आ गए। यह देखकर चोजी दातार जी ने सरपंच की ओर इशारा करते हुए फरमाया, ‘चलो बई! हिसार चलेंगे। दुकानों से खूब मिठाई खिलाएंगे।’ यह सुनते ही संगत भी झट से तैयार हो गई। इतने में एक सत्संगी वहां आकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और अर्ज करने लगा कि साईं जी! हमारे पटेल नगर (हिसार) में चलो जी। ‘अच्छा बई! चलो फिर।’

उस समय वहां पर मौजूद सभी सत्संगी बस में बैठकर पूज्य सार्इं जी के साथ उस सत्संगी के घर पटेल नगर में चले गए। पूज्य सार्इं जी ने वहां पर एक घण्टा सत्संग किया। उस सत्संगी ने पहले से ही मिठाई ला रखी थी। शाही हुक्म के बाद संगत को खूब मिठाई खिलाई गई। फिर बेपरवाह जी ने फरमाया, ‘प्रेमियों को तो अब मिठाई खिला दी है, दुकानों से फिर कभी लेंगे।’ उधर सरपंच पितरू मल्ल ने अर्ज की कि पूज्य सार्इं जी गंगवा में जाकर सत्संग भी करना है। प्रेमी इंतजार कर रहे होंगे। उस दौरान पूज्य सार्इं जी ने हुक्म फरमाया, ‘यहां का प्रेम ही ज्यादा है।’

खिल उठा जर्रा-जर्रा जब एक साथ नजर आई दोनों रूहानी बॉडियां

एक मुरीद के लिए मुर्शिद का दीदार ही सब कुछ होता है, और जब वही पल खुद में ऐतिहासिकता समेटे हो तो फिर दिलोदिमाग बाग-बाग हो उठता है। गंगवा गांव की धरती उस समय और खुशियों से महक उठी, जब डेरा सच्चा सौदा की दो पातशाहियां एक साथ शाही स्टेज पर विराजमान हुर्इं। सन् 1990 का वह दिन हमेशा के लिए स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो गया, उस दिन पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां के साथ रूहानी मजलिस लगाई। इससे पूर्व सन् 1960 में पूज्य सार्इं जी ने तीसरी बार यहां सत्संग लगाया था। करीब 30 वर्ष के बाद उस दिन गंगवा गांव का रूहानी सूखापन खत्म हो गया। दोनों पातशाहियों को प्रत्यक्ष पाकर हर आंख खुशी में छलक उठी थी, वैराग्य के भाव हर चेहरे पर दिखाई दे रहे थे।

जिन आंखों ने यह नजारा देखा, वह खुद को धन्य पा रही थी। इसके करीब 4 वर्ष बाद 7 फरवरी 1994 में पूज्य हजूर पिता जी ने गंगवा में फिर से सत्संग किया, जिसमें रिकार्ड तोड़ साध-संगत पहुंची थी। इस सत्संग की चर्चा आज भी गांव की गलियों में अकसर सुनने को मिल जाती है। इसके बाद 23 मार्च 2006 में हिसार के कैमरी रोड़ पर सत्संग हुआ। 13 फरवरी 2011 में भी यहां सत्संग हुआ। गांववाले बताते हैं कि पूज्य हजूर पिताजी अक्सर बरनावा आश्रम (उत्तर प्रदेश) से वापसी के दौरान कई बार यहां दरबार में पधारे हैं। पूज्य गुरु जी अब तक करीब 8 बार यहां आ चुके हैं। अकसर पूज्य सार्इं जी के वचन ‘तुम्हारा प्रेम देखेंगे, फिर आएंगे’ ग्रामीणों को स्मरण हो आते हैं, जब पूज्य हजूर पिता जी यहां आश्रम में आकर विराजमान होते हैं, और संगत को भरपूर खुशियों से नवाजते हैं।

पूज्य सार्इं जी के हुक्म से लगा कुआं जीवन में बढ़ा रहा मिठास
‘एक पीपा पानी के बदले में लाख पीपा पानी का देंगे।’

