सार्इं मस्ताना जी ने यहां जाहिर| किया था जिंदाराम का लीडर ||
डेरा सच्चा सौदा अनामी धाम घूकांवाली
बेशक वक्त का पहिया अपनी रफ्तार से घूमता रहता है, लेकिन समाज में आए बड़े परिवर्तनों में भी यह सृष्टि कभी प्रभु कृपा से विहिन नहीं हुई। अर्थात् रूहानी इतिहास के अनुसार, धरती कभी भी संतों से खाली नहीं हुई। हर युग व हर समय काल में संत सृष्टि पर मौजूद रहे हैं। ‘संत न होते जगत में जल मरता संसार।’ ऐसा ही एक वक्त 20 वीं सदी में देखने को मिला, जब पूजनीय सार्इं मस्ताना जी महाराज ने रूहानियत का भेद खोलकर बताया।
स्वयं को पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज के रूप में सबके सामने जाहिर किया, लेकिन शब्दों की सुंदर जादूगरी से सबको भरमा भी दिया। यह सुनहरी घटनाक्रम 14 मार्च 1954 को घूकांवाली(जिला सरसा) दरबार में सैकड़ों खुली आंखों के सामने हुआ, जब पूज्य सार्इं जी ने श्री जलालआणा साहिब के जैलदार पुत्र सरदार हरबंस सिंह जी को संगत से भरे पंडाल में आवाज लगाकर अपने मूढे (कुर्सी) के पास बिठाकर गुरुमंत्र दिया और वचन फरमाया कि आप से कोई काम लेना है, आपको जिंदाराम का लीडर बनाएंगे। इस दिलचस्प रूहानी नजारे के साक्षी रहे 88 वर्षीय कृपाल सिंह बताते हैं कि उस दिन सार्इं मस्ताना जी महाराज ने घूकांवाली दरबार में सत्संग लगाया।
उस दौर के हिसाब से काफी संख्या में संगत दरबार में पहुंची हुई थी। दरबार में एक बड़ा सा थड (चबूतरा) था जिस पर बैठकर सार्इं जी सत्संग लगाते थे। उस दिन भी सार्इं जी नुहियांवाली के बाद यहां पधारे। सार्इं जी ने सत्संग के दौरान ही आवाज लगाई कि श्री जलालआणा साहिब दे जैलदार दा काका कित्थे है, उन्हांनूं कहो कि चल के अंदर बैठण, अज सावण शाह जी दे हुक्म नाल उन्हांनूं नाम देवांगे। कृपाल सिंह बताते हैं कि पूजनीय परमपिता जी उससे पूर्व कई बार घूकांवाली में सार्इं जी का सत्संग सुनने आया करते थे। उस दिन सार्इं जी ने स्पेशल नाम लेकर सरदार हरबंस सिंह जी (पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज का बचपन का नाम) को अपने मूढे के पास बैठने का हुक्म फरमाया।
पूर्व की ओर द्वार वाले तेरावास के पास ही एक बड़ा सा हाल बना हुआ है, जिसमें संगत को नाम दान के लिए बैठाया गया था। जब पूजनीय परमपिता जी अंदर आए तो वहां संगत ज्यादा होने के चलते आगे जगह खाली नहीं थी। इसलिए परमपिता जी पीछे ही गेट के पास बैठ गए। मुझे अच्छी तरह से याद है कि सार्इं जी जब नामदान देने के लिए पधारे तो इधर-उधर नजर दौड़ाई। थोड़ी देर बाद पूजनीय परमपिता जी की ओर पावन दृष्टि घुमाते हुए फरमाया- वरी! आपको मूढे के पास बैठने का बोला था, आप पीछे क्यूं बैठ गए! इधर आओ, हमारे मूढ़े के पास आकर बैठो।
