‘बेटा, दिल छोटा ना कर! -सत्संगियों के अनुभव
पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की अपार रहमत
माता गुरजीत कौर इन्सां पत्नी, सचखण्डवासी स. बलबीर सिंह, गांव बिलासपुर जिला मोगा, हाल आबाद गांव शाहपुर बेगू, जिला सरसा से पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी महाराज की रहमतों का वर्णन करती है:-
सन् 1965-66 में मेरी शादी हुई। मेरा पति शराबी-कबाबी, जुआरी तथा नशों का आदी था। शादी के एक साल बाद मेरे घर बेटे ने जन्म लिया, जो दो साल का होकर गुजर गया। मेरे मामा जी अच्छे भक्त थे। अक्सर उनकी कही हर बात सच्ची होती थी। उसने मुझे कहा कि तेरे करमों में तीन बेटे तथा एक बेटी है। जिस तरह मामा जी ने कहा था, ठीक उसी तरह हुआ। मेरे घर चार बच्चे हुए, तीन बेटे, एक बेटी। चारों ही गुजर गए।
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मैं इतनी दुखी थी कि जिसको शब्दों में ब्यान नहीं कर सकती। एक तरफ औलाद न बचने को लेकर दुखी थी, वहीं दूसरी ओर पति के नशों के कारण। मेरा जीना नर्क से भी बदतर हो चुका था। मैं हमेशा परमात्मा के आगे अर्ज करती रहती कि अब तो मुझे इस दुनिया से ले चल। मेरे चौथे बच्चे को मरे अभी 15 दिन ही हुए थे कि 9 मार्च 1975 को पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी महाराज का मेरे गांव बिलासपुर जिला मोगा में सत्संग तय हो गया। उस समय मैं बीमार थी और खाना-पीना भी छूट गया था। मेरी हालत इतनी नाजुक हो चुकी थी कि दीवार का सहारा लेकर चलती थी।
सतगुरु दयाल की ऐसी रहमत हुई कि मैंने अपने पति को कहा कि अपने भी नाम ले लें। तो उसने मुझे डांटना शुरू कर दिया। उस समय मैं ना तो सच्चा सौदा के बारे में जानती थी और ना ही पूजनीय परमपिता जी के बारे में कुछ जानती थी। परन्तु मुझे अंदर से खिच-सी महसूस हो रही थी। मेरा दिल कर रहा था कि जा कर दर्शन तो करूं, कैसा फकीर है! मैंने अपनी जेठानी को कहा कि अपने सत्संग सुनने के लिए चलें? तो मेरी जेठानी ने मुझे कहा कि बाथरूम तक तो तू दीवारें पकड़ कर जाती है, सारा गांव पार करके इतनी दूर तू कैसे जाएगी? मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया कि वह आप ही ले जाएंगे। सतगुरु ने ऐसी रहमत की, कि मुझे ऐसे लगने लगा कि मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं। हम दोनों सत्संग पर चली गई। सतगुरु की रहमत से हमने सत्संग सुन कर नाम ले लिया।
नाम लेने तथा जपने से मुझे इतना बल मिला कि मैं ठीक रहने लगी। कुछ दिनों के पश्चात् रात को मुझे सोहणे सतगुरु परमपिता शाह सतनाम जी महाराज ने स्वप्न में दर्शन दिए। परमपिता जी शाह मस्ताना जी धाम में पीपल के नीचे कुर्सी पर विराजमान थे। मैं श्रीचरणों में बैठी हुई थी। सच्चे पातशाह जी ने फरमाया, ‘बेटा तेरे तो कर्माें में वो ही चार बच्चे ही थे, जो दुनिया से चले गए। तेरे कर्माें में और नहीं है।’ मेरा वैराग्य से गला भर आया तथा मैं रोने लगी। दयालु सतगुरु जी ने मुझ पर दया करते हुए फरमाया, ‘बेटा, दिल छोटा ना कर। असीं तैनूं किवे वी देईए, जरूर देवांगे।’ इतने में मेरी आंख खुल गई। दर्शनों से मुझे इतनी खुशी मिली, जिसका लिखकर वर्णन नहीं हो सकता।