गांव में जब 1957 में दरबार बन रहा था, तो कई विचित्र घटनाएं भी घटी जो गांव के इतिहास में दर्ज हो गई। सचखंडवासी राजाराम के पुत्र हरीजोत बताते हैं कि उस समय गांव में पानी संचय का एक मात्र साधन तालाब ही था। उसी तालाब के नजदीक आश्रम का निर्माण चल रहा था। सेवादार तालाब से पीपों के द्वारा पानी लेकर आते और ईंटें बनाने व चिनाई का कार्य करते। गांव के कुछ तथाकथित लोगों ने सोचा कि यदि सेवादार इसी तरह पानी निकालते रहे तो तालाब खाली हो जाएगा, तो हम क्या करेंगे? इसी बात को लेकर वे विरोध करने लगे।

बात आगे बढ़ी तो सेवा कार्य भी प्रभावित होने लगा। इसी दरमियान कुछ सेवादार पूज्य सार्इं जी की पावन हजूरी में सरसा दरबार जा पहुंचे और पूरी कहानी कह सुनाई। पूज्य सार्इं जी ने फरमाया, ‘जो एक-एक पीपा पानी का लेते हैं उसके बदले में लाख-लाख पीपा पानी का देंगे।’ फिर से सेवा कार्य शुरु हो गया। हरीजोत बताते हैं कि कुछ समय बाद पूज्य सार्इं जी का गंगवा आगमन हुआ। इस दौरान पूज्य सार्इं जी जब दरबार में पधारे तो हर जगह अपनी पावन दृष्टि डाली और एक निश्चित जगह पर अपनी डंगोरी रखकर फरमाया, ‘यहां पर नलका लगाएं, यहां पानी मीठा है।’ शाही हुक्मानुसार नलका लगाया गया तो पानी बहुत ही मीठा निकला। सारा गांव उसी नलके से पानी भरने लगा, क्योंकि गांव में और कहीं भी पेयजल की व्यवस्था उस समय नहीं थी। बाद में उस नलके की जगह पर कुआं तैयार कर दिया गया। उसमें से पाईप डालकर डेरा की चार दीवारी के बाहर वाली साइड में दो हैंडपंप लगवा दिए गए ताकि लोग आसानी से पानी भरकर अपने घर ले जा सकें।

वह कुआं आज भी इस बात की गवाही भरता है कि पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज के वह वचन अटल थे, कि ‘एक पीपे के बदले में लाख पीपा पानी का देंगे।’ एक और खास बात यह भी है कि उस तालाब को जीवित रखने के लिए पूज्य सार्इं जी ने सेवादारों को कहकर उसकी नहरी पानी की बारी बंधवाई, जिसके बाद नहरी पानी उस तालाब में आने लगा। वर्तमान में भी वह तालाब ज्यों का त्यों कायम है। गांववाले बताते हैं कि शहर विस्तारीकरण के चलते गांव का यह एरिया अब नगर निगम के अधीन आ चुका है। भविष्य में इस तालाब को एक शानदार पार्क के रूप में विकसित करने की योजना तैयार हो रही है।

ॅ ‘ये तो प्रेम की दाल है, जल्दी से संगत को खिलाओ…’

सन् 1959 की बात है कि बेपरवाह मस्ताना जी महाराज सत्संग करने के लिए दूसरी बार गंगवा पधारे हुए थे। दिन का सत्संग शुरु हो गया, वही दूसरी ओर संगत के लिए लंगर तैयार करने की सेवा भी चलने लगी।

90 वर्षीय माता केसरी देवी (धर्मपत्नी सचखंडवासी राजा राम जी) बताती हैं कि उसने चनों की दाल बड़ी टोकनी में डालकर चूल्हे पर पकने के लिए रख दी और नीचे उपलों की आग जला दी। मैं स्वयं लंगर पकाने की सेवा में लग गई। सेवा में ऐसी मगन हुई कि दाल का ख्याल ही नहीं आया। उधर जिस चूल्हे पर दाल पकने के लिए रखी थी, उसमें आग कुछ देर जलकर बुझ गई। सत्संग खत्म हुआ तो पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने हुक्म दिया, ‘बई! साध-संगत को जल्दी लंगर छकाओ।’ यह सुनकर वह दाल वाले चूल्हे की तरफ दौड़ी, देखा तो दाल कच्ची ही पड़ी थी।

