बहुत जरूरी है बच्चों के साथ मिल-बैठना
आज के इस भाग-दौड़ वाले युग में जी रहे हर व्यक्ति की जिÞन्दगी इतनी व्यस्त सी हो गई है कि पहले व्यक्ति जहां फुर्सत के क्षणों में अपने परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ मिल बैठकर परिवार के बच्चों के भविष्य को लेकर चर्चा किया करता था, वहां आज वह फुर्सत मिलते ही थोड़ा आराम करना चाहता है और चाहता है कि उसके इस आराम में कोई खलल न डाले।
हम कह सकते हैं कि ऐसे में व्यक्ति इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं करता है कि उसके बच्चे क्या कर रहे हैं और क्या नहीं। जब भी कभी उसे बच्चों की कोई गलती पकड़ में आती है तो वह गुस्सा झाड़ता है तथा स्वयं भी तनावग्रस्त होता है। जब बात इससे भी आगे बढ़ती है और उसे लगता है
कि उसकी मेहनत व परिवार के प्रति दायित्वों को पूरा करने की उसकी तमाम कोशिशों का परिवार के दूसरे सदस्यों ने नाजायजÞ फायदा उठाया है तो व्यक्ति अत्यधिक तनाव की स्थिति में आत्महत्या तक कर बैठता है और असल में जिन बच्चों के बिगड़ने में उनका (बच्चों का) अपना कोई विशेष हाथ नहीं होता; उन का जीवन बर्बाद हो जाता है।
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इसलिए जÞरूरी है कि आज हम बच्चों के साथ मिल-बैठने का समय निकालें। उनकी भावनाओं को समझें, उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ाएं-व्यवहारिक बनाएं और व्यवहार को देखते हुए ही यह निश्चित करें कि बच्चे कहीं अनैतिक या अपराधी तो नहीं बनते जा रहे हैं।
कहना गलत न होगा कि परिवार की तरफ से बच्चों की अनदेखी किए जाने या उनके साथ मिल-बैठने का समय न निकाले जाने की वजह से बच्चे कुण्ठाग्रस्त हो जाते हैं और ऐसे में उनकी कुण्ठा किसी बाल अपराध के रूप में सामने आती है।
आज की टी. वी. संस्कृति व सस्ता साहित्य भी बच्चों की मानसिकता को दूषित करने में दिन-रात एक किए हुए हैं।
न जाने ऐसे कितने ही सवाल टी. वी. देखते या सस्ता साहित्य पढ़ते वक्त बच्चे के मन में उठ सकते हैं जिनका सही जवाब पाना उनके लिए बहुत जरूरी होता है वरना उसे अपराध की दुनियां में जाने या दूषित मानसिकता से ग्रस्त होकर कोई भी असामाजिक कार्य करने में देर नहीं लगती। ऐसे में अगर हम बच्चों के साथ मिल-बैठने का समय निकाल सकें और इस बहाने टी. वी. व सस्ते साहित्य की बुराइयों पर चर्चा करके बच्चों को दूषित संस्कृति से बचा लें तो यह हमारे भी हित में होगा और समाज के भी।
कई मातापिता स्वयं बहुत सी बुराइयों के शिकार होते हैं जैसे शराब पीना, अत्यधिक धूम्रपान करना, जुआ खेलना या अवैध रोमांस करना आदि। ऐसे में वे बच्चों के साथ मिल बैठने का समय तो निकाल ही नहीं पाते, साथ ही जब यह सब कुछ बच्चों के सामने घर में ही या उनकी जानकारी के दायरे में होता है तो उन पर बहुत गलत असर पड़ता है किन्तु ऐसा नहीं कि मिल बैठने से इसके बुरे असर को दूर नहीं किया जा सकता।
मिल-बैठकर हम अपनी गलतियों व कमियों को स्वीकारें तथा बच्चों को बताएं कि जिस बुराई का शिकार हम हो चुके हैं वे बहुत बुरी है तो निश्चित रूप से बच्चे बात को समझेंगे और आप पर विश्वास करके उसी राह पर चलेंगे जिस पर आप चलाना चाहेंगे। मिल बैठने से उनकी अर्थात बच्चों की गलत आदतों का भी आपको पता चल सकेगा और आप किसी न किसी तरह उन्हें राह पर ला सकेंगे।
वैसे भी बच्चों के पास बड़ों की अपेक्षा समय अधिक होता है। जब बड़े ही समय व स्थितियों के मुताबिक दोस्त बनाने या बनने से नहीं चूकते तो फिर बच्चे कैसे पीछे रह सकते हैं। इस मामले में दोस्ती कितनी सही है और कितनी गलत, इसका अनुमान अनुभवी आंखें व भुक्त भोगी दिल ही लगा सकता है। अत: बच्चों के साथ मिल बैठ कर उनके दोस्तों के बारे में बारे में पूछना भी बहुत जरूरी है कि वे कौन हैं, उनकी विचारधारा कैसी है, दोस्ती के प्रति उनका दृष्टिकोण कैसा है आदि-आदि।
बच्चे के सही सामाजिक विकास के लिए जितनी जरूरी सही शिक्षा है, उतना ही जरूरी है उसके साथ मिल-बैठ कर उससे बातचीत करना। दूसरे शब्दों में कहें तो हम कह सकते हैं कि यह बात-चीत उसके सर्वांगीण विकास के मार्ग में उगने वाले काँटों व झाड़ झंखाड़ों को साफ करके उसे आगे बढ़ने का रास्ता दिखाती है और इस रास्ते पर बच्चा तभी चलता है जब वह किसी पर हद से ज्यादा विश्वास करता है।
अगर मिल-बैठकर आप अपने बच्चे का दिल नहीं जीत पाए तो कोई और उसके साथ मिल-बैठ कर उसका दिल जीत ले जाएगा और आने वाले समय में शायद न आपके हाथ कुछ लगे और न ही इस समाज के, अत: बच्चों के साथ मिल-बैठना बहुत जरूरी है। -डॉ. आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’