criteria of scholarship विद्वत्ता की कसौटी
मनुष्य के लिए उचित यही है कि वह अपनी योग्यता और अनुभव को अपने घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों, देश और समाज में बांटे। इससे उसे अपना जीवन संवारने के साथ-साथ दूसरों को भी मार्गदर्शन करना चाहिए। समाज को ऐसे मनीषियों की बहुत आवश्यकता है जो नि:स्वार्थ होकर समाज की भलाई के कार्य करें।
प्रत्येक मनुष्य की हार्दिक इच्छा होती है कि वह बुद्धिमान कहलाए। विद्वान उसकी बुद्धि का लोहा मानें। किसी सभा में यदि वह जाए तो उस विद्वत सभा में उसकी ही चर्चा हो। सभी उससे अपना सम्बन्ध बनाने के लिए इच्छुक रहें।
अब हम विचार करते हैं कि विद्वत्ता की कसौटी क्या है? मनुष्य को बुद्धिमान बनने के लिए कुछ तथ्यों की ओर ध्यान देना आवश्यक हैं।

वह अपने नकारात्मक विचारों के जंजाल से मुक्त होकर सकारात्मक मनोवृत्ति वाला हो जाता है। इस तरह वह ईर्ष्या-द्वेष आदि दुर्भावनाओं के परित्याग करने से महापुरुषों की श्रेणी में आ जाता है। मनुष्य के लिए उचित यही है कि वह अपनी योग्यता और अनुभव को अपने घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों, देश और समाज में बाँटे। इससे उसे अपना जीवन संवारने के साथ-साथ दूसरों को भी मार्गदर्शन करना चाहिए। समाज को ऐसे मनीषियों की बहुत आवश्यकता है जो नि:स्वार्थ होकर समाज का कार्य कर सके।
आजकल राजाओं का युग नहीं है, फिर भी हम देश के प्रथम नागरिक यानि माननीय राष्टÑपति को इस श्रेणी में मान सकते हैं। मनीषियों का विद्वानों के सम्मान के विषय में यह मानना है – स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।
अर्थात् राजा का सम्मान उसके अपने देश में होता है परन्तु विद्वान को हर स्थान पर मान दिया जाता है। हम देखते हैं कि हमारे देश के उच्च शिक्षा प्राप्त वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर आदि विश्व के किसी भी देश में चले जाएँ उन्हें सर्वत्र सिर-आँखों पर बिठाया जाता है और उन्हें समानरूप से सम्मान दिया जाता है। अच्छे वेतनमान पर उनकी नियुक्तियाँ होती हैं।
तात्पर्य यही है कि विद्वान किसी भी आयु का हो, वह पूजनीय होता है। विद्वत्ता के समक्ष आयु कोई मायने नहीं रखती, वह गौण हो जाती है।
यदि कोई व्यक्ति यह सोचे कि विद्वत्ता न होने पर, उसका ढोंग कर लेने से वह विद्वानों की श्रेणी में आ जाएगा तो यह उस मनुष्य की भूल है। दूसरों से तिरस्कृत होने पर उसकी स्थिति दयनीय हो जाती है। इसका कारण है कि काठ की हाँडी बार-बार नहीं चढ़ती। विद्वानों को यह सिद्ध करने की या प्रचार करने की कोई आवश्यकता नहीं होती कि वे बहुत जानकार हैं। लोग उनके प्रचारतन्त्र से प्रभावित होकर उनसे कुछ सीखें। होता इसके विपरीत है, लोग ढूँढते हुए उनके पास आते हैं और अपनी ज्ञानपिपासा शान्त करते हैं।
विद्वानों की विद्वत्ता कस्तूरी की गन्ध की भाँति होती है जिसे चाहे सात परदों में भी छुपाकर क्यों न रखें, वह चारों ओर के वातावरण को सुगन्धित कर ही देती है। विद्वत्ता मनुष्य को ईश्वर का दिया हुआ उपहार है। परन्तु फिर भी कठोर परिश्रम, स्वाध्याय, मनन, सज्जनों की संगति और ईश्वर की उपासना करके नि:संदेह उसे प्राप्त किया जा सकता है।

































