फटा-फट दोबारा आग जलाई गई, लेकिन इतनी जल्दी दाल कैसे पक सकती थी भला? उधर पूज्य सार्इं जी बड़े जोश में आकर बोले, ‘जल्दी लंगर छकाओ बई! संगत ने अपने घरों को जाना है।’ यह सब देखकर सेवादार भाई भी डर गए कि पूज्य सार्इं जी को अब यह कैसे बताएं कि दाल कच्ची है। डरते-डरते सेवादार कच्ची दाल व लंगर थाली में रखकर पूज्य सार्इं जी की पावन दृष्टि डलवाने के लिए पहुंच गया। साईं जी ने दृष्टि डालते हुए वचन फरमाया, ‘वाह बई! वाह! इसमें कितना स्वाद है! ये तो प्रेम की दाल है, जल्दी संगत को छकाओ।’ इसके बाद सारी साध-संगत को लंगर ऊपर वही दाल बरतानी (देनी) शुरू कर दी। सेवादारों की हैरानी तब और बढ़ गई जब संगत ने लंगर के साथ वह दाल खाई और कहने लगी कि बल्ले बल्ले! इसमें तो घणा प्रेम है।

बड़ा स्वाद है। सभी ने दो-दो, तीन-तीन बार दाल की मांग की। संगत को वह दाल बड़ी मुश्किल से ही पूरी आई। माता केसरी देवी बताती हैं कि उस दिन दाल कच्ची रह गई थी इसलिए पूज्य सार्इं जी के लिए मैंने स्पेशल भिंडी की सब्जी तैयार की। लेकिन जब पूज्य सार्इं जी के लिए लंगर के साथ वह सब्जी परोसी गई तो घट-घट के जानणहार पूज्य सार्इं जी ने हुक्म देकर वही लंगर वाली दाल मंगवाई और वचन फरमाया, ‘बई! जो दाल में स्वाद है, वो सब्जी में नहीं है।’

ॅ ‘बई! गांव वाले ठीक ही तो कहते हैं कि तुम तीनों जहानों से उजड़ गए हो!’

भक्ति के मार्ग पर कई बार इम्तिहान के दौर भी बहुत आते हैं, लेकिन जो दुनिया से बेखबर होकर दृढ़ता से इस मार्ग पर चलते हैं तो सतगुरु उनके लिए दोनों जहान के दरवाजे खोल देता है, उन पर बेशुमार रहमतें भी लुटाता है। ऐसा ही उदाहरण गंगवा गांव में भी देखने को मिलता है। भैरा राम, राम लाल और राजा राम (तीनों भाई) ने गांव में सबसे पहले पूज्य सार्इं जी से नामदान की दात प्राप्त की। इसके बाद तीनों भाई परिवार सहित डेरा सच्चा सौदा की सेवा में तन-मन व धन से जुट गए। बता दें कि उस समय इन तीनों भाइयों के पास खुद की केवल डेढ़-डेढ़ एकड़ जमीन ही थी। तीनों परिवारों का अधिकतर समय डेरे की सेवा में ही गुजरता।

गांव में इस बात की चर्चा आम हो गई कि ये तीनों भाई पागल हो गए हैं, सारा दिन डेरे की सेवा में लगे रहते हंै और इनकी घरवाली चाय-पानी और लंगर की सेवा करती रहती है। खेत का कार्य बिल्कुल नहीं करते। इसलिए इनके फसल कहां से होगी? एक दिन लाला रामरिख, सेठ पितरू मल्ल (सरपंच), रामशरण मिगलानी और बनवारी लाल सुथार इकट्ठे होकर उनके घर आए और तीनों भाइयों को बैठाकर समझाने लगे कि हम आपके भले के लिए आए हैं, तुम गुस्सा न करना। तुम बरानी जमीन बोते हो, खेत में तुम बिल्कुल नहीं जाते। तुम्हारा सारा परिवार डेरे की सेवा में ही लगा रहता है, ऐसे में फसल कैसे होगी? बंटाई वाले ने भविष्य में जमीन नहीं देनी। तुम तीनों जहानों से उजड़ गए हो, तीनों जहानों से उखड़ गए हो। तुम्हारे बच्चे भूखे मरेंगे। तुम्हारा क्या बनेगा? हमारी मानो तो डेरे में थोड़ी बहुत सेवा कर लिया करो और साथ खेती का भी काम करो।

