ज्ञान दो प्रकार का होता है। एक स्वत:स्फूर्त ज्ञान, जो आंतरिक रूप से उद्भूत होता है। दूसरा ज्ञान बाह्य रूप से प्राप्त होता है। इस बाह्य रूप से प्राप्य ज्ञान का मुख्य साधन है स्वाध्याय और सत्संग। जो जितना स्वध्याय करता है, उसे उतना ही अधिक ज्ञान की प्राप्ति होती है। सत्संग द्वारा ज्ञान का परिमार्जन होता है। Self Study and Satsang
स्वाध्याय या सत्संग के दौरान अक्सर ऐसा लगता है कि सारी बातें पहले से जानी हुई हैं। फिर भी स्वाध्याय और सत्संग में लोग लगे रहते हैं। इसका एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण कारण है। वह है ज्ञान का पुनरीक्षण। स्वाध्याय और सत्संग के माध्यम से कभी-कभी बहुत ही सामान्य-सी बात मालूम हो जाती है मगर वही सामान्य-सी बात अवसर पाकर असामान्य हो जाती है और उसका प्रभाव भी असामान्य हो जाता है।
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सत्संग के बारे में कहावत प्रचलित है।
पल नहीं, आधा पल नहीं, बल्कि पुन: उसके भी आधा पल के लिये यदि सत्संग हो जाये तो जीवन सफल हो जाता है। इतनी लंबी जिन्दगी में चौथाई पल के सत्संग को भी इतना महत्व दिया जाना-सत्संग की महत्ता को परिलक्षित करता है। स्वाध्याय और सत्संग के समय ऐसी स्थिति आ सकती है जब जीवन को एक नई दिशा मिल जाये। जिसे दिशा नहीं मिल पाती है, उसे दिशा के भटकाव का ज्ञान मिल जाता है। यहीं पर स्वाध्याय और सत्संग की उपलब्धि परिलक्षित हो जाती है।
स्वाध्याय सिर्फ पुस्तक के अध्ययन को नहीं कहते हैं।
पुस्तक तो बचपन से ही लोग पढ़ते आ रहे होते हैं लेकिन दूसरे के व्यवहार से सिखने का अवसर बहुत लोगों को नहीं मिलता है या कम मिलता है, मगर ठीक इसके विपरीत कुछ लोगों की आदत होती है कि वे दूसरों की बातें सुन कर भी कुछ सीख लेते हैं। स्वध्याय प्रत्यक्ष पढ़ाई है।
अच्छी-अच्छी पुस्तकें पढ़ना, पढ़ कर उसे गुनना और उसे अपनी समझ के अनुसार अभिसात कर लेना स्वध्याय की विशेषता है। स्वध्याय एक आदत है, आवश्यकता नहीं जबकि अध्ययन आवश्यक होता है। अध्ययन यों तो विद्यार्थियों तक सीमित रहता है मगर शिक्षकों को भी अध्यापन के लिये अध्ययन करना पड़ता है। अध्ययन किया जाता है शैक्षणिक अथवा व्यावसायिक ज्ञान बढ़ाने के लिये, जबकि स्वध्याय का परिणाम है आत्म विकास।
सत्संग से तात्पर्य सच्चे व्यक्ति की संगत है।
सत्संग में जो बातें सुनी जाती हैं, उनसे श्रोता का व्यक्तित्व प्रभावित होता
है किन्तु इसके लिये यह आवश्यक है कि जिससे सत्संग हो, उसका व्यक्तित्व सही हो अर्थात् गलत व्यक्तित्व के स्वामी की बातों को सत्संग मान कर अपना व्यक्तित्व गंदा नहीं करना चाहिये। बहुत सारे कुभेषी सुभेष में घूम रहे हैं । उनका व्यक्तिव भी सामान्य से अधिक आकर्षक होता है।
उनकी बातें भी बहुत मधुर और लच्छेदार होती हैं। लगता है कि उनकी जुबान से मधु टपक रहा हो। मगर सावधान, मधु जैसी मधुरता के अंदर छिपे तीखेपन को पहचानना आवश्यक है। यद्यपि यह काम आसान नहीं है, मगर नि:स्वार्थ बन कर और लालच त्याग कर यदि सत्संग में शामिल हुआ जाये तो गलत संगत कर्ता की चपेट में आने से बचा जा सकता है।
सत्संग का अर्थ मात्र धार्मिक ज्ञान अर्जित करना नहीं है।
जीवन में पग-पग पर ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है।
सत्संग ज्ञान बढ़ाता है और जीवन जीने की कला सिखलाता है। सत्संग सांसारिक जीवन जीने का एक व्यावहारिक मार्ग है।सफलता प्राप्त व्यक्ति को अपनी सफलता का राज मालूम रहता है, किन्तु जीवन में असफल हो चुका व्यक्ति अधिक ज्ञानी होता है। उसे असफलता का कारण पता रहता है। इसलिये सफल व्यक्ति के साथ ही असफल व्यक्ति को बहुत बड़ा गुरु कहा जाता है, लेकिन कोई भी कार्य सफलता की प्राप्ति के लिये किया जाता है, असफल होने या असफलता का गुरु बनने के लिये नहीं।
असफल व्यक्ति दूसरों के लिये भले उपयोगी दिखे, लेकिन उसकी अपनी उपलब्धियां तो नगण्य हो जाती हैं। स्वाध्याय और सत्संग से ज्ञान की वृद्धि होती है। ज्ञान का लाभ आत्म विकास में होता है। इससे व्यक्ित, परिस्थिति और परिवेश को परखने की क्षमता का विकास होता है। अच्छा और बुरा की पहचान की क्षमता बढ़ती है। इससे धर्म और अधर्म का बोध होता है, तन और मन का अंतर पता चलता है, अपना और पराया का भेद खत्म होता है। स्वध्याय और सत्संग से सूक्ष्म के अंदर झांकने का और विशाल की ओर बढ़ने का अवसर मिलता है। ऐसी स्थिति आती है कि पूरी धरती अपना परिवार लगने लगता है। -अंकुश्री