शाही हुक्म की पालन के लिए सेवादारों ने संगत को अपनी जगह से थोड़ा हिलाते हुए एक छोटा सा रास्ता बनाया, जिससे होते हुए पूजनीय परमपिता जी सार्इं जी के पास पहुंच पाए। सार्इं दातार जी ने नामदान देने से पूर्व संगत की मौजूदगी में फरमाया- ‘सरदार हरबंस सिंह! आज आपको स्पेशल नाम देंगे। आज दाता सावण शाह का हुक्म हुआ है। आपको जिंदाराम का लीडर बनाएंगे, अनामी का बादशाह बनाएंगे, आपसे बहुत काम लेना है।’ कृपाल सिंह बताते हैं कि उस दिन सार्इं जी ने जो वचन फरमाए, वह शायद ही किसी की समझ में आए हों, क्योंकि संतों की बात समझना आम इन्सान के बस की बात नहीं होती। जब पूजनीय परमपिता जी डेरा सच्चा सौदा में दूसरी पातशाही के रूप में विराजमान हुए तो समझ में आया कि उन इलाही वचनों का पूरा सार यह था।
जीवन के 88 बसंत देख चुके सरदार कृपाल सिंह अतीत की सुनहरी यादों के झरोखे से बताते हैं कि सार्इं जी अकसर क्षेत्र के गांवों में सत्संग करने आते तो अधिकतर समय इसी दरबार में रात्रि विश्राम करते। सार्इं जी का इस दरबार से हमेशा विशेष लगाव रहा है। उन दिनों सार्इं जी बैलगाड़ी और कभी ऊंट पर भी सवारी करते, जिसे देखकर दिल बड़ा खुश होता। पूजनीय परमपिता जी को नामदान देने के बाद ही सार्इं जी ने इस दरबार का नाम ‘अनामी धाम’ रखा था। सार्इं जी अकसर संगत के बीच बैठकर खूब हंसाया करते।
सेवा वास्ते प्रेरित करने के लिए सार्इं जी ने कई सेवादारों को स्पेशल नामों से भी नवाजा था, उनमें गुरबचन सिंह को वायसराय, जंगीर सिंह को थानेदार, हाकम सिंह को मोहतम सिंह, कृपाल सिंह मान को मोटा, मुख्तयार सिंह को गुरमुख गोरा व श्रवण सिंह को चौकीदार के नाम से पुकारा करते थे। गुरमुख गोरा की आवाज बहुत ही प्यारी थी, सार्इं जी अकसर उससे शब्द बुलवाया करते। सिंह बताते हैं कि जब श्रवण सिंह को चौकीदार का खिताब दिया गया तो उसका चेहरा मुरझा सा गया। इस पर साथ खड़े सेवादार कृपाल सिंह मान ने सार्इं से इस बारे में बात की तो शहनशाह जी फरमाने लगे- ‘भौलेया! डेरा सच्चा सौदा दे चौकीदार लई धुरधाम दे दरवाजे हमेशा खुले रहिंदे हन।’
डेरा सच्चा सौदा अनामी धाम घूकांवाली के मुख्य प्रांगण का मनमोहक दृश्य।
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‘शाही कुर्सी’ को आज भी संभाले है गोदारा परिवार
एक सत्संगी के लिए सतगुर की दात बहुमूल्य होती है। उस दात के द्वारा पूरा वंश रहमतों का नजारा लूटता रहता है। ऐसा ही नजारा देखने को मिला इस गांव में, जहां गोदारा परिवार पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज द्वारा बख्शिश की हुई शाही कुर्सी को अपनी जान से ज्यादा संभाले हुए है। वेद गोदारा व सुखजीत नंबरदार का कहना है कि इस दात को ले जाने के लिए कई चाह्वान सज्जन भी आए, लेकिन परिवार ने यह शाही कुर्सी देने से साफ मना कर दिया। वे बताते हैं कि जब सार्इं मस्ताना जी महाराज गांव में सत्संग करने आए थे तो उस समय मेरी नानी जैता देवी ने भी नामदान लिया था।
उसके बाद नानी जी को डेरा सच्चा सौदा की सेवा के प्रति इतनी लगन लगी कि वह अपना अधिकतर समय दरबार के सेवाकार्याें में ही व्यतीत करने लगी। परिवार में लड़का न होने के चलते मेरी नानी हमारे पास ही रहती थी। यहां दरबार में सेवा करती। सार्इं जी उनकी सेवा से बहुत प्रसन्न हुए और अपनी शाही कुर्सी दात में दे दी। वेद गोदारा का दावा है कि यह वही शाही कुर्सी है जिस पर विराजमान होकर सार्इं मस्ताना जी महाराज ने पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज को नाम दान की बख्शिश की थी। उन्होंने बताया कि नानी जैता देवी अकसर बताती कि पूजनीय परमपिता जी के आदरणीय माता आस कौर जी कई बार यहां दरबार में सार्इं मस्ताना जी महाराज के लिए खीर बनाकर लाया करते। पूजनीय परमपिता जी भी नाम लेने से पूर्व यहां सेवा करने के लिए आया करते थे।
