Editorial माता-पिता और गुरुजनों का सम्मान है सर्वोपरि -सम्पादकीय
आजकल बच्चों में वैचारिक भटकाव की स्थिति ज्यादा देखने को मिलती है। पाश्चात्य संस्कृति के नाम पर युवा पीढ़ी अपने मूल संस्कारों से विहीन होती जा रही है, समाज में मानवीय मूल्यों व संस्कारों का गिरना बड़ा चिंतनीय विषय है। पूज्य गुरु संत डॉ. एमएसजी समाज के गिरते नैतिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए अक्सर सत्संगों में लोगों को ऐसी शिक्षा देते हैं जिससे खुशहाल समाज की परिकल्पना साकार हो। इसकी शुरुआत हर व्यक्ति को अपने घर से करनी चाहिए, क्योंकि अपने माता-पिता व गुरुजनों का सम्मान करना सामाजिक दायित्व ही नहीं, अपितु कर्तव्य भी है।
पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने गणेश चतुर्थी (27 अगस्त) के शुभ अवसर पर एमएसजी गुरुकुल के शिक्षण संस्थानों के छात्रों से मुखातिब होते हुए फरमाया था कि बच्चों को अपने सीखे हुए ज्ञान को दूसरों मेें बांटना चाहिए, क्योंकि बांटने से ही ज्ञान बढ़ता है। ध्यान भटकाने वाली चीजों से बचना चाहिए और पढ़ाई में मन लगाकर मेहनत करनी चाहिए। गणेश जी का सबसे प्रसिद्ध प्रसंग है। जब उन्होंने पूरी दुनिया की परिक्रमा करने के बजाय अपने माता-पिता भगवान शिव और माता पार्वती की परिक्रमा की। यह हमें सिखाता है कि माता-पिता और गुरुजनों का सम्मान सर्वोपरि है।
अपार ज्ञान और शक्ति होने के बावजूद भगवान गणेश जी हमेशा विनम्र बने रहे। उनका जीवन कठिनाइयों का सामना करने का अनूठा उदाहरण है, क्योंकि उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उसी तरह छात्रों को उनके चरित्र और आदर्शों से प्रेरणा लेनी चाहिए। जीवन में सफलता मिलने पर कभी घमंड नहीं करना चाहिए। वहीं असफलता से घबराना नहीं चाहिए बल्कि धैर्य और मेहनत से मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। गणेश जी का हर गुण, हमें जीवन जीने का सलीका सिखाता है। वे हमेशा कुछ नया जानने के इच्छुक रहते थे। इसी वजह से उन्हें विद्या और ज्ञान का अधिष्ठाता माना गया। छात्रों को भी उनकी तरह निरंतर सीखते रहने का प्रयास करना चाहिए।
पूज्य गुरु जी फरमाते हैं कि यदि बच्चे उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतार लें तो वे न सिर्फ पढ़ाई में, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। बुद्धि और ज्ञान के साथ-साथ मेहनत, विनम्रता, दया, सकारात्मकता और माता-पिता व गुरुजनों का सम्मान ही सफलता के मार्ग खोलता है। एक सफल इन्सान बनने के लिए परिवार व समाज का सम्मान करना भी आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना आदर्श जीवन की नींव नहीं रखी जा सकती। जो अपने परिवार से प्रेम करते है।, माता-पिता व गुरुजनों का सम्मान करते हैं, वैसे लोग ही पूरी एकाग्रता से प्रभु-परमात्मा, संत-सतगुरु की भक्ति कर पाते हैं। हिंदू शास्त्रों में बताया गया है कि जो लोग माता-पिता का सम्मान करते हैं, उन पर भगवान की विशेष कृपा होती है।
इस संदर्भ में एक लोककथा बड़ी प्रचलित है कि पुराने जमाने में एक व्यक्ति अपने घर-परिवार में चल रही परेशानियों से बहुत दुखी हो जाता है और एक दिन सोचता है कि उसे संन्यास ले लेना चाहिए। दुखी व्यक्ति एक साधु बाबा के पास पहुंचा और बोला कि गुरुजी मुझे आपका शिष्य बना लो। मुझे संयास लेना है, मेरी मदद करो। मैं मेरा घर-परिवार और काम-धंधा सब कुछ छोड़कर भक्ति करना चाहता हूं। साधु बाबा ने उससे पूछा कि पहले तुम ये बताओ कि क्या तुम्हें अपने घर में किसी से प्रेम है? व्यक्ति ने कहा कि नहीं, मैं अपने परिवार में किसी से प्रेम नहीं करता। क्या तुम्हें अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी और बच्चों में से किसी से भी लगाव नहीं है? व्यक्ति ने कहा कि गुरुजी पूरी दुनिया स्वार्थी है। मैं अपने घर-परिवार में किसी से भी प्रेम नहीं करता।
मुझे किसी से लगाव नहीं है। इस पर साधु बाबा ने कहा कि भाई तुम मुझे क्षमा करो। मैं तुम्हें शिष्य नहीं बना सकता, मैं तुम्हारे अशांत मन को शांत नहीं कर सकता हूं। ये सुनकर व्यक्ति हैरान था। बाबा बोले कि भाई घर-परिवार में रहना सीखो। समस्याओं से भागो मत। मिल-जुलकर उनसे निपटना सीखो। घर-परिवार में प्रेम-प्यार से रहना आ गया, तो सब कुछ सही है। घर में सबको सम्मान दो। सबसे प्रेम-पूर्वक व्यवहार करो। यही पहली सीख है और भगवान तक पहुंचने में भी सहायक है। अपने आपको संतुष्ट रखो और परिजनों से सम्मानपूर्वक व्यवहार करके ही आगे बढ़ा जा सकता है।