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विजयदशमी में कठपुतली परम्परा | Puppet Culture at Dusshara
रामलीला की कठपुतली परंपरा दक्षिण भारत से होती हुई दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में पहुंची।
कंबोडिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया और मलेशिया में वह आज भी विविध रूपों में मौजूद है।
इन सभी देशों में सर्वाधिक आकर्षक है। नाट्य परम्परा का आदिरूप है कठपुतली और इसका उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, अपितु सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं का चित्रण करना भी है। कठपुतली भले ही निर्जीव वस्तु है, लेकिन इसके हाथ-पैर और शरीर के विभिन्न हिस्सों में गति देकर इसे सजीवता प्रदान की जाती है।
इंडोनेशिया के बाली और जावा द्वीपों की वायांग कठपुतली परम्परा, वहां की नाट्य परम्परा से मेल खाती है।
कठपुतली प्रदर्शन के दौरान जो अनुष्ठान और कर्मकांड किए जाते हैं वे भारतीय परम्पराओं से मिलते-जुलते हैं। लेकिन प्रतीकात्मक और शैलीगत नजरिए से इंडोनेशियाई मान्यताओं के नजदीक हैं। लयबद्ध पदों के गायन और संगीत की सुमधुर ध्वनि के बादल के साथ कलाकार जब कठपुतली को गति प्रदान करता है तो अलौकिक नजारा उपस्थित हो जाता है।
और दर्शक पारलौकिक शक्ति की कल्पना करने लगते हैं। ( Puppet Culture at Dusