रिश्तों को सहेज कर रखें
रिश्तों के महत्व के विषय में हम बहुत कुछ लिखते, पढ़ते और सुनते हैं। इंसान अपने रिश्तेदारों और भाई-बन्धुओं से ही सुशोभित होता है।
छोटी-मोटी बातें होती रहती हैं पर रिश्तों को सहेज कर रखना सबका दायित्व होता है। अपने मिथ्या अहं की बलि देकर यदि रिश्तों को बचाना पड़े तो सौदा महंगा नहीं है। सुख-दु:ख में जब अपने रिश्ते-नातेदार कन्धे-से-कन्धा मिलाकर खड़े होते हैं तब मनुष्य की शान ही निराली होती है।
कुछ दिन पूर्व रिश्तों के क्र मिक ह्रास को दर्शाने वाली छोटी-सी कविता पढ़ी थी, मन को छू गईं। उसमें कहा था कि आदमी जब पत्तल में खाना खाता था यानी उस समय घर में कोई विशेष तामझाम नहीं होता था। घर में महंगी क्र ाकरी आदि नहीं होती थी, दिखावा नहीं होता था। तब घर आने वाले रिश्तेदारों या अतिथियों के स्वागत-सत्कार में कोई कमी नहीं रखी जाती थी। उस समय जब कोई मेहमान आता था तो उसे देख कर घर के लोग प्रसन्न हो जाते थे। उसके स्वागत में पूरा परिवार मानो बिछ-बिछ जाता था। तब अतिथि भार नहीं लगता था बल्कि ईश्वर का रूप प्रतीत होता था।
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उसके पश्चात जब मिट्टी के बर्तनों का चलन आरम्भ होने लगा। उन बर्तनों में खाते हुए वह रिश्तों को जमीन से जुड़कर निभाने लगा। जमीन से जुड़ने का तात्पर्य है कि वह अपना कर्तव्य समझकर ही रिश्तेदारों की आवभगत करता था। वह रिश्तों को निभाने के लिए जी-जान से प्रयास करता था। वह रिश्तों का मूल्य जानता और समझता था। उनको निभाने का तौर-तरीका उसे ज्ञात था। इसलिए यथाशक्ति वह अपने दायित्व निभाता था।

उसके बाद वह समय आ गया जब परिवारजन स्टील के बर्तनों में भोजन खाने लगे। लम्बे समय तक चलने वाले इन बर्तनों की तरह रिश्ते भी दीर्घकालिक हुआ करते थे। उस समय तक भी रिश्तों को लम्बे समय तक निभाने की पुरातन परिपाटी चली आ रही थी। परस्पर भाईचारा और सौहार्द बना रहता था, लोग रिश्तों का सम्मान करते थे। उसके लिए प्रयास भी करते थे और किसी को नाराज नहीं होने देते थे। इस समय भी रिश्तों की मिठास बानी रहती थी और सभी मजबूत बन्धन में बन्धे रहते थे।

अब थर्मोकोल या पेपर से बने बर्तनों का प्रयोग होने लगा है। इसके साथ ही सारे सम्बन्ध भी अब यूज एण्ड थ्रो होने लगे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आजकल रिश्ते स्वार्थ की बुनियाद पर बनाए जाने लगे हैं। जब तक स्वार्थों की पूर्ति होती रहती है, तब तक गधा भी बाप होता है। स्वार्थ सधते ही ‘तू कौन और मैं कौन‘ वाला रवैय्या हो जाता है। सब अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं। फिर कोई किसी को पहचानता ही नहीं है।
रिश्तों की गर्माहट धीरे-धीरे कम होने लगी है। उनमें बर्फ-सी ठण्डक जमने लगी है। पता नहीं कब यह बर्फ पिघलेगी और हमारे रिश्ते पहले की तरह बन्द मुट्ठी के समान मजबूत बन सकेंगे अथवा यह सब भाव अब कोरी कल्पना बनकर ही रह जाएँगे? ईश्वर से प्रार्थना ही कर सकते हैं कि वह हमारे मनों से मिथ्या अहंकार को दूर करके रिश्तों को सहेजने की शक्ति दे।
-चन्द्र प्रभा सूद
































































