दुनिया में शायद ही दूसरी कोई संस्कृति हो, जहां भाई-बहन के रिश्ते पर कोई त्योहार मनाया जाता हो। सहोदरों का आपसी स्नेह बड़े होने तक दिखाई देता है, लेकिन फिर एक बार दुनियादारी में उलझे, तो किसे भाई या बहन याद रहती है। इसी रोशनी में त्योहारों का महत्व समझ में आता है, जब एक-दूसरे के लिए समय निकालना जरूरी हो जाता है और निबाह की, मिलने की सूरत खुद-ब-खुद निकल आती है।
सारे त्योहार आते-जाते हैं, पर राखी मानो उम्र के हर पड़ाव पर भाई-बहन को जोड़े रहती है। जैसे ही बहन राखी के लिए भाई की कलाई को सजाती है, ऐसा लगता है जैसे भाई वीर हो गया, श्रेष्ठ हो गया। दूसरी तरफ उसकी बहन ओस की तरह शफ्फाफ, कोमल और सूक्ष्म हो गई। त्यौहार धुरी की तरह होते हैं, जिनके गिर्द पीढ़ियां धूमती रहती हैं। लेकिन इस रस्म में स्रेह का समावेश, मीठे की मिठास की तरह जरूरी है, जो वक्त के साथ कदमताल करने पर ही मुमकिन होगा।
शक्ति भी और संवेदना भी
राखी के सूत से हर भाई शक्तिशाली हो जाता है। वह किसी भी आपदा से अपनी बहन की रक्षा के लिए तैयार दिखता है। राखी को बांधते-बांधते बहन भी स्वयं को दुगना समझने लगती है। संवेदनाएं एक नई परम्परा में बंधती नजर आती हैं। माता-पिता का सम्बल समय के साथ भाई-बहन के बीच अपनी जगह बना लेता है। राखी का धागा दोनों को घर से और आपस में जोड़े रखता है। यह धागा भाई-भाई और बहनों के बीच भी वही भूमिका निभाता है।
अनुपस्थिति में उपस्थित राखी
भारतीय परिवारों में बहनें जब ससुराल चली जाती हैं, तो उनके साथ बहुत कुछ चला जाता है। बहन के जाने से घर खाली और वहां बहन के दिल में भाई-मायके की यादों का बादल। ऐसे में राखी की उपस्थिति एक साथ सारे छूटे धागों को फिर पिरो देती है। दूर रहती बहन चिट्ठी में भी जब राखी रखती है, तो जैसे उड़कर मायके के आंगन में पहुंच जाती है और यहां भाई जब उस राखी को हाथ में लेता है, तो बहन के स्नेह से आंख भिगो लेता है।
भाई-बहन से बेहतर दोस्त कहां
रक्षा-सूत्र रिश्तों को सूत्रबद्ध करता है। साथ पले-बढ़े बच्चों के लिए बचपन की हर याद खास होती है। कौन-से दोस्त होते हैं, जो जन्म से साथ होते हैं-भाई-बहन ही ना? इसीलिए बचपन के हर किस्से में, जिंदगी के आगाज के हर हिस्से में भाइयों-बहनों का जिक्र होना लाजमी है। रक्षाबंधन वह त्योहार है जो इंसान के अंदर बचपन को, परिवार की जड़ों को और पैदाइशी रिश्तों को नई ऊर्जा देता रहता है। राखी आने वाली है, माता-पिता के सामने मनाए त्यौहार से लेकर आज तक के हर त्यौहार को याद करके देखिए-कुछ शरारतें याद आएंगी। कुछ राखियां, कुछ मेंहदी, कुछ मौसम, बारिशें, मिठाइयां, परिवारों की एक-जुटता, मामा-चाचा के बच्चों के साथ मनाए त्योहार, राखी बांधते समय हुए किस्से।
अहसासों की अभिव्यक्ति
भाई-बहनों के बीच का जुड़ाव अटूट होता है, पर हर कोई इसे व्यक्त नहीं कर पाता। एक-दूसरे से कितना भी प्यार हो, आमतौर पर भाई-बहन एक-दूसरे से यह बात कह नहीं पाते। राखी का दिन एक अभिव्यक्ति बनकर आता है। भाई की लड़ाई भी उस दिन एक अलग स्नेह में भीगी होती है। साल भर हर चीज छीनने वाला भाई जब प्यारा-सा तोहफा थमाता है, उस अहसास को बहन खूब महसूस करती है। दूर रहने वाले भाई-बहन की राखी के दिन एक-दूसरे के पास पहुंचने की कोशिशें भी कई बार बिना कहे बहुत कुछ कह जाती हैं।