यह सुनकर तीनों भाई बड़े कंफ्यूज से हो गए, क्योंकि इक तरफ सतगुरु की प्रीत और दूसरी तरफ दुनियादारी। यह वाक्या सन् 1960 के फरवरी माह के करीब का है, उन्हीं दिनों पूज्य सार्इं जी दिल्ली में ठहरे हुए थे। अगले दिन अचानक पूज्य सार्इं जी गंगवा दरबार आ गए। विचारों के द्वंद्व में उलझे तीनों भाइयों के लिए यह बहुत बड़ी खुशखबरी थी। पूज्य सार्इं जी के श्रीचरणों में पहुंचकर विनती की कि सार्इं जी, एक अर्ज है। ‘बता बई! क्या अर्ज है?’ तो उन्होंने बताया कि बाबाजी! हमें लोग कहते हैं कि तुम तीनों जहानों से उजड़ गए, उखड़ गए।

तुम्हारे बच्चे भूखे मरेंगे। ऐसी बातें कहकर हमें डराते रहते हैं। यह सुनकर पूज्य सार्इं जी कुछ समय के लिए मौन हो गए और फिर फरमाया, ‘बई! गांव वाले तो ठीक ही कहते हैं कि तुम तीनों जहानों से उजड़ गए और तीनों जहानों से खोए भी गए, क्योंकि तुमने तीनों जहानों में दोबारा आना ही नहीं और तुम्हारा मालिक साहूकार है, उसका पल्ला पकड़ा हुआ है। तुम्हारे को और तुम्हारे बच्चों को किसी के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। तुम बेफिक्र होकर लगे रहो।’ इन वचनों को तीनों भाइयों ने सत्य मानकर अपने पल्ले में गांठ बांध ली और सच्चा सौदा दरबार की साध-संगत की सेवा में जुटे रहे।

‘संत वचन पलटे नहीं पलट जाए ब्रहाण्ड।’ आज तीनों परिवारों में धन-दौलत की कोई कमी नहीं है। डेढ़-डेढ़ एकड़ भूमि से अब ये परिवार सौ से डेढ़ सौ एकड़ तक जा पहुंचे हैं। इन परिवारों का कहना है कि ये सब कुछ बेपरवाह मस्ताना जी महाराज की दया-मेहर तथा रहमत की बदौलत ही संभव हुआ है। ये परिवार आज भी ज्यों के त्यों डेरा सच्चा सौदा से जुड़े हुए हैं।

ॅ जब सार्इं जी ने खाली थैले से सेवादारों पर बेशुमार नोट बरसाए

डाबड़ा गांव में 25 दिसंबर की शाम को सत्संग हुआ। इस दौरान हरी और रोहताश ने पहले भजन सुनाया। इस पर सार्इं जी ने प्रसन्न होकर एक छोटे से थैले से जो हमें खाली ही नजर आ रहा था, उसमें से एक-एक के नोटों की माला निकालकर उनको पहनाई। 77 वर्षीय रामजी लाल बताते हैं कि उस समय मैं स्टेज पर लगी मेज के पास ही बैठा था। पूज्य सार्इं जी कुर्सी पर विराजमान थे। राजेंद्र भी वहीं था। इसके बाद जिस ने भी भजन गाया उसको पूज्य सार्इं जी ने नोटों की माला पहनाई, उसी थैले में से निकालकर। उसी दौरान एक फौजी भाई जो कुछ समय पूर्व ही रिटायर होकर आया था, वह चेहरे पर काली-पीली धाराएं सी बनाकर आया और नाचने लगा।

