सत्संगियों के अनुभव – पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की अपार रहमत
बहन हाकमा देवी इन्सां पत्नी सचखण्ड वासी श्री सतपाल अहूजा इन्सां 183, विशाल नगर, पख्खोवाल रोड लुधियाना(पंजाब)।
सन् 1975 की बात है। मुझे सरकारी नौकरी में आए तब एक महीना ही हुआ था। उस समय मैं लुधियाना में प्रेमी गुरनाम सिंह के घर रहती थी जो कि मेरे दफ्तर के नजदीक ही था। मैं अपने दफ्तर(भू सुरक्षा विभाग) से शाम पाँच बजे घर आई तो पता चला कि गाँव हठूर में पूज्य परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज का सत्संग है। गुरनाम सिंह का टैम्पू सत्संग पर जाना था। मैंने कहा कि अगर रात को सत्संग सुन कर वापिस आना है तो मैं भी चलती हूँ। प्रेमियों ने मुझे कहा कि रात को ही आ जाना है।
वहाँ सरसा शहर का एक आदमी था जिसको परम पिता जी ने बाहर गाँवों में नामचर्चा करने से रोका था कि तुमने नहीं करनी। परन्तु किसी भाई ने उस सत्संगी को कहा कि प्रेम आगे नेम नहीं। तू हमारे साथ चल, बैठ। उसने कहा कि पिता जी ने मुझे मना किया हुआ है, मेरे साथ तुम भी न रह जाइओ। उस भाई ने जबरदस्ती उसे टैम्पु में बिठा लिया। हम शाम के छ: बजे लुधियाना से हठूर के लिए चल पड़े कि दो घण्टों में पहुँच जाएँगे। परन्तु रास्ता खराब था व जगह-जगह पर खड्डे थे।
हम रास्ते में कस्सी से खड्डा भर लेते व चल पड़ते। उधर परम पिता जी ने सत्संग के दौरान दो-तीन बार वचन फरमाए, ‘भाई! लुधियाणे वाली संगत तां बिखड़े रास्ते पै गई है।’ जिस वक्त लुधियाने वाली संगत पहँुची तो ग्यारह बज चुके थे। पूजनीय परम पिता जी सत्संग फरमाने के बाद नाम-गुरमंत्र देने लगे थे। नाम देते समय परम पिता जी एक जिम्मेवार भाई से कहा कि तुम्हारे साथ जो जीव नाम लेने आए हैं, उन्हें नाम दिलवा लो। हमारे साथ वाले पाँच जीवों ने नाम ले लिया। परम पिता जी ने उस जिम्मेवार भाई को आदेश दिया, ‘तुसी हुण आराम कर लो, सवेरे चार बजे चल पैणा।’ परन्तु उस टैम्पु के ड्राईवर ने जिद्द की कि हम पिता जी के दर्शन करके जाएँगे।
पूज्य परम पिजा जी सुबह सात बजे साध-संगत को दर्शन देने के लिए आए और लुधियाना वाली संगत के जिम्मेवारों को डाँटा कि तुम्हें कहा था कि सुबह चार बजे चले जाना और वचन फरमाया कि कोई नौकरी वाला भी होता है। परम पिता जी ने हमें अपनी दृष्टि वाला प्रशाद दिया। उनमें केवल मैं गुनहगार ही नौकरी वाली थी। मेरे घर पहँुचने से पहले अफसर ने मेरे साथ वाली लड़की मेरे घर भेजी कि पता कर आओ। प्रेमी गुरनाम सिंह की पत्नी ने उस लड़की को कहा कि वह तो सत्संग पर गई है। अभी आने वाले हैं।
जिस वक्त मैं दफ्तर पहुँची तो उस समय दस बज कर दस मिन्ट हो चुके थे। अफसर ने पहले ही कह दिया था कि आज उस लड़की को जुबानी समझा देना, अगर वह फिर लेट आई तो लिखकर वार्निग देना, अगर फिर लेट आई तो हमारे पेश कर देना। हमारे अफसर यह कह कर हटे थे कि मैं जा पहुँची। मैं अपने मन में धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा का नारा लगा कर अंदर चली गई। मैंने कहा या मेरे सतगुरु ने मेरे मुँह से निकलवाया कि सर, माफ करना, मैं दस मिन्ट लेट हो गई। अफसर ने कहा कि हमने दस बजे तो लड़की आपके घर भेजी थी, अब किस तरह नौ बज कर दस मिन्ट हो गए! वॉल क्लॉक पर भी नौ बज कर दस मिन्ट ही थे।