36 वर्षों से निभा रही मुंहबोला धर्म
एक तरफ जहां धर्म और मजहब की आड़ लेकर समाज में नफरत फैलाने की देश में होड़ सी मची हुई है तो वहीं दूसरी तरफ शहर की रहने वाली एक मुस्लिम महिला 53 वर्षीय हलीमा खातून रक्षाबंधन के पावन पर्व पर मुंहबोले हिन्दू भाई कटरा मोहला निवासी 66 वर्षीय हरी गोविन्द लाल श्रीवास्तव को पूरे रीति-रिवाज से राखी बांधकर हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम कर रही हैं। यह पहली बार नहीं, बल्कि पिछले 36 वर्षों से रक्षाबंधन पर अपने मुंहबोले भाई को राखी बांधती आ रहीं हैं।
हलीमा का कहना है कि भारतीय संस्कृति में भाईचारे की महत्ता को बेहद ऊंचा मुकाम हासिल है, इसलिए त्यौहारों को साम्प्रदायिक सौहार्द की भावना के साथ मनाए जाने से समाज में भाईचारे की भावना को नई मजबूती मिलती है। इस मौके पर हरिगोविंद लाल श्रीवास्तव ने कहा कि दोनों आपस में पिछले 36 वर्ष से रक्षाबंधन के साथ-साथ होली, दीपावली, ईद का पवित्र त्यौहार आपस में भाईचारे के साथ मनाते है। गौरतलब है कि हरिगोविंद की पत्नी से हलीमा का सम्बन्ध 1980 के समय एक साथ सिलाई-कढ़ाई सीखने के दौरान हुआ था, आपसी लगाव जो बढ़ा तो यह भाई बहन का अटूट रिश्ता भी जुड़ गया। आज भी हर सुख-दुख में दोनों परिवार एक दूसरे का साथ भी देते हैं।
बड़ी बहन मोनिका ने राहुल को दिखाई कामयाबी की राह
कहावत है कि मान ली जाए तो हार है और ठान ली जाए तो जीत। इसी कहावत को चरितार्थ करके गुरुग्राम के राहुल राव ने अपना मुकाम हासिल किया। इस सफर में उनकी शक्ति बनी बड़ी बहन मोनिका। बेशक आज मोनिका शादी करके अपना परिवार बसा चुकी है, लेकिन राहुल के लिए अपनी बहन की वो मार और प्यार आज भी एक शक्ति देता है। रक्षा बंधन के पर्व पर बहन-भाई के प्रेम को और अधिक प्रगाढ़ करते हुए हम उनके जीवन के संघर्ष की हकीकत आपके सामने रख रहे हैं।
गुरुग्राम निवासी फतह सिंह का भरा-पूरा परिवार था। फतह सिंह पुलिस में एएसआई थे तो उनकी पत्नी धर्मो देवी गृहिणी। वर्ष 2000 में परिवार में एक ऐसा तूफान आया, जिसने उनके घर-आंगन में मुसीबतों का पहाड़ खड़ा कर दिया। परिवार ने इस चुनौती को स्वीकार किया। परिवार के मुखिया फतह सिंह परिवार के बीच नहीं रहे थे। उनकी तीन संतानों में बड़ा बेटा मनोज, फिर बेटी मोनिका और सबसे छोटा बेटा राहुल है। मां ने सभी बच्चों को जीवन में कामयाबी का पाठ पढ़ाते हुए परिवार का सदा सिर ऊंचा करने की ही सीख दी। वैसे तो सरकारी सेवा में होने वाले व्यक्ति के बाद उसके परिवार में संतान को नौकरी दी जाती है, लेकिन इस परिवार के साथ ऐसा नहीं हुआ।