दरबार के रूप में मिली ‘अनामी’ सौगात
गांव के व्योवृद्ध लोग बताते हैं कि सार्इं मस्ताना जी महाराज ने जब घूकांवाली में सत्संग लगाया, तो ग्रामीणों में जिज्ञासा पैदा हुई कि क्यों ना ऐसे महान संतों के लिए यहां डेरा बनाया जाए। कृपाल सिंह इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि सार्इं जी के रूहानी सत्संग से गांववाले बहुत प्रभावित हुए थे। इसलिए गांव के दो दर्जन के करीब मौजिज व्यक्ति जिनमें कृपाल सिंह मान, रामचंद, हीरा राम, जस्सू गढ़वाल, सरबन सिंह, गुरबचन सिंह, हजारा सिंह तथा स्वयं कृपाल सिंह भी साथ थे, हम सब डेरा सच्चा सौदा दरबार में सार्इं जी के श्रीचरणों में अर्ज करने पहुंचे कि हमारे गांव में दरबार बनाया जाए। सार्इं जी ने हमारी पुकार सुनकर फरमाया- वरी! वही घूकियां वाली, जित्थे असीं सत्संग करके आए हां! बल्ले! उस पिंड दा बड़ा प्रेम है। सार्इं जी ने उस दिन बड़ा उपकार किया, जो गांव को एक और सत्संग की दात बख्श दी। फरमाया- पहलां सत्संग करांगे, फिर डेरा बनौण बारे सोचांगे।
वेद गोदारा बताते हैं कि उनके पूर्वज अकसर इस बात का जिक्र किया करते थे कि डेरा बनाने को लेकर सार्इं मस्ताना जी जब गांव में पधारे तो उन्होंने स्वयं अपने हाथों से एरिया का चयन किया था। गांव के चारों ओर चक्कर लगाने के बाद गांव की पश्चिम साइड में जगह चुनी, जहां डेरा बनाने का हुक्म फरमाया। इस दौरान सार्इं जी ने अपने पवित्र कर-कमलों से मौजूदा समय में स्थापित दरबार की जगह को अपनी डंगोरी से निशानदेही प्रदान की थी। 14 कनाल 15 मरले रकबे में बने इस दरबार को लेकर सार्इं जी ने सन् 1952 में ही मंजूरी दे दी थी, जो दो वर्ष के लंबे अंतराल के बाद 1954 में बनकर तैयार हुआ। सार्इं जी की दया-दृष्टि से जब दरबार बनाने की सेवा शुरू हुई तो ग्रामीणों में बढ़ा उत्साह देखने को मिला।
कृपाल सिंह बताते हैं कि शुरूआती दिनों में दरबार में ऊंटों की मदद से काठ, बाली आदि सामान एकत्रित किया गया। इसके बाद कच्ची र्इंटें निकालने का कार्य शुरू हुआ। मौजूदा समय में बने संपूर्ण सिंह के घर के आस-पास का एरिया तब बहुत गहरा होता था, जहां पर र्इंटें निकाली गई। सेवादार दिन को गर्मी ज्यादा होने के कारण रात को र्इंटें निकालते और रात को ही उन ईंटों को ऊंटगाड़ी से दरबार में पहुंचाते। दरबार में कच्ची र्इंटों से ही गोल गुफा (तेरा वास) का निर्माण किया गया, जो जमीन के अंदर बनी हुई थी। हालांकि उस समय सेवादार गिने-चुने ही होते थे, इसलिए निर्माण कार्य कई दिनों तक चला। सेवादार कुछ दिनों तक र्इंटें निकालते और फिर उनको लाकर दरबार में चारदीवारी बना देते, इस प्रकार चारदीवारी का कार्य भी कई दिनों तक रुक-रुककर चलता रहा।