उक्त घटनाक्रम से ठीक नौ महीने दस दिन बाद मेरे घर बेटे ने जन्म लिया। 3 फरवरी 1976 को फिर परमपिता जी बिलासपुर आए, तो उस समय बेटा करीब डेढ़ महीने का था। बिलासपुर गांव की एक लड़की से रूहानियत के नाते मेरा अच्छा पे्रम था। उनका घर अच्छा खुला था, परन्तु मेरा तो कच्चा कोठड़ा था। मैंने सोचा कि पिता जी मेरे कच्चे कोठड़े में तो सोहणे नहीं लगेंगे। मैंने उस लड़की से विचार-विमर्श किया कि अपने पिता जी को अर्ज करेंगे कि पिता जी हमारे (लड़की के) घर चरण टिकाओ जी।
उस लड़की के घर पूरी तैयारी करके हम सत्संग में चली गई। लेकिन सत्संग की समाप्ति से पहले ही हम उस लड़की के घर के दरवाजे के आगे आकर खड़ी हो गई, क्योंकि परमपिता जी ने उसी रास्ते उतारे वाले घर जाना था। जब परमपिता जी दरवाजे के आगे आए तो मैंने एक बाजु में बेटा उठाया हुआ था तथा दूसरी बाजु रास्ते में फैला दी। उस लड़की ने भी दोनों बाहें फैलाकर रास्ता रोक लिया। पूजनीय परमपिता जी ने सेवा समिति वाले भाईयों को फरमाया, ‘भाई! इस कमले टोले दा की करीए।’ परमपिता जी ने फिर फरमाया, ‘भाई, प्रेम अग्गे नेम नहीं।’ हमारी दिली पुकार सुनते हुए पूजनीय परमपिता जी ने घर में आने की हामी भर दी। पिता जी घर के अन्दर आ गए। जो संगत उस रास्ते आ रही थी, वह भी अन्दर आ गई।
परमपिता जी कुर्सी पर विराजमान हो गए, संगत सामने बैठ गई। मैं एक साइड की तरफ से होकर बहनों के आगे जाकर बैठ गई। परमपिता जी ने सारी साध-संगत को आशीर्वाद दिया तथा मुझसे मुखातिब होकर फरमाया, ‘बेटा ना धरौणा है काके दा?’ मैंने कहा कि हां जी, पिता जी। पिता जी ने मुझसे पूछा कि पहले क्या नाम रखा था बेटा? मैने कहा कि पिता जी आप जी तो अब आए हो, नाम किसने रखना था। पिता जी ने फिर पूछा बेटा! किस नाम से बुलाते हो? मैंने कहा कि पिता जी कभी किसी नाम से तो कभी किसी नाम से।
पिता जी हम से चौकीदार गुस्से हो गया कि तुम नाम क्यों नहीं लिखवाते। वह कहने लगा कि मैं लड़के का नाम ऊपर नहीं भेजना। मैंने कहा कि ऊपर भेजना भी नहीं। जिसके पास भेजना है, उसी के पास जाए, मेरे प्यारे सोहणे सतगुरु परम पिता जी के पास। पूजनीय परमपिता जी ने फरमाया, ‘प्रेम तां इसनूं कहन्दे आ भाई।’ परमपिता जी ने आगे फरमाया, ‘बेटा! तुहाडे कोई गुलजार है।’ तो मैंने कहा कि पिता जी, घरों में तो है पर घर में नहीं। फिर फरमाया, ‘बेटा! लाऊ गुलजारां।’ पिता जी ने बेटे का नाम गुलजार रखते हुए हम मां-बेटे को प्रसाद दिया।
मैं साध-संगत को कहना चाहती हूं कि हमारा सतगुरु पूरा है। पूर्ण विश्वास रखो, हृदय अडोल रखो। जो कुछ भी मांगना है, अपने सतगुरु से मांगो। जैसा कि किसी महात्मा ने लिखा है:-
मित्र बणेआ सतगुर जिसदा,
उसनूं कोई थोड़ नहीं।
जो कुछ दर ते जा के मंगदा,
उह खाली दिन्दा मोड़ नहीं।
परमपिता जी के वचनानुसार इस पुत्र ने गुलजारें लगा दी हैं। पुत्रों, पौत्रों किसी चीज की कमी नहीं है। मेरी पूजनीय परमपिता जी के स्वरूप हजूर पिता संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां के चरणों में यही विनती है कि आप जी की दया-मेहर, रहमत से सेवा-सुमिरन होता रहे। मेरा आखिरी स्वास आप जी के चरणों में ही जाए तथा आप जी के चरणों में ओड़ निभ जाए जी।