प्राचीन काल में ऋषिगण भीड़भाड़ से दूर एकान्त में वनों में अपना आश्रम बना कर रहा करते थे। शान्त स्थान में रहकर प्रकृति प्रदत्त फल-फूल, कन्द-मूल का आहार करते थे तथा नदी एवं झरनों के शीतल-निर्मल जल में स्रान किया करते थे। इसी शीतल जल का पान भी किया करते थे।
नंगे पांव रहकर या खड़ाऊं पहनकर वे अधिक से अधिक समय तक प्रकृति के सान्निध्य में ही अपना जीवन बिताया करते थे। सात्विक आहारों को ग्रहण करते हुए वे भूमि पर चटाई बिछा कर या चौकी पर शयन किया करते थे। परिणाम स्वरूप ’जीवेम शरद: शत‘ के अनुसार दीर्घायु पाकर, स्वस्थ रहते हुए सैंकड़ों वर्ष तक जीते हुए जीवन के सच्चे आनन्द को उठाया करते थे।
आज के समय में भीड़भाड़ से युक्त शोरमय इलाके में रहकर, ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में पंखा, बिजली, एयर कंडीशनर युक्त कमरों का हम आनन्द उठाते हैं। मांसाहार की प्रवृत्तियों से ग्रस्त होकर आरामदेह गद्दों पर सोना हमारी नियति बन चुकी है। बाथरूम में बन्द होकर स्रान करने और बिना चप्पल-जूता पहने एक कदम भी नहीं चलने की मानसिकता ने हमारे मस्तिष्क को जकड़ लिया है। फलस्वरूप अनेक गंभीर बीमारियों से ग्रस्त होकर दु:ख युक्त जीवन बिताने की लाचारी हममें देखी जा सकती है।
प्रकृति के सान्निध्य में रहकर ही प्रकृति प्रदत्त अनोखे उपहारों का लाभ हम उठा सकते हैं। नंगे पाँव चलकर मिट्टी के सम्पर्क में आने से हमारे शरीर को पृथ्वी की शक्ति ’अर्थिंग‘ की प्राप्ति होती है जिससे हमारा शरीर चुस्त-दुरुस्त रहने की शक्ति को ग्रहण करता है। जिस प्रकार विद्युत प्रवाह के साथ अर्थिंग न होने पर बिजली से काम नहीं लिया जा सकता या कमजोर अर्थिंग होने पर विद्युत यंत्र अपनी इच्छानुसार काम नहीं कर पाते, उसी प्रकार शरीर को उचित अर्थिंग प्राप्त न होने से मस्तिष्क सहित शरीर के अन्य अंग भी समुचित कार्य करने की क्षमता को खो देते हैं। फलस्वरूप आलस्य के साथ-साथ अनेक बीमारियां शरीर को अपनी चपेट में लेने लग जाती हैं।
नदी या झरने के जल में स्रान करने से शरीर को जल में स्थित विद्युतीय तरंगों का सामीप्य प्राप्त होता है। साथ ही उसमें तैरने या डुबकी लगाने से शरीर के सभी अंगों को एक समुचित व्यायाम की खुराक मिल जाती है। इससे हमारा शरीर अनेक रोगों से दूर रहकर स्वस्थ एवं तंदुरुस्त बना रहता है।
हरियाली के मध्य बाग-बगीचों में बैठना, प्रकृति की समीपता पाना माना जाता है। हरियाली के बीच बैठने से जहां मस्तिष्क को एवं फेफड़ों को स्वच्छ वायु की खुराक प्राप्त होती है, वहीं दूसरी ओर दूबों का स्पर्श, पुष्प की सुगन्ध, हरी-हरी पत्तियों की हरीतिमा द्वारा मनुष्य को जीवनी शक्ति की प्राप्ति होती है।
एक शोध के अनुसार फुलवारी में दूब पर प्रात: काल एक घंटा टहलकर या बैठकर प्रकृति के तत्वों को ग्रहण करते रहने से आंखों की मन्ददृष्टि, चर्मरोग, मोटापा, सेक्सगत बीमारियों आदि से बचा जा सकता है। यही कारण है कि पशुओं में दृष्टिहीनता, ब्लडप्रेशर, चर्मरोग मनुष्यों की अपेक्षा बहुत कम पाई जाती है क्योंकि वे नंगे पांव हरियाली के बीच अपना अधिकांश समय गुजारते हैं तथा नदियों एवं तालाबों में जमकर स्रान करते हैं।
पहाड़ प्रकृति की अनुपम देन है। पहाड़ी भागों में अनेक प्रकार की औषधियां पायी जाती हैं। वनौषधियों को स्पर्श करके आने वाली हवा का संसर्ग जब हमें मिलता है तो सांस के माध्यम से वह शरीर के अन्दर पहुंचकर सभी अन्दरूनी विषाणुओं को नष्ट कर देती है। साथ ही मस्तिष्क एवं हृदय को भी एक अनुपम खुराक प्रदान करती है।
पर्वतीय चट्टानों, भू-भागों, झरनों के बीच बैठकर शान्ति की प्राप्ति होती है और हमारे शरीर के अनेक हार्मोन्स उससे सक्रिय होकर अपनी कार्यक्षमता को बढ़ा देते हैं। फलस्वरूप शरीर स्वास्थ्य को प्राप्त करता है। पिकनिक मनाने की अवधारणा इन्हीं कारणों से मानवों में पाई जाती है।
यज्ञादि के रूप में अग्नि की समीपता को पाना, अनुपम शारीरिक ऊर्जा को प्राप्त करना ही होता है। अग्नि की ज्वाला के समक्ष मनुष्य की ईर्ष्या, क्रोध, द्वेष, कटुता आदि की भावना जलकर भस्म हो जाती है और मानव में अग्नि की सकारात्मक ऊर्जा की स्थापना होती है। इन्हीं कारणों से यज्ञादि विधान की स्थापना हुई थी।
अतएव हमें भी अपने अन्दर से प्रकृति से दूर हटते रहने की भावना का त्याग करना होगा तथा दीर्घायु एवं स्वास्थ्य को प्राप्त करने के लिए प्रकृति की समीपता को ग्रहण करना होगा।
-पूनम दिनकर