दिलचस्प बात यह भी है कि उन दिनों पूजनीय परमपिता जी अपने साथ कई सेवादारों को लेकर आते, सेवा के साथ-साथ भजन बंदगी किया करते। पूजनीय परमपिता जी अपने साथ प्रसाद भी लाते और उसे र्इंटों की सेवा में लगी संगत व सेवादारों में वितरित किया करते। तब पूजनीय परमपिता जी ने गुरुमंत्र नहीं लिया हुआ था। जब दरबार का गेट बनाया जा रहा था तो उन्हीं दिनों सार्इं मस्ताना जी यहां पधारे। कच्ची गुफा की कच्ची पौड़ियों से उतरते हुए सार्इं जी ने सेवादारों को फरमाया कि भई! गेट को जल्दी पूरा करवाओ। वचन सुनकर सभी सेवादार मौन हो गए। सबकी गर्दन नीचे को झुक गई। क्योंकि डेरा बनाने की सेवा चलते हुए काफी समय हो चुका था।
उस दौरान चोरमार गांव के सेवादार भी आए हुए थे। शहनशाह जी ने एकाएक एक सेवादार भाई का नाम लेते हुए वचन फरमाया- जाओ भई, चोरमार डेरे के दरवाजे के सामने जो मकान है उसको ढहा कर सारा सामान यहां लेकर आओ। अभी जाओ, उसका जो भी सामान है, यहां ले आओ। फिर उस सामान की सहायता से यहां आश्रम का गेट तैयार हुआ। उस दौरान निर्माण कार्य भी पूरा हो गया, जिसके बाद सार्इं मस्ताना जी महाराज ने डेरे का नामकरण करते हुए डेरा सच्चा सौदा अनामी धाम घुकियांवाली की सौगात बख्शिश की।
इलाही वचन: वरी! यह भैंस पहल्ण ही रहेगी
सार्इं जी ने गांववालों को कदम-कदम पर रहमतों से नवाजा, इस बात की गवाही आज भी गांव का बच्चा-बच्चा भरता है। पहलण भैंस की कथा तो हर कोई बताता है, वहीं डेरा की डिग्गी पूरे गांव की प्यास बुझाती रही है, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी देखने को मिलते हैं। 60 वर्षीय ओमप्रकाश गोदारा बताते हैं कि सार्इं जी के वचन आज भी ग्रामीणों को पूरी तरह से याद हैं, जब नुहियांवाली के सेवादार रामचंद्र अपने घर में दूध पीने के लिए चौपटा साइड से एक भैंस खरीद कर लाया था। वह श्रद्धाभाव से सार्इं जी के पास आशीर्वाद लेने पहुंचा।
सार्इं जी ने पूछा-‘वरी! यह भैंस कैसी है?’ जी पहल्ण है। ‘कौन सी भैंस अच्छी होती है?’ तो उसने बताया कि पहल्ण झोट्टी अच्छी होती है। इस पर सार्इं जी ने फिर वचन फरमाया- ‘वरी! यह आजीवन पहल्ण ही रहेगी।’ यह सुनकर रामचंद्र और पास खड़े सेवादार भी हक्के-बक्के रह गए। बेपरवाह जी ने वचन फरमाया- ‘जब तक जीवित रहेगी, दूध देती रहेगी।’ संतों के वचन तो अटल होते हैं। हुआ भी ऐसा ही, वह भैंस आजीवन पहल्ण ही रही और दोनों टाईम दूध देती रही। यह बात आज भी गांव के लोगों के लिए कौतुहल का विषय बनी हुई है।
जब तालाब का पानी हुआ खराब तो डेरे की डिग्गी बनी गांव का सहारा
53 वर्षीय गुरसेवक सिंह बताते हैं कि बुजुर्ग अकसर सुनाया करते कि जब गांव में डेरा बनाने की सेवा चल रही थी तो कुछेक लोग सेवादारों द्वारा गांव के तालाब से पानी लेने को लेकर नाराजगी जता रहे थे। गांव में उस समय यह तालाब ही पानी का एकमात्र साधन था, जिसमें बारिश का पानी एकत्रित होता था। उन्हीं दिनों में सेवादार सम्पूर्ण सिंह सरसा दरबार में दर्शनों के लिए पहुंचा तो सार्इं जी ने पूछा- ‘भई! गांव में सब कैसे हैं?’ लेकिन सेवादार चुप रहा। सार्इं जी ने यही बात लगातार तीन बार पूछी तो सम्पूर्ण सिंह ने बताया कि सार्इं जी, पिंड दे कुछ लोग ईटां नहीं कढ्ढण दे रहे, कि साडा पाणी मुक गया तां असीं की पीवांगे? उन दिनों में र्इंटें निकालने की सेवा चल रही थी।
सार्इं जी ने गांव वालों को संदेशा भिजवाया कि भई, यह पानी आपको भी नहीं मुकेगा और हमें भी नहीं मुकेगा। यानि कभी इस तालाब का पानी खत्म नहीं होगा। लेकिन वे तथाकथित लोग नहीं माने और अपनी बात पर अड़े रहे। इस पर सार्इं जी ने वचन फरमाया- ‘वरी, देखना! इस पानी में सूअर लेटेंगे। इसको इन्सान तो क्या, पशु भी नहीं पियेंगे।’ और हुआ भी ऐसा ही। पूरा गांव जानता है कि इस तालाब का पानी उसके बाद धीरे-धीरे खराब होता चला गया और इतना बदबूदार हो गया कि मवेशियों ने भी तालाब का पानी पीना छोड़ दिया। आज भी गांव में वह तालाब मौजूद है, लेकिन पानी की दुर्गंध उसमें से कभी खत्म नहीं हुई। कहते हैं कि कुछ समय के बाद जब गांव के पास से नई नहर बनाई गई तो एक पटवारी ने खाल तैयार करवाकर तालाब में स्वच्छ पेयजल भरने का प्रयास भी किया, लेकिन उसे भी पानी की दुर्गंध को दूर करने में कामयाबी नहीं मिली।
उधर सेवादारों ने जैसे-तैसे करते हुए डेरा निर्माण की सेवा को अंतिम चरण में पहुंचा दिया। उन्हीं दिनों सार्इं जी ने डेरा में गहरी डिग्गी बनाने का वचन फरमाया। सेवादारों ने दिन-रात एक कर डिग्गी का निर्माण कर दिया, शुरूआती समय में यह डिग्गी कच्ची बनाई गई थी, जिसे बाद में पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने पक्का करवाया। जब सार्इं जी ने डिग्गी तैयार करवा दी तो उसमें बारिश के पानी के साथ-साथ गांव के नजदीक से गुजरने वाली नहर का पानी लाने का प्रबंध भी कर दिया गया। इतिहास गवाह है कि पूरा गांव डेरा सच्चा सौदा की डिग्गी से जल भरकर अपने घर ले जाता रहा है।
सार्इं जी ने क्रोधित भैंसे से बचाई जान
62 वर्षीय गुरदयाल सिंह बताते हैं कि सार्इं जी ने पूरे गांव पर इतनी रहमतें बरसाई हैं कि उनको हम शब्दों में बयान नहीं कर सकते। अपने पिता प्रताप सिंह से जुड़े एक वृतांत का जिक्र करते हुए वे बताते हैं कि सार्इं मस्ताना जी ने जब शुरूआती दिनों में गांव में दो-चार सत्संग लगाए तो मेरे पिता जी ने भी उन सत्संगों को सुना और नाम की दात हासिल की। एक दिन वे खेत की ओर जा रहे कि रास्ते में उन्हें एक झोट्टा (भैंसा) आता हुआ दिखाई दिया। वह भैंसा इतना क्रोधित नजर आ रहा था कि अपने सामने आने वाले हर व्यक्ति पर हमला बोल रहा था। मेरे पिता जी ने जब देखा कि भैंसा तो बिलकुल ही पास आ गया है तो उन्होंने वहां से भागते हुए एक पेड़ की शरण ली।
