सत्संगियों के अनुभव
प्रेमी खेता राम सुपुत्र श्री शोकरण गांव नीठराना तहसील भादरा जिला हनुमानगढ़ (राज.)। पूज्य सतगुरु परम पिता की प्रेमी अपने पर हुई अपार बख्शिश का वर्णन अपने एक पत्र में लिखित रूप में इस प्रकार करता है।
प्रेमी जी बताते हैं कि वर्णन सन् 1965 का है। पूज्य परम पिता जी ने हमारे गांव नीठराना में अपना पहला रूहानी सत्संग फरमाया। हमारे गांव के भी बहुत लोगों ने पूज्य परम पिता जी से उस सत्संग में नाम-शब्द लिया था और मैंने भी नाम ले लिया। उस समय मेरी उम्र लगभग 14 वर्ष की थी। सभी गांव वालों ने सत्संग के प्रति अपना भारी उत्साह दिखाया।
गांव वालों के प्रेम-प्यार व परस्पर सहयोग से पूज्य सतगुरु परम पिता जी बहुत खुश थे और जब भी साध-संगत इकट्ठे होकर सत्संग के लिए विनती करते, पूज्य शहनशाह जी अपना सत्संग नीठराना के लिए मंजूर कर दिया करते।
साल 1966 में पूज्य परम पिता जी हमारे यहां दूसरी बार सत्संग करने के लिए पधारे।
उन दिनों पूज्य पिता जी एक-एक गांव में तीन-तीन सत्संग (पहले दिन शाम को और अगले दिन सुबह व शाम को) फरमाया करते। अगले दिन सुबह का सत्संग फरमाने के बाद पूज्य पिता जी पास के ही एक खेत में घूमने चले गए।
वहां एक जगह पूज्य शहनशाह जी कुर्सी पर विराजमान थे और तब तक गांव से भी काफी साध-संगत आकर पूज्य शहनशाह जी की पावन हजूरी में बैठ गई थी। पूज्य सतगुरु जी के हुक्मानुसार शब्द-वाणी चल रही थी। मैं वहां नजदीक ही अपनी भेड-बकरियां चरा रहा था। रेवड़ को वहां चरता छोड़कर मैं भी साध-संगत में आकर बैठ गया। इतने में सच्चे सतगुरु पिता जी ने मेरी तरफ इशारा करके कोई शब्द बोलने के लिए फरमाया।
हुक्मानुसार मैंने जुबानी याद एक भजन, ‘मेरे मन लगन लागी शब्द सरूप राम की, मैं मांगू भिक्षा नाम की’ सुनाया। मेरा सीधी-सादी बागड़ी भाषा में भजन सुनकर पूज्य पिता जी बहुत खुश हुए। पूज्य शहनशाह जी ने मुझे दात रूप (प्रेम निशानी) के रूप में एक कंघा, एक शीशा और एक पेैंसिल प्रदान किया। वो मैंने सतगुरु जी की दात समझकर अपने घर में लाकर रख दिया। उधर मैं कभी-कभी सोचता कि मैं अपना सिर सफा-चट (घोन-मोन) रखाता हूं, कंघा और शीशा मेरे किस काम का। दूसरा मैं बिल्कुल अनपढ़ और सही से अगूंठा भी नहीं लगा सकता, पैनसिल भी मेरे कोई काम की नहीं है। अक्सर ये बातें मेरे दिमाग में घूम जाया करती थी।
समय गुजरा, हमारे गांव में राजकीय पशु चिकित्सालय (पशुओं का हस्पताल) मंजूर हो गया। मालिक की दया से मैं वहां डाक्टर की सेवा और उनके काम में सहायता करने लग गया। डॉक्टर ने खुश होकर मेरे लिए अपने विभाग के अधिकारियों से सिफारिश कर दी और मुझे वहां हस्पताल में सेवादार (दर्जाचार कर्मचारी) की नौकरी पर रख लिया गया। अब समझ आई सच्चे सतगुरु जी द्वारा बख्शिश उस प्रेम-निशानी, उस प्यारी दात के महत्व की।
अब मैं सरकारी कर्मचारी बन गया था, सही से कटिंग करवाने लगा और पूज्य पिता जी द्वारा बख्शा कंघा और शीशा काम आया। शीशा देखकर कंघे से बाल संवार कर हस्पताल ड्यूटी पर जाने लगा और उसी पेनसिल से अपनी हाजरी भी लगाता।
हमारा सारा परिवार बिल्कुल अनपढ़ गंवार था और भेड़-बकरियां चराकर गुजारा करते थे। पूज्य सतगुरु पिता जी ने अपनी ईलाही दात प्रेम-निशानी के रूप में ऐसी रहमत बख्शी है कि आज कौड़ियों से लखीना यानी हमें लाखों का कर दिया है। प्यारे दाता जी की रहमत से आज हमारे पक्के मकान एवं जरूरत की हर सुविधा उपलब्ध है।
धन्य-धन्य हैं सतगुरु पिता जी, पता नहीं किस-किस बहाने आप जी अपने भगतों पर अपना अपार प्रेम प्यार लुटा देते हैं। लाखों करोड़ों जन्म पाकर भी, प्यारे सतगुरु जी, आप जी की रहमतों का बखान नहीं कर सकता। ऐ मालिक जी, हमेशा सद्बुद्धि बख्शना कि एक पल भी दर से दूर न होऊं जी।