तुम्हारी कोई हानि नहीं होने देंगे -सत्संगियों के अनुभव
पूजनीय बेपरवाह सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज का रहमो-करम
मैं चरण दास पुत्र श्री गंगा सिंह गांव कबर वाला नजदीक मलोट परंतु अब मैं गांव ढंडी कदीम जिला फाजिल्का का निवासी हूं। प्रेमी जी अपने सतगुरु-मुर्शिद बेपरवाह सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज के आँखों देखे एक अद्भुत करिश्मे का वर्णन इस प्रकार करते हैं।
सन् 1958 की बात है। उन दिनों पूजनीय बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज ने शहर अबोहर में सत्संग फरमाया और फिर उसके बाद गांव कबरवाला को भी सत्संग की बख्शिश की। जब पूजनीय शहनशाह जी कबरवाला में सत्संग करने के लिए गांव में पधारे तो रास्ते में इसी गांव के बस अड्डे पर एक सेठ की परचून की दुकान थी। गांव में सत्संग होने के कारण उस दुकानदार ने अपनी दुकान में शहर से खाने-पीने आदि का काफी सारा सामान लाकर रखा हुआ था।
सामान से दुकान भरी हुई थी। जब पूजनीय मस्ताना जी महाराज वहाँ से गुजरने लगे तो दुकान के सामने जाकर रुक गए और दुकानदार से पूछा, ‘यह दुकान किसकी है?’ दुकानदार ने जवाब दिया, बाबा जी! यह दुकान मेरी ही है। उस समय सच्चे दातार जी के साथ करीब 60-70 सेवादार तथा कुछ और आदमी वहाँ पर मौजूद थे। सर्व-सामर्थ सतगुरु जी ने संगत को हुक्म किया, ‘बई ! ये दुकान लूट लो!” हुक्म मिलने की देर थी कि सभी लोग दुकान में रखे सामान पर टूट पड़े। बस, कुछ ही देर में सारी दुकान खाली कर दी।
सतगुरु जी का यह अनोखा खेल दुकानदार भाई के समझ में नहीं आया। उसने सोचा कि मैं तो लुट गया और अपनी दुकान का यह हाल देखकर रोने लगा। वह रोते-रोते बेपरवाह जी से अर्ज़ करने लगा कि बाबा जी ! हमारे परिवार का रोजगार तो यही दुकान ही है। अगर दुकान की पूंजी ही खत्म हो गई तो मैं दुकान किस तरह चलाऊँगा। हमारे बच्चे भूखे मर जाएंगे। मैं तो उजड़ गया हूँ।
पूजनीय परम दयालु दातार जी ने उस दुकानदार को धैर्य बंधाते हुए पूछा, ‘पुट्टर! घबराना मत। तुम्हारी कोई हानि नहीं होने देंगे।’ पूर्ण फकीर किसी को जरा मात्र भी दु:ख नहीं देते बल्कि सभी का भला ही करते हैं। पूजनीय शहनशाह जी ने दुकानदार से पूछा, ‘पुट्टर ! आपकी दुकान में कितने रुपए का माल था? वह घबराया हुआ बोला, सार्इं जी! साठ रुपए का। इस पर प्यारे सतगुरु जी ने अपने पावन कर कमलों द्वारा बन्द मुट्ठी में उसे कुछ रुपए दिए और फरमाया, ‘इनको गिन! अपने सामान के पैसे गिन कर रख ले व शेष जो बचें, तो हमें वापिस कर दे।’
दुकानदार ने जब पैसे गिने तो वे पूरे अस्सी रुपए थे। अधिक पैसे देखकर उसका मन बेईमान हो गया। फिर सतगुरु जी ने पूछा, ‘बता बई ! कितने रुपए हैं?’ उसने जवाब दिया कि बाबा जी! पूरे साठ रुपए हैं। उसने सोचा कि बाबा जी को कौन-सा पता है कि कितने रुपए हैं! अंतर्यामी दातार जी ने उसे फिर हुक्म किया, ‘इनको दोबारा गिन!’ जब दुकानदार ने दोबारा गिने तो वे गिनती में चालीस रुपए हुए। यानि अस्सी से चालीस बन गए। इस आश्चर्यजनक करिश्मे को देखकर दुकानदार हक्का-बक्का रह गया कि इतना अंतर कैसे पड़ सकता है! ये तो कोई और ही खेल है।
तब जाकर उसने अपनी गलती की क्षमा मांगते हुए बेपरवाह जी से अर्ज़ की कि बाबा जी! मुझे क्षमा करें! मैं तो मूर्ख इन्सान हूँ। मैं आप जी की अपार शक्ति से बिल्कुल बेख़बर था और आप जी को एक आम इन्सान ही समझता था। आपजी ने जो पैसे दिए थे, वे पूरे अस्सी थे, लेकिन मैंने आपजी के आगे साठ ही बताकर बीस का झूठ बोला था। मुझे क्या पता था कि आप खुद-खुदा, परमात्मा, रब्ब स्वयं ही सर्व-सामर्थ हो।
परोपकारी दाता जी ने उस पर रहमत करते हुए वचन फरमाया, ‘पुट्टर ! इनको फिर दोबारा गिन।’ जब उस दुकानदार ने शहनशाही हुक्मानुसार वही पैसे तीसरी दफा गिने तो वे पूरे साठ हुए, जितने कि दुकानदार ने अपने लुटाए गए सामान के मांगे थे। पूजनीय बेपरवाह मस्ताना जी ने फरमाया, ‘आज तू जो भी मांगता मिल जाता। इतना कहकर चोजी दातार जी सत्संग करने के लिए चले गए। उस दुकानदार ने दुकान से फारिग होकर सतगुरु जी की दया-मेहर से परिवार सहित सत्संग सुना और सारे परिवार ने बेपरवाह मस्ताना जी महाराज से नाम शब्द की अनमोल दात प्राप्त कर अपना जन्म सफल कर लिया।
अंर्तयामी पूर्ण सतगुरु सच्चे सार्इं जी जानते थे कि जब तक इसकी दुकान में सामान रहेगा, यह ग्राहकों में ही उलझा रहेगा। यह सत्संग में तो आ ही नहीं पाएगा। इसलिए परोपकारी दातार जी ने अपना यह अद्भुत खेल रचा। दुकानदार का पूरा सामान भी लग गया और पूरे पैसे भी उसे मिल गए। अच्छी आमदन हो गई और फिर सत्संग में नाम, गुरुमंत्र लेकर पूरे परिवार का पार-उतारा भी करवा लिया।


































































