ईश्वर की कृपा के पात्र
ईश्वर की दृष्टि में वे लोग उसकी कृपा के पात्र होते हैं जो सच्चे मन से और लगन से उसकी आराधना करते हैं। सहृदय परोपकारी सज्जन लोगों को वह स्वयं पसन्द करता है। जो लोग छल-कपट करते हैं, कलुषित हृदय वाले होते हैं, वे उसको प्रिय नहीं होते। वह उन लोगों को समय-समय पर सुधर जाने के लिए चेतावनी देता रहता है। यह उन पर निर्भर करता है कि वह अपने आचार-व्यवहार को सुधारना चाहते हैं अथवा नहीं।
कुछ दिन पूर्व वाट्सअप पर एक सन्त की कथा पढ़ी थी जो बहुत प्रेरक थी। इसमें वे एक देवदूत की डायरी देखते हैं जिसमें उनका नाम ईश्वर के प्रिय लोगों की सूची में था। इस कथा को आप सभी पाठकों के साथ साझा करना चाहती हूँ। आप लोगों को भी निश्चित ही यह पसन्द आएगी।
एक सन्त ईश्वर-भक्ति में इतने तल्लीन रहते थे कि उन्हें दीन-दुनिया की कोई खबर नहीं रहती थी। उनके मुख-मण्डल पर सदा अलौकिक तेज झलकता था। उनसे प्रभावित होकर लोग दूर-दूर से उनके दर्शन के लिए आते थे। वे निस्पृह रहकर सबको उपदेश देते थे।
वे प्रतिदिन की तरह उस दिन भी प्रात: चार बजे उठकर भगवत भजन करते हुए अपनी मस्ती में चले जा रहे थे कि उनकी नजर एक देवदूत पर पड़ी जिसके हाथ में एक डायरी थी। उस सन्त ने फरिश्ते से डायरी के विषय में पूछा। फरिश्ते ने बताया कि डायरी में उन लोगों के नाम हैं जो ईश्वर का स्मरण करते हैं।
सन्त के मन में भी इस डायरी में अपना नाम देखने की इच्छा हुई। फरिश्ते ने अपना नाम देखने के लिए डायरी सन्त को दे दी। जब उन्होंने डायरी खोलकर देखी तो उनका नाम उसमें कहीं भी नहीं था। सन्त थोड़ा मुस्कुराते हुए अपनी मस्ती में, प्रभु का नाम जपते हुए वहाँ से चले गये।
दूसरे दिन भी वही फरिश्ता उन्हें दिखाई दिया पर सन्त ने अनदेखा कर दिया। तभी उस फरिश्ते ने उन्हें डायरी देखने के लिए कहा। ज्यों ही उन्होंने डायरी खोली तो देखा कि सबसे ऊपर उन्हीं का नाम है। इस पर सन्त ने हँसकर उस फरिश्ते से पूछा, ‘क्या भगवान के घर पर भी दो-दो डायरियाँ हैं? कल वाली डायरी में मेरा नाम नहीं था पर आज सबसे ऊपर है?’
यह सुनकर फरिश्ते ने कहा, ‘कल आपने जो डायरी देखी थी, उसमें उन लोगों के नाम थे जो ईश्वर से प्यार करते हैं। आज वाली डायरी में उन लोगों के नाम है जिन्हें ईश्वर स्वयं प्यार करता है।‘
इतना सुनते ही सन्त रोने लगे और बहुत समय तक सिर झुकाए खड़े रहे। रोते हुए वे कहने लगे, ‘मालिक! यदि मैं कल तुझ पर जरा-सा भी अविश्वास कर लेता तो मेरा नाम कहीं नहीं होता। मेरी थोड़ी-सी सहनशीलता का तुमने मुझ अभागे को इतना बड़ा पुरस्कार दे दिया। तू सच में बहुत दयालु है मालिक। तुझसे अधिक प्यार करने वाला कोई और हो ही नहीं सकता।‘
यह कथा हम मनुष्यों को यही शिक्षा देती है कि ईश्वर का प्रिय-भाजन बनने के लिए किसी विशेष तामझाम की आवश्यकता नहीं होती। बस अपनी सच्ची भावना से उसका सदा स्मरण करना चाहिए। ईश्वर की भक्ति सच्चे मन से न करके जो दिखावा करते हैं, वे परमात्मा के साथ नहीं, स्वयं के साथ ही छल करते हैं। ऐसे ढोंगी लोगों को इस दुनिया के लोग भी पसन्द नहीं करते तो फिर वह मालिक कैसे उन्हें अपना प्रिय मान सकता है?
ईश्वर की उपासना करने में अपनी अन्तिम साँस तक डटे रहना चाहिए। अपने मन में प्रभु के प्रति पूर्ण आस्था और विश्वास रखना चाहिए। धैर्य का दामन भूलकर भी नहीं छोड़ना चाहिए। देर-सवेर उसकी कृपा की वर्षा अवश्य होगी, यही सत्य है। -चन्द्र प्रभा सूद