लेकिन भैंसा उनके पीछे ही दौड़ता हुआ आ रहा था। डर के मारे वे पेड़ के ऊपर चढ़ गए। काफी देर पेड़ के नीचे रुकने के बाद भैंसा चला गया और एक खाल में लेट गया। जब मेरे पिता जी ने नीचे उतर कर गांव की ओर चलने का प्रयास किया तो फिर से वह भैंसा उनकी ओर दौड़ता हुआ आया। मेरे पिता जी फिर से भागते हुए उस पेड़ पर चढ़ गए। मन में बड़ा डर पैदा हो गया कि आखिर आज यह भैंसा तो पता नहीं क्या करके छोड़ेगा। तभी मन में ख्याल आया कि सार्इं मस्ताना जी महाराज, आप तो पहुंचे हुए संत हैं, आप कहते हैं कि हर जगह हम सत्संगी के साथ रहते हैं, इसका आज पता चल जाएगा। उन्होंने अरदास की कि आज यदि आप मेरा इस भैंसे से पीछा छुड़वा दो तो मैं मान जाऊंगा कि आप महान संत हो। अभी यह सोच ही रहे थे कि भैंसा शांत होकर खड़ा हो गया और अपने आप ही पीछे की ओर हटने लगा। कुछ समय के बाद वह वहां से चला गया और मेरे पिता जी सकुशल घर पहुंच गए।
सार्इं मस्ताना जी महाराज के खेल बड़े निराले
गांव के पूर्व सरपंच एवं भूतपूर्व सैनिक उत्तम सिंह बताते हैं कि सार्इं मस्ताना जी महाराज के खेल बड़े निराले थे। बताते हैं कि गांव में सार्इं जी जब सत्संग करने पधारे, तब वहां डेरे के पास ही एक आटाचक्की हुआ करती थी। सार्इं जी सत्संग लगा रहे थे तो उस चक्की की आवाज बहुत आ रही थी, जिससे संगत को कुछ सुनाई नहीं दे पा रहा था। सार्इं जी ने सेवादार को भेजकर उस चक्की मालिक को कहलवाया कि भई जब तक सत्संग चल रहा है अपनी चक्की को बंद कर लो। इस पर उस व्यक्ति ने चक्की को बंद करने की बजाय कहा कि हमारी चक्की तो ऐसे ही चलती रहेगी। जब सेवादार ने आकर बताया कि आमुक व्यक्ति तो यह कह रहा है तो सार्इं जी ने फरमाया- ‘तो भई! आज के बाद यह चक्की नहीं चलेगी।’ कहते हैं कि उसके बाद वह आटा-चक्की कभी नहीं चली। उसके मालिक ने लाख यत्न कर लिया, लेकिन चक्की ऐसी बंद हुई कि उसे वह कारोबार ही छोड़ना पड़ा।
कुछ ऐसा ही एक और दिलचस्प वाक्या सुनाते हुए उत्तम सिंह बताते हैं कि एक बार सार्इं जी ने बड़ा सत्संग लगाया तो उस दौरान संगत के लंगर की सेवा एक नामी सेठ ने उठाई। लेकिन वह सेठ कंजूस प्रवृति का इन्सान था। हालांकि उसने संगत के लिए बकायदा मिठाई बनाई हुई थी, लेकिन संगत में वह मिठाई वितरित करने की बजाय केवल लंगर ही खिला रहा था। इसी दौरान सार्इं जी ने एकाएक उस कमरे में आकर देखा जिसमें मिठाई रखी हुई थी, और फरमाया- ‘वरी! इतना फर्क क्यूं?’ यानि मिठाई का कमरा भरा हुआ है और संगत को केवल लंगर खिलाया जा रहा है। इस पर सेठ ने सार्इं जी के श्रीचरणों में गिरकर माफी मांगी। बताते हैं कि एक बार सार्इं जी उसी सेठ के घर पधारे हुए थे।
सार्इं जी ने एक कमरे की ओर इशारा करते हुए पूछा कि ‘भई! इसमें क्या है?’ प्रति-उत्तर में सेठ ने कहा कि यह तो अंदर से खाली है। जबकि वह कमरा चनों से भरा हुआ था। सेठ जी को डर हो गया था कि कहीं सार्इं जी ये ना कह दें कि यह चने संगत में बांट दो, इसलिए उसने खाली होने की बात कही। सार्इं जी ने फरमाया- ‘भई! यह खाली ही रहेगा।’ बताते हैं कि चनों से भरा वह कमरा बाद में अपने आप ही खाली हो गया।
माफी देकर खुशी बख्शी
वेद गोदारा ने एक दिलचस्प वाक्या सुनाते हुए बताया कि एक बार सार्इं मस्ताना जी महाराज गांव के दरबार में पधारे हुए थे। एक सेवादार ने सार्इं जी के सामने अर्ज की कि दातार जी, एक व्यक्ति अकसर चोरी-छुपे दरबार में लगी सब्जियां तोड़कर ले जाता है। इस पर सार्इं जी ने हुक्म फरमाया- वरी! आज के बाद दरबार से जितनी भी सब्जी इकट्ठी हो वह सारी की सारी उस व्यक्ति के घर पर डाल आया करो। सेवादारों ने शाही वचनों का पालन करना शुरू कर दिया। सेवादार रोज दरबार से सब्जी तोड़कर उसे थैले में भरकर उस आमूक व्यक्ति के घर में रख आते।
रोज-रोज इतनी मात्रा में सब्जी घर पहुंचने से वह व्यक्ति बड़ा परेशान हो उठा। बाद में उसने सेवादारों के पहुंचने से पहले ही अपने घर का दरवाजा बंद करना शुरू कर दिया, लेकिन सेवादार उसके घर की दीवार से सब्जियों का थैला अंदर की ओर फेंक देते, यानि हर प्रयास कर हर रोज उसके घर दरबार की सब्जी भिजवा देते। आखिरकार वह व्यक्ति एक दिन सार्इं जी के सामने आकर पेश हो गया और हाथ जोड़कर माफी मांगने लगा कि भविष्य में कभी डेरा की सब्जी तो क्या किसी भी प्रकार की चोरी नहीं करूंगा। दयालु दातार जी ने उसको माफ कर दिया और जीवन में हमेशा अच्छे कार्य करने का वचन फरमाया।
पूज्य हजूर पिता ने रातों-रात पक्का करवाया डेरा
सार्इं मस्ताना जी महाराज द्वारा लगाई गई यह डेरा रूपी फुलवारी उस समय और महक उठी जब पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने इसको नवनिर्मित करते हुए नया रूप दिया। दरअसल 17 जुलाई 1995 को पूज्य हजूर पिता जी पवित्र जन्मस्थली श्रीगुरुसर मोडिया में शाह सतनाम जी सार्वजनिक अस्पताल का मुहूर्त करने के बाद सायंकालीन समय में घुकियांवाली डेरा में पधारे। उस दिन यहां बड़ी संख्या में सेवादार पहुंचे हुए थे। सायं का समय था, इसलिए गांव वालों को इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिल पाई।
पूज्य हजूर पिता जी ने वचन फरमाया कि भई, पूरा आश्रम पक्की र्इंटों से फिर से तैयार करवाओ। उसी क्षण सेवादार इस कार्य में जुट गए। पूज्य हजूर पिता जी ने पूरी रात सेवादारों के पास रहकर दरबार के तेरा वास, संगत की सुविधा के लिए बने रसोईघर व अन्य कमरों के साथ-साथ पूरे डेरे की चारदीवारी तैयार करवाई। उस रात सेवादारों का हौंसला तो देखते ही बन रहा था। अगली सुबह जब गांव वालों की नींद खुली तो वे यह देखकर हैरान रह गए कि यह डेरा तो कल सायं तक कच्ची र्इंटों का था, अब यह पक्का कैसे हो गया! इस सेवा कार्य में गांव के सत्संगी परिवारों का बहुत ही सराहनीय सहयोग रहा, जो हमेशा डेरा की आन-बान के लिए चट्टान की भांति डटे रहे हैं। वर्ष 2007 व 2008 के दौरान कई दौर आए जब कुछ मनमते लोगों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी, लेकिन यहां के सत्संगी परिवारों ने श्रद्धा एवं विश्वास की दीवार को कभी ढहने नहीं दिया, अपितु अपने सतगुर की रहमत को कदम-दर-कदम महसूस किया और आज खुशहाल जीवन जी रहे हैं।
फलदार पौधों से महकती है फिजा
अनामी धाम के बीचोंबीच तेरा वास का निर्माण किया गया है। इसके चारों ओर फलदार पौधे लगाए गए हैं, जिसमें किन्नू, आंवला, अमरूद, मिर्च, अंगूर की बेल, केले के साथ-साथ अन्य कई किस्म के पौधे शामिल हैं। इन पौधों पर लटकते फल देखने वाले को स्वयं ही अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। इन फलों को तोड़कर दरबार में संगत को बेच दिया जाता है, जिससे प्राप्त होने वाली आय को आश्रम के रख-रखाव पर खर्च कर दिया जाता है।
