‘‘जे छोरियां म्ह खूनदान करणको भाव आग्यो नी, तो समझ ल्यो के हर घर म्ह एक पौधो लाग्यो। मेरी या सोच है कि मरीज खून गो इंतजार ना करै, बल्कि खून मरीज गो इंतजार करै। दान करण सूं यो खून खत्म हो ज्यागो, या गलत सोच है। जियां नाखून काटण तै नयो आजे है, कटिंग करयां पाछै नया बाल आजे है, पेड़-पौधां गै पुराने पत्ते झड़गै नया आजे है, बियां ही म्हारे मै खून भगवान गी नियामत है। दान करयां सूं खत्म कोनी होवै, बल्कि नयो खून आपि बण ज्या है। सगला नै खूनदान करणो चहिए। -बिमला देवी
यूं कहें कि एक अनपढ़ महिला, शिक्षित बच्चों में जागरूकता की अलख जगा रही है, तो यह सुनने में थोड़ा अजीब सा लगेगा, लेकिन है बिलकुल सत्य। सरसा शहर की बांसल कालोनी में रहने वाली बिमला देवी कसवां एक ऐसी शख्सियत के रूप में उबरी हैं जो बच्चों, खासकर लड़कियों के लिए रोल मॉडल बनकर सामने आई हैं। पिछले 10 सालों में बिमला देवी ने रक्तदान के क्षेत्र में जो अलख जगाई वह वाकई में काबिले तारीफ है। ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी बिमला देवी बेशक अनपढ़ है, लेकिन उनकी वाकपटुता ने बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटियों के सेमिनारों में वक्ताओं को पछाड़ दिया और श्रोताओं के मन-मस्तिष्क पर हर बार मोटिवेट के तौर पर अमिट छाप छोड़ी है।
उनके विचारों में मुख्यत: रक्तदान के लिए युवाओं को जागृत करना रहता है। विशेषतौर पर लड़कियों के लिए वे बेहद संवेदनशील रहती हैं, उनको सभ्य रहन-सहन, खान-पान की बातें अपने अंदाज में समझाती हैं। देशभर में आयोजित राष्टÑीय स्तर के कार्यक्रमों में उनको बतौर मुख्य वक्ता आमंत्रित किया जाता है। वे मैडिकल कॉलेज जम्मू, हैबिटेट सेंटर दिल्ली, सूरत, पुणे, विशाखापटनम, पंजाब इंस्टीटयूट आॅफ मेडिकल साइंसिस, रोहतक यूनिवर्सिटी, हैदराबाद, जीवन ज्योति संस्था रावतसर व आईएसबीटीआई के राष्ट्रीय कार्यक्रम सहित ऐसे सैकड़ों सेमीनार में शिरकत कर चुकी हैं, जो सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित रहे हैं।
बिमला देवी के साथ दो रोचक बातें हमेशा जुड़ी रहती हैं कि वे अपने वक्तव्य में ठेठ बागड़ी भाषा का प्रयोग करती हैं और हर कार्यक्रम में उनका परिधान बागड़ी संस्कृति को प्रतिबिंबित करता हुआ दिखाई देता है।
बिमला देवी रक्तदान के क्षेत्र में अपनी शुरूआत का जिक्र करते हुए बताती हैं कि 10 जनवरी 1997 को चौ. दलबीर सिंह स्टेडियम में रक्तदान कैंप का आयोजन हुआ था, जिसमें जाने का अवसर मिला। वहां जाकर देखा कि जगह=जगह लोग लेटे हुए हैं और अपना खून दे रहे हैं। यह माहौल देखकर मेरी आत्मा ने मुझको झकझोर सा दिया। बेशक मुझे उस समय खून के महत्व का इतना पता नहीं था, लेकिन दूसरों के प्रति ऐसे त्याग की भावना ने मेरे दिलो-दिमाग को हिलाकर रख दिया। इसी से प्रेरित होकर मैंने भी रक्तदान किया।