परिवार के सबसे छोटे सदस्य राहुल राव उस समय मात्र 15 साल के थे। उसी दौरान उन्होंने यह ठान ली कि वह भी पिता की तरह ही पुलिस में भर्ती होकर देश सेवा करेगा। राहुल राव के इस सपने को पूरा करने में बड़ी बहन मोनिका ने विशेष तौर पर प्रेरित किया। बहन ने खुद भी पढ़ाई संजीदगी के साथ की और एमए, बीएड की शिक्षा हासिल कर ली। राहुल ने खुद को फिट रखने के लिए बॉडी बिल्डिंग जिम ज्वाइन की, जिसमें राहुल को राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर मेडल हासिल भी हुए। पिता की तरह पुलिस में भर्ती होकर देश सेवा का सपना पाले राहुल के परिवार में वर्ष 2012 में खुशियों का द्वार खुला। इस साल राहुल पुलिस में कांस्टेबल भर्ती हो चुका था। वर्तमान में हरियाणा में वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी केके संधू के साथ गनमैन के रूप में राहुल राव तैनात हैं।
राहुल कहते हैं कि मेरी बहन एक शक्ति बनकर मेरे साथ हमेशा खड़ी रही। आज उन्हीं की बदौलत मैं इस मुकाम तक पहुंच पाया हूं। जब भावनाओं के समुंद्र में हमारी उम्मीदों का तूफान उठे तो उस तूफान से हमें शक्ति लेनी चाहिए, ना कि डरकर किनारे बैठ जाना चाहिए। यह जीवन का फलसफा है कि हमें अगर गुलाब बनना है तो मिट्टी की गोद में बीज बनाकर उतरना पड़ेगा। सर्दी, बरसात, तूफान झेलने पड़ेंगे। यानी हमें कुछ हासिल करना है तो कष्ट भी सहने पड़ेंगे।
-संजय कुमार मेहरा, गुरुग्राम।
छोटी बहन ने लीवर देकर बचाई जान
भाई-बहन का त्यौहार केवल राखी बांधने तक ही सीमित नहीं। रक्षाबंधन के दिन भाई के हाथ पर राखी बांधने और बहनों को तोहफा देने के साथ-साथ एक-दूसरे को मैसेज से इस दिन की बधाई भी दी जाती है, लेकिन भाई की कमी उसी बहन को खलती है, जिसके पास उसका अपना सगा भाई नहीं होता है। रक्षाबंधन के इस मौके पर एक छोटी बहन ने अपना किडनी दान कर अपने भाई को जिगर की डोर से बांधकर एक नई मिसाल कायम की है।
नवी मुंबई के सीबीडी बेलापुर स्थित अपोलो अस्पताल के कंसल्टेंट लीवर ट्रांसप्लांट सर्जन डॉ. विक्रम राऊत की माने तो 41 वर्षीय सुशांत बोराटे हेपेटाइटिस बीमारी से बीमार थे। कई बार हेपेटाइटिस से बीमार होने के बाद अस्पताल में भर्ती हुए थे, लेकिन इस बीमारी के चलते उनके लीवर ने जवाब दे दिया था। सुशांत की जान बचाने के लिए लीवर ट्रांसप्लांट ही एक मात्र उपाय बचा था।
डॉक्टरों ने परिवार के लोगों से बात की तो मरीज की मां ने लीवर ट्रांसप्लांट के लिए हामी भरी, लेकिन उनके स्वास्थ्य को देखते हुए यह मुमकिन नहीं था। ऐसे में अपने भाई की जान बचाने के लिए मरीज की बहन शीतल ने अपने लीवर के टुकड़े को दान करने का निर्णय लिया। शीतल ने कहा कि मेरे पिता की मृत्यु काफी पहले हो चुकी थी। मेरे भाई ने कभी उनकी कमी नहीं खलने दी। अब मैं अपने भाई को नहीं खोना चाहती थी, इसलिए मैंने अंगदान करने का निर्णय लिया।
सर्जरी होने के बाद कम से कम 4 से 6 सप्ताह तक काफी देखभाल करना पड़ता है। आज दोनों भाई-बहन बिल्कुल स्वस्थ हैं। सुशांत ने कहा कि यूं तो भाई अपनी बहन को रक्षाबंधन के लिए उपहार देते हैं, लेकिन इस रक्षाबंधन पर मेरी बहन ने अंगदान कर मुझे नई जिंदगी का उपहार दिया है।
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