परमपिता जी ने निकाला भ्रम। हजूर पिता जी बोले- ‘बैंसरा तां साडा बेली है’
संत-महात्मा इन्सान की पल-पल की खबर रखते हैं। पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने घुकियांवाली के एक कर्मठ सेवादार के मन में पैदा हुई शंका को बिना पूछे ही हल कर दिया। बताते हैं कि सार्इं जी ने गुरबचन सिंह का नाम बैंसरा बख्शिश किया था। बैंसरा सेवा के प्रति हमेशा तत्पर रहता था। पूजनीय परमपिता जी जब डेरा सच्चा सौदा की दूसरी पातशाही के रूप में विराजमान हुए तो उसके मन में एक अजीब सा ख्याल घर कर गया कि परमपिता जी ने भी सार्इं मस्ताना जी महाराज से नामदान लिया और मैंने भी सार्इं जी से ही नामदात हासिल की है।
फिर इनकी ड्यूटी इतनी बड़ी कैसे लग सकती है। सेवादार बैंसरा एक बार सरसा दरबार में पहुंचा हुआ था, तब पूजनीय परमपिता जी ग्रंथ पढ़ रहे थे। उस दौरान भी बैंसरा के दिलोदिमाग में वही विचार चल रहा था। तभी परमपिता जी ने फरमाया- ‘बैंसरा, तुम संतों की रजा को नहीं समझ सकते!’ यह सुनकर बैंसरा आश्चर्यचकित रह गया कि यह बात तो मैंने अभी पूछी ही नहीं है और परमपिता जी ने तो उत्तर भी दे दिया। बैंसरा की सेवा से प्रसन्न होकर एक बार पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने फरमाया- ‘बैंसरा तां साडा पुराना बेली है।’
सेवा: रंग रोगन से चमक उठा दरबार, दिखा नया लुक
जब सच्ची शिक्षा की टीम घुकांवाली दरबार में पहुंची तो वहां रंग-रोगन का कार्य अपने अंतिम चरण में था। सेवादार भोला सिंह इन्सां ने बताया कि दरबार में रंग-रोगन का सेवा कार्य पिछले एक महीने से चल रहा है। इस कार्य में गांव के सत्संगी भाई व बहनें सेवा करते रहे हैं। दरबार में बने तेरा वास व मुख्यद्वार को नया लुक दिया गया है, वहीं चारदीवारी के साथ-साथ निर्मित हर भवन व उसमें लगे लोहे के गाडर, लकड़ी के गेट इत्यादि को रंगदार डिजाइन में पेंट किया गया है।
खास बात यह भी है कि मलकपुरा के सेवादार जसपाल इन्सां ने दरबार में बनी कलाकृति को रंगों के मिश्रण से नया रूप दिया है। बता दें कि जसपाल इन्सां एक हादसे में अपने दोनों हाथ गंवा चुका है, लेकिन उसने जिंदगी में अपने हौंसले को ही अपने कर्म का आधार बनाया। उनके द्वारा उकेरी गई कलाकृतियों को देखकर हर कोई अचंभित हुए बिना नहीं रह सकता।
यह तो हमारा सौभाग्य है: सरपंच नायब सिंह
करीब 5 हजार एकड़ क्षेत्रफल वाले गांव घुकांवाली की आबादी साढ़े चार हजार के आस-पास है। गांव का विकास अपनी रफ्तार में चल रहा है। सरपंच नायब सिंह का कहना है कि हमारे लिए यह सौभाग्य की बात है कि यहां डेरा सच्चा सौदा अनामी धाम बना हुआ है।
गांव में हमेशा भाईचारे की सांझ जिंदा रही है, जिसमें डेरा सच्चा सौदा के अनुयायियों का बड़ा रोल है। सभी धर्माें के लोग यहां मिल-जुलकर रहते हैं।
कवर स्टोरी
हरभजन सिद्धू, मनोज कुमार
पूजनीय सार्इं जी के हुक्म से बनी पेयजल डिग्गी का वर्तमान दृश्य।
करीब 25 फुट की ऊंचाई से कैमरे में कैद किया गया अनामी धाम का विहंगम दृश्य।
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