पहली बार जब रक्तदान कर घर पहुंची तो मां ने भविष्य में रक्तदान न करने की सलाह देते हुए डराया था कि ‘खून निकलने के बाद आदमी मै के रहवे, बेरो है के आंखेयां ऊ आंदी होज्ये गी, मुंह में दांत कोनी रहगा, गोडया ऊ रहजैया गी।’ लेकिन मेरे मन में यह बात रम चुकी थी कि रक्तदान से बड़ा कोई दान नहीं है। उस दिन के बाद जब भी अवसर मिला, रक्तदान से कभी पीछे नहीं हटी।
वह बताती हैं कि 12 वर्ष की उम्र में ही पिता का साया उठ गया था। वह बड़ा कठिन वक्त था। परिवार में चार बहनों व दो भाइयों में वह सबसे बड़ी थी, इसलिए सारी जिम्मेवारी भी मेरे ही कंधों पर थी, घर के आर्थिक हालात भी ठीक नहीं थे। खुद पर गर्व महसूस करते हुए बिमला देवी कहती हैं कि इन परिस्थितियों में भी किसान की बेटी ने हिम्मत नहीं हारी। संघर्ष के रास्ते को अपनाया और परिवार में एकजुटता संजोते हुए आगे बढ़ने का दृढ़ निश्चय किया।
एक कॉल पर पहुंच जाती हैं रक्तदान करने
बिमला देवी लोगों में रक्तदान का जज्बा पैदा करने के साथ-साथ खुद भी मौका मिलने पर रक्तदान करने से नहीं चूकती हैं। उनका ब्लड ग्रुप (बी-नैगेटिव) रेयर कैटेगरी में आता है, लेकिन फिर भी वे अब तक 40 बार खून दे चुकी हैं। 60 वर्षीय बिमला देवी हौंसले और हिम्मत के मामले में युवाओं को पीछे छोड़ती हैं। अनुभव सांझा करते हुए बताती हैं कि
एक बार चिलकनी गांव की एक महिला डिलीवरी के दौरान शहर में दाखिल थी।
उसमें मात्र 4 ग्राम खून ही बचा था। डाक्टरों के अनुसार, जच्चा-बच्चा दोनों की जान दांव पर थी। हॉस्पिटल से मेरे पास एक कॉल आई तो मैं तुरंत वहां जा पहुंची। भगवान की कृपा से मेरे रक्तदान ने दोनों की जान बचा दी। ऐसे कई अवसर आए, जब मेरे रक्तदान करने से थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों की जान बच गई, यह मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे ऐसा पुण्य करने का मौका मिला।
आत्मा की पुकार को रखती हूं मंच पर
वे बताती हैं कि एक बार पंचकूला में बड़ा कार्यक्रम था। मुझे भी वहां बुलाया गया। उस कार्यक्रम में बड़े-बड़े वक्ता आ हुए थे। एक वक्ता जो हाथों में बड़े-बड़े नोटस उठाए हुए था, ने मुझे पूछा कि बिमला जी, आप भाषण की पूरी तैयारी करके आए हो क्या? मैंने कहा- ना मैं पढ़ सकती हूं, ना मैं लिख सकती हूं।
मेरी तैयारी तो अंदर से ही है, मेरी आत्मा जो पुकारेगी, वही बात मंच पर रख दूंगी। कार्यक्रम के दौरान जब मैंने अपनी स्पीच रखी तो वही वक्ता तालियां बजाते हुए नहीं थम रहा था। वैसे मुझे 2010 में सरसा में एक रक्तदान कार्यक्रम दौरान पहली बार मंच सांझा करने का अवसर मिला। उस समय तक मैं 16 बार रक्तदान कर चुकी थी।
घर में हर कार्यक्रम पर रक्तदान का बनाया रिवाज