यह देखकर वहां बैठी संगत खूब हंसी। पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘देखो भई, ऐह नीं नचदा, माया नचदी है।’ उसको भी नोटों की माला पहनाई। इसके बाद पूज्य सार्इं जी ने उसी थैले से पैसों की 7 मुट्ठी भरकर निकाली और संगत की ओर फेंक दी। इसी दरमियान एक व्यक्ति बोल उठा कि बाबा जी और मत फेंकना जी, यह पैसे मिट्टी में मिल जाएंगे। पूज्य सार्इं जी फरमाने लगे- ‘ओये माया नूं कोई नहीं छडदा, लोक लै जांगे मिट्टी दी झोलियां भरके, ते घर जाकै छान लेंगे।’

एमएसजी का अनूठा प्रकृति पे्रम

एक बार यहां दरबार में विस्तार कार्य दौरान एक पेड़ बहुत अड़चन बना हुआ था। सेवादारों ने आपसी विचार-विमर्श के बाद उस पेड़ को वहां से हटाने की योजना बनाई। लेकिन बिना दरबार की परमिशन के ऐसा कर पाना संभव नहीं था। जैसे ही सेवादारों ने यह बात सरसा दरबार में रखी तो पूज्य हजूर पिता जी ने विशेष तौर पर ख्याल करते हुए फरमाया कि उस पेड़ को यदि हटाना है तो उसे रि-प्लांटेशन के तहत बाहर जोहड़ के पास रोपित करवाओ।

सेवादारों ने वैसा ही प्लान तैयार किया। लेकिन दो दिन बीत चुके थे, अभी तक उस पेड़ को हटाया नहीं गया था। इसी दरमियान पूज्य हजूर पिता जी की ओर से देर सांय संदेश पहुंचा कि पेड़ को बड़ी सावधानी से हटाया जाए और दोबारा से सही सलामत रोपित किया जाए। सेवादारों ने अगली सुबह उस पेड़ को बाहर जोहड़ के किनारे फिर से लगा दिया। इस वाक्ये से जाहिर होता है कि पूज्य हजूर पिता जी का प्रकृति से कितना गहरा लगाव है। सही मायनों में डेरा सच्चा सौदा हमेशा से मानवता का यही संदेश दुनिया को देता आ रहा है।

पूज्य गुरु जी की रहनुमाई में निखरी दरबार की भव्यता

गंगवा दरबार को पूज्य सार्इं जी के समय में डेरा सच्चा सौदा गंगवा दरबार के रूप में जाना जाता था। हालांकि उस दौरान इस दरबार में कच्ची उसारी (निर्माणकार्य) किया गया था। चाहे तेरा वास, संगत की सुविधा के लिए कमरे व चारदीवारी की बात हो, सभी कच्ची ईंटों से बनाए गए थे। 1960 के बाद पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की पावन रहनुमाई में सेवादारों द्वारा यहां विस्तार कार्य चलाया गया। इस दौरान इस दरबार में तेरावास, कमरे, चारदीवारी के साथ-साथ लंगर घर व अन्य जरूरतानुसार पक्के मकानों का निर्माण किया गया। सन् 1990 के बाद पूज्य हजूर पिता जी ने इस दरबार को नया रंग-रूप दिया। संगत की मांग पर यहां सुमिरन हॉल, विशालकाय शैड (50७100 फुट) बनाया। वहीं पेयजल डिग्गी (28७30 फुट) का पुनर्निर्माण करवाया, एक गोल डिग्गी भी बनवाई जो 13 फुट की गोलाई व 15 फुट गहरी है। एक बार पूज्य हजूर पिता जी गंगवा दरबार में पधारे हुए थे।

