पूजनीय गुरु जी के वचनों पर आधारित शिक्षादायक सत्य-प्रमाण
‘जो अपने पीर-फकीर पर दृढ़ विश्वास रखते हैं, दृढ़ विश्वास की क्या निशानी है, कि फकीर जो कहता है उसपे जो मुरीद अमल करते हैं, उसकी मान लेते हैं वे सब कुछ हासिल कर जाते हैं, दूसरे को यह सब नसीब नहीं होता, उसे नहीं मिलता।’ ये वचन पूजनीय गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने सतगुरु, मुर्शिद के प्रति दृढ़ विश्वास के बारे फरमाए। इसी के अनुरूप आप जी ने एक उदाहरण, एक घटना, एक बात इस प्रकार बताई।
यह बात ईरान की है। वहां पे एक मुसलमान सूफी फकीर हुए। उन्होंने बोला ‘विच्च शराबे रंग मुसल्ला, जे मुर्शिद फरमावे।’ किसी ने जाकर काजी साहिब से कह दिया। काजी साहिब उस फकीर के पास आए, कहने लगे, आप ने क्या कलमां बोला? उन्होंने बोल कर सुना दिया ‘विच्च शराबे रंग मुसल्ला जे मुर्शिद फरमावे’ कहने लगे, आप कलमां वापिस लीजिए, ये गलत है, कहर है। फकीर कहने लगा, मैंने थोड़े ही कहा है! अल्लाह-ताअला ने ख्याल दिया, मेरे मुंह से बुलवा लिया, मैं कौन होता हूँ वापिस लेने वाला! तो कहने लगे, फिर इसका अर्थ बताओ क्या है, क्या मतलब है? कहने लगा, सामने पहाड़ी है, आप जाइए, वहां एक फकीर हैं उसके पास, वो बताएगा इसका क्या अर्थ है।
तहकीकात करना जरूरी था, क्योंकि उनकी ड्यूटी होती थी। काजी साहिबान उनके पास गए। कहने लगे भाई! ये बात है। तो फकीर कहने लगा, पहले मेरी सुन। कहने लगा बताओ। कहने लगा, ये लो कुछ रुपए, ये सामने जो कस्बा है, फलां मोहल्ले में वेश्या का कोठा है, आप उस वेश्या के पास जाइए, आपको कलमें का पता चल जाएगा। काजी हैरान हो गया कि कुफर है ये। ‘शराब’ और ‘ये’, यह तो अजीब जगह मुझे भेज रहा है। पर क्या किया जाए, तहकीकात जो करनी थी। कहता है, चलो, कोई बात नहीं, अपने चलते हैं।
वो सीढ़ियां चढ़कर वहां पे गए तो इंचार्ज जो उनकी बीवी थी वो वहां पे नहीं थी। तो जो नौकर थे उन्होंने सोचा कि शहर के काजी आए हैं, बहुत बड़े लोग आए हैं तो एक लड़की को उन्होंने पाल-पोष रखा था जो इस धंधे में नहीं पड़ी थी। तो उसको उन्होंने कहा कि अपना काम हरामखोरी है, ये तो आप देखती ही हैं रोज। तो आप तैयार हो जाइए, आपको काजी के पास जाना है। वो बेचारी रोई, लेकिन क्या बन सकता था। उसे तैयार किया गया। काजी साहिबान के कमरे में ले गए। काजी आखिर फैसले करवाने वाले थे। उस लड़की को छोड़ कर जब सब चले गए, काजी ने देखा, अगर ये वेश्या होती तो इसे खुशी होनी थी कि मेरे लिए काजी साहिबान आए हैं लेकिन ये रो रही है, चेहरा मुर्झाया हुआ है, ताड़ गए।
कहने लगे, आप कौन हैं? वो रोने लगी। काजी कहने लगा, मैं आपको कुछ नहीं कहूँगा, मेरा इरादा ये नहीं है, मैं नेक इरादे से आया हूँ, बेखौफ होकर बता तू कौन है? तो उसने बताया कि मैं तो एक लड़की हूँ, मैंने ऐसा कोई धंधा आज से पहले नहीं किया, रोना मुझे इसलिए आ रहा है कि मैं हरामखोरी की तरफ जा रही हूँ, अल्लाह-ताअला मुझे कैसे माफ करेंगे! तो काजी के दिल को बात लगी कि ये कोई मजलूम-बेचारी फंसी हुई है। कहने लगे, फिर तू इनके हत्थे कैसे चढ़ गई? कहने लगी, जी! मुझे थोड़ा-थोड़ा याद है मैं छोटी थी। हमारे गांव में, हमारे शहर में डाकू आए थे, उन्होंने कस्बा लूटा था। कहने लगा, कौन सा शहर? लड़की कहने लगी, जी मैं छोटी सी थी, पर मुझे थोड़ा-थोड़ा याद है, शहर का नाम ये था। कुछ नाम बताया।
काजी की आंखें खुली कि ये तो मेरा शहर, मेरा गांव है पहले वाला और जब अपनापन नजर आता है तो इंट्रस्ट और बढ़ जाता है। कहने लगा, बेटी! तू याद करके बता, कौन सा मोहल्ला था तेरा? कहने लगी, जी! मैं छोटी थी, मेरे मोहल्ले का नाम शायद ये-ये था, फलां-फलां! काजी की आंखें और खुल गई आश्चर्य से कि ये तो मेरे मोहल्ले का नाम है! काजी कहने लगा, ये बताओ बेटी, आपके पिता का क्या नाम था? तो वह कहने लगी, जी! मुझे पूरा तो याद नहीं, पर मेरे पिता का नाम फलां था। काजी की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी और लड़की को पकड़ कर छाती से लगाया। कहने लगा, तू मेरी ही खोई हुई बेटी है। ये मेरा नाम है जो तू बता रही है और मेरी बेटी को वाकई डाकू उठा कर ले गए थे, हम सब भाग गए थे और तुझे उठाकर वे ले गए थे। बहुत रोया, कितनी देर के बाद मिलाप हुआ।
रोते हुए, तड़पते हुए बेटी को छाती से लगाए। अब काजी को कौन रोके, बेटी को ले गया और उस फकीर के पास पहुंचा। कहने लगा, ऐ फकीर! जाहिरा तौर पर तो तूने मुझे गलत तरफ भेजा था लेकिन अंदर तेरा मकसद, नेक-नीयत वाला था। आपने यह बहुत अच्छा किया, नेक किया लेकिन इसका कलमां अधूरा नजर आता है, पूरा अर्थ बताओ। कहता आप ख्वाजा साहब के पास जाएं, वो ही पूरा करेंगे। तो उनके पास पहुंचा और कहा, जी! आप इसका अर्थ भी बताइए, मुझे अर्थ समझ में आ गया है ‘विच्च शराबे रंग मुसल्ला जे मुर्शिद फरमावे’ आप पीरो-मुर्शिदे-कामिल हैं, आपने वेश्या के कोठे पर जो कि शराब की तरह ही काफिर, कुफर है, वहां भेजा।
तो मैं वो करने गया लेकिन मुर्शिदे-कामिल कभी गलत थोड़े ही कहते हैं। मेरी सालों से बिछड़ी हुई बेटी को मिला दिया, तो दूसरा कलमां भी कहिए। हे ख्वाजा! मेरी आपसे विनती है, गुजारिश है। तो उन्होंने फिर दूसरा कलमां कहा, ‘विच्च शराबे रंग मुसल्ला जे मुर्शिद फरमावे। वाकिफकार कदीमीं हुंदा गलती कदी ना खावे।’ कि वो कभी भी गलत नहीं हो सकता अगर दृढ़ विश्वास करके अपने पीर-फकीर के वचन को मान ले तो दोनों जहान की दौलत उसके हिस्से में जरूर आ जाती है।
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