नारी शक्ति का प्रतीक बनी बिमला देवी का कहना है कि खून इन्सान के अंदर एक ईश्वरीय उपहार है, इसका दान करना सैकड़ों पुण्य एक साथ करने के समान है। बिमला देवी ने घर के हर कार्यक्रम में रक्तदान करने को अपना रिवाज बनाया हुआ है। जन्मदिन, सालगिरह, बरसी या अन्य कोई भी कार्यक्रम हो, परिवार के सभी लोग बढ़-चढ़कर रक्तदान करते हैं।
उनकी बेटी पूनम का 18वां जन्मदिन उसके रक्तदान से सैलिब्रेट किया गया था। इसी तरह बेटे का 18 वां जन्मदिन मनाया। परिवार ही नहीं, रिश्तेदार भी नियमित रक्तदान करते हैं। बिमला देवी का कहना है कि उनके पति रिटायर्ड पटवारी भागीरथ कसवां का उन्हें बखूबी साथ मिला है, जिनकी बदौलत वे हर कार्यक्रम में स्वयं के खर्च पर पहुंचती हैं।
काश! मैं भी पढ़ पाती
समाज में बुलंद रुतबे की धनी बिमला देवी को आज भी एक चीज का मलाल है। वे भावुक हो उठती हैं कि काश! वह भी बचपन में पढ़ पातीं। शिक्षा हासिल कर रही बेटियों के लिए वह कहती हैं कि लड़कियों को कभी भी स्कूल में संकोच महसूस नहीं करना चाहिए। अध्यापक एक गुरु होता है उनसे मिलकर हर शंका का समाधान करना चाहिए और निडरता से शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। यदि बेटियां शिक्षित होंगी, तभी समाज में जागरूकता लाई जा सकेगी।
नसीहत: लड़कियां फीगर की बजाय भविष्य की फिक्र करें
बिमला देवी का कहना है कि आजकल खानपान का तौर-तरीका काफी बदल गया है। यही वजह है कि अधिकतर युवा दुबले-पतले दिखाई देते हैं। खासकर लड़कियों को नसीहत देते हुए बिमला देवी कहती हैं कि उनको अपने फीगर की चिंता छोड़कर आने वाले भविष्य के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि उसे आनेवाले समय में मां का रोल अदा करना है। यदि शरीर हृष्ट-पुष्ट होगा, तभी तंदुरूस्त संतान पैदा होगी।
इसलिए तली-भुनी चीजों से परहेज करते हुए सात्विक एवं पौष्टिक भोजन करना चाहिए। लड़कियों के लिए खूनदान करने से पूर्व खुद के खून को पूरा करने को चुनौती मानते हुए बिमला देवी कहती हैं कि जब पौधे को पूरी खुराक मिलेगी, खाद आदि दिया जाएगा तभी तो वह पूरा झाड़ देने में सक्षम होगा, इसी प्रकार यदि लड़कियां खुद को ताकतवर बनाएंगी तभी उनकी संतान निरोगी हो पाएगी।
रक्तदान में अग्रणी डेरा सच्चा सौदा
रक्तदान के क्षेत्र में डेरा सच्चा सौदा का कोई सानी नहीं है। पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां की पावन प्रेरणानुसार यहां के श्रद्धालु रक्तदान में हमेशा अग्रणी रहते हैं। सेवादारों के रक्तदान के प्रति जज्बे को देखते हुए पूज्य गुरु जी ने उन्हें चलता-फिरता ब्लॅड पंप (ट्रयू ब्लॅड पंप) की संज्ञा दी है, जिसे समय-समय पर संगत चरितार्थ भी करती रहती है। यहां के अनुयायी लगभग साढे 5 लाख यूनिट रक्त मानवता की सेवा के लिए दान कर चुके हैं।
डेरा सच्चा सौदा के नाम गिनीज बुक आॅफ रिकार्ड
- 7 दिसम्बर 2003 क ो 8 घंटों में सर्वाधिक 15,432 यूनिट रक्त दान।
- 10 अक्त ूबर 2004 क ो 17921 यूनिट रक्त दान।
- 8 अगस्त 2010 को मात्र 8 घंटों में 43,732 यूनिट रक्त दान।