सेवादारों ने बताया कि गुरु जी, रात को अकसर कुछ शरारती लोग दीवार फांद कर दरबार में आ जाते हैं और सामान उठाकर ले जाते हैं। उस समय तक दरबार की चारदीवारी बहुत ही छोटी थी। पूज्य हजूर पिता जी ने फरमाया कि भई! दरबार की सारी चारदीवारी को ऊंचा करवाओ, जिसके बाद इस दीवार को करीब 10 फुट ऊंचा कर दिया गया। वहीं दरबार में कुछ एरिया काफी नीचा था, जिसके चलते नामचर्चा इत्यादि कार्यक्रमों में संगत को काफी दिक्कत आती थी। पूज्य गुरु जी के हुक्मानुसार वहां मिट्टी की भरती करवाकर, वहां इंटरलोक ईटें लगाई गई, जिससे दरबार की शोभा और निखर आई। बुजुर्ग सेवादारों के अनुसार, पूज्य हजूर पिता जी ने दरबार का नामकरण करते हुए इसे ‘शाह सतनामपुरा धाम गंगवा’ का खिताब दिया।

साक्षात अनुभूति ‘हम थे, हम हैं’

61 वर्षीय हरीजोत बताते हैं कि एक बार पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां का हिसार आगमन हुआ। इसी दौरान पूज्य हजूर पिता जी हमारे घर पर भी पधारे। सारा परिवार श्रीचरणों में बैठा था। परिचय का दौर चला, तो घर के बुजुर्ग ठेठ बागड़ी भाषा में सभी का परिचय बताने लगे, पूज्य हजूर पिता जी हंसते-हंसते सबका सजदा स्वीकार कर रहे थे। जब मेरी बारी आई तो घरवालों ने बताया कि यह हरीजोत सै पिता जी। पूज्य हजूर पिता जी ने बात को बीच में ही काटते हुए फरमाया, ‘इसनै तो हम जाणा हां, मै थारै घरे आंवता जद ओह इतनो सो थौ (दोनों हाथों को गोद की तरह बनाते हुए)।’ यह सुनकर सभी हंसने लगे।

वे शायद पूज्य पिता जी के बागड़ी बोली के अंदाज से ज्यादा प्रभावित थे। लेकिन मेरे मन में एक विचार घर कर गया कि पूज्य पिता जी तो मेरे से छोटी उम्र के हैं, फिर उन्होंने मुझे ‘इतना-सा’ कैसे बताया! रात्रि होने को आई, लेकिन मन में मची उथल-पुथल अभी भी उसी तरह से चल रही थी। देर रात्रि मैंने माता केसरी देवी से इस बारे में बात की। मैंने उनसे पूछा कि पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज अपने घर पर जब आए थे तब मेरी उम्र क्या थी? माताजी ने बताया कि उस समय तुम दो महीने के थे। यह सुनते ही मेरे दिमाग की सारी शंकाएं दूर हो गई। पूज्य हजूर पिता जी ने यह दर्शा दिया कि तब हम ही थे, और आज भी वही पूज्य सार्इं जी की रूहानी ताकत काम कर रही है।

एक नजर:

गंगवा गांव का इतिहास पुराना है। यह गांव हरियाणा में हिसार जिले के ब्लॉक नम्बर-1 में स्थित है। इसकी स्थापना के बारे में स्थानीय निवासी बताते हैं कि इस गांव का नाम बहुत पहले आला ग्राम हुआ करता था। 1815 में इस गांव की स्थापना हुंदा राम, गूंगा चाचा और इन्दा राम भतीजा द्वारा की गई थी। ये दोनों चाचा और भतीजा राजस्थान के कलायत से 12 किलोमीटर दक्षिण दिशा से आये थे। गांव की हर गली में सोलर स्ट्रीट लाइटें लगी हैं। यहां के लोग कृषि और दुग्ध व्यवसाय का कार्य करते हैं। खास बात यह भी कि गड़रिये लोहारों की गाड़ी देश में सिर्फ गंगवा में ही बनाई जाती है।

ऐसे पहुंचें दरबार: रेल मार्ग:

हिसार जंक्शन से टैक्सी व आॅटो सेवा उपलब्ध

ऐसे पहुंचें दरबार: सड़क मार्ग:

हिसार बस अड्डे से राजगढ़ जाने वाली बसें, आॅटो व टैक्सी सेवा

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