अफसर हैरान हो गया व कहने लगा कि बीबा, तेरे हाथ में कोई जादू है! मैंने कहा कि नहीं सर, यह बात नहीं, फिर मैं चुप हो गई। फिर अफसर ने कहा कि बीबा, तेरे गोडीं हत्थ लाइए तू बताएगी कि यह टाइम कैसे बदल गया! मैं गुनहगार ने उस अफसर को कहा कि सर जी, आज-कल कलियुग का जमाना है। कलेजा फाड़ के दिखा दें तो भी दुनिया को सच नहीं आ सकता। अफसर ने कहा कि हम सच मानेंगे, तू बता तो सही। मैंने कहा कि सर जी, यह मेरे गुरु परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने मेरी लाज रखी है जिसका मैं सत्संग सुनने गई थी। इतना सुन कर वह अफसर बड़ा प्रभावित हुआ। उसके मन में भी दर्शनों की लगन लग गई। उन्होंने कहा कि तू हमें ऐसे महान गुरु के दर्शन करवाएगी? मैंने कहा कि हाँ जी, जरूर।
कुछ समय बाद की बात है। मैं अपने दफ्तर में दोपहर का खाना खाने के बाद बाहर मेन सड़क पर घूमने चली गई जो कि हमारे दफ्तर के पास से गुजरती थी। उसी समय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की गाड़ियाँ आ गई। हमने परम पिता जी के खूब दर्शन किए और आकर मैंने अफसर को बताया। हमारा अफसर कहने लगा कि हमें भी महापुरुषों के दर्शन करवाओ। हमारा सारा स्टॉफ जाने के लिए तैयार हो गया। उन दिनों में पूज्य परम पिता जी अक्सर ही लुधियाना जाया करते थे। मेरे को पता चला कि परम पिता जी आज लुधियाना में एक सेवादार भाई के घर आए हुए हैं और रात को भी वहीं रुकेंगे।
मैं अपने अफ्सर व स्टाफ को लेकर उसी घर जा पहुंची जहां परम पिता जी का उतारा था। परम पिता जी ऊपर चौबारे पर थे। हम तीन जीपें भर कर पूरे स्टाफ सहित वहां पहुंचे थे। उस भाई ने हमें चौबारे पर जाने से रोक दिया और कहा कि पिता जी 225 किलोमीटर सफर करके आए हैं तथा आराम कर रहे हैं। आप चार बजे स्टॉफ को ले आना। इतने में घट-घट व पट-पट की जानने वाले मेरे सतगुरु परम पिता जी ने चौबारे की खिड़की खोल दी तथा उस भाई को फरमाया, ‘हाकमां नंू ते उस दे स्टॉफ नंू आ जाण देओ।’ मेरे दयालु दाता जी ने मेरे सारे स्टॉफ को मौसमी फ्रूट का प्रशाद दिया।
मेरे स्टॉफ मैम्बर कहने लगे, बाबा जी, हमें अभी नाम दो। मेरे दयालु दातार जी कहने लगे, ‘वैसे तां असीं सत्संग तो बिनां नाम नहीं दिन्दे, पर तुसीं शाम नूं आ जाणां, नाम दे देवांगे।’ उस दिन शाम को वहीं सत्संग हुआ और दयालु शहनशाह जी ने मेरे स्टॉफ समेत चालीस जीवों को नाम बख्श दिया।
अगर सारे समुद्रों के पानी की सियाही बना ली जाए, सारी वनस्पति की कलमें बना ली जाएँ, सारी धरती को कागज कर लिया जाए तो भी मैं अपने सतगुरु खुदा परम पिता शाह सतनाम जी महाराज दो जहान के वाली की दया-मेहर के नजारे ब्यान नहीं कर सकती, ना ही उनके अहसान जो उन्होंने हम पे किए हैं, मैं उनका बदला चुका नहीं सकती हूँ ‘अहसान जो कीते साडे ते, कदे उहनां नूं भुलाया नहीं जांदा।’
मेरी हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां के चरणों में यही विनती है:-
हत्थ बन्न बन्न अरजां गुजारदे,
असीं सेवादार रहिए दरबार दे,
ना होर आस कोई है।
शहनशाह, दातेआ तंू वाली दो जहान दा
पर कोई-कोई जाणदा।
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