बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज ने अपने शिष्य के ऊंट को स्वयं बांधा -सत्संगियों के अनुभव
पूजनीय सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज का रहमो-करम
प्रेमी मोहन लाल गांव फेफाना, जिला हनुमानगढ़ से अपने सतगुरु बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज की अपने पर हुई अपार रहमत का इस प्रकार वर्णन करता है:-
सन् 1957 की बात है। शहनशाह मस्ताना जी महाराज डेरा सच्चा सौदा सचखंड धाम फेफााना में पधारे हुए थे। उस समय शहनशाह जी कई दिनों तक डेरा सच्चा सौदा फेफाना में रहे। मैं तथा मेरे कई साथी डेरे में ही रहते। हम अपने घरेलू कामों की बजाय सेवा में ही ज्यादा रूचि रखते थे। बेपरवाह जी ने हमें इतना मस्त कर दिया कि हम हर समय सतगुरु के गुणगान में लगे रहते। शहनशाह जी ने सातवें दिन हम लोगों को अपने पास बुलाया और वचन फरमाए, ‘तुम अपने खेतों में नहीं जाते, कोई काम-धंधा नहीं करते। पशुओं के लिए चारा नहीं लाते।
अगर तुम काम नहीं करते तो सच्चा सौदा की बदनामी होती है। हम यहां नहीं रहेंगे। हम सच्चा सौदा सरसा में जा रहे हैं।’ मैंने खड़े होकर शहनशाह जी के चरणों में विनती की कि सार्इं जी, दूसरों का मैं नहीं कहता, मैं आप जी के हुक्म से खेत में चला जाता हूं पर मुझसे चारा नहीं काटा जाता। पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने सेवादारों को आदेश दिया कि गाड़ी निकालो, अपने अभी सरसा जाते हैं। फिर वहां पर मौजूद सभी प्रेमियों ने कहा कि सार्इं जी, हम अभी खेतों को जा रहे हैं, आप न जाओ। फिर शहनशाह जी के आदेशानुसार सभी लोग अपने-अपने खेतों में चले गए। मैं भी अपना ऊंट लेकर अपने खेत में चला गया। मैंने चारा काटने की कोशिश की पर मुझसे काटा नहीं गया। उस समय सतगुरु जी ने मुझे इतनी खुशी तथा मस्ती दी थी जिसका ब्यान नहीं हो सकता। मैं सामान्य काम करने से भी असमर्थ हो गया था। मैं ऊंट पर चढ़कर वापिस लौट गया।
रास्ते में लाउड स्पीकर की आवाज सुनी। मालिक सतगुरु का गुणगान हो रहा था। थोड़ा-थोड़ा अन्धेरा हो गया था। मैंने डेरे के बाहर एक करीर (कांटेदार झाड़ी) की डाली से ऊंट की मुहार को लपेट दिया। कोशिश करने पर भी मुझसे गांठ नहीं बंध सकी। जब मैं आश्रम के अंदर गया तो सामने पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज स्टेज पर विराजमान थे। मैं शहनशाह जी को नारा लगाकर बैठ गया। रात के साढ़े ग्यारह बजे पूज्य सार्इं जी ने मेरी तरफ ईशारा करके वचन फरमाया, ‘पुट्टर! जितनी देर तक तुझे लज्जत न आवे तू न उठ। तेरा ऊंट भी मस्ताना बांधेगा।’ इतना कहने पर भी मुझे बात की समझ नहीं आई। सत्संग का कार्यक्रम निरन्तर चलता रहा। सत्संग का कार्यक्रम सुबह तीन बजे समाप्त हुआ।
उस समय पूज्य मस्ताना जी ने फरमाया, ‘भजन का समय हो गया है। हम भजन के लिए अंदर जा रहे हैं। कोई जागो, कोई सोवो तुम्हारी मर्जी।’ जब मैं अपने घर आने के लिए डेरे से बाहर आया, तो मुझे ऊंट की याद आई। ऊंट उस जगह पर नहीं था, जहां पर बांधा गया था। ऊंट को वहां पर न देखकर मेरे पावों तले से जमीन खिसक गई। क्योंकि उस समय ऊंट मस्ती की हालत में था। मुझे यह भय सताने लगा कि ऊंट किसी को काट न खाए। मैं ऊंट को देखने के लिए इधर-उधर भागा, पर ऊंट कहीं भी दिखाई न दिया। मैं निराश होकर अपने घर चला गया।
दरवाजा खटखटाया, तो मेरी पत्नी ने दरवाजा खोला। ऊंट घर में बंधा हुआ था। मैं यह देखकर हैरान रह गया। मैंने अपनी पत्नी से पूछा कि ऊंट किसने बांधा? तो उसने बताया कि एक बहुत ही सुंदर बाबा जी ऊंट लेकर आए थे। वह ही बांधकर गए हैं। उनके सुंदर कोट पहना हुआ था। हाथ में डंगोरी थी। मैंने अपनी पत्नी से पूछा कि तुमने उनसे पूछा नहीं कि वह कौन है? तो उसने जवाब दिया कि मेरा मुंह ढांपा हुआ था। मैं शर्माती रही, कुछ पूछ न सकी। उस समय मैं वैराग्य में आ गया। मैं सोच रहा था कि ऐसे सतगुरु के अहसानों का बदला कैसे भी नहीं चुकाया जा सकता, जो अपने शिष्य के ऊंट को भी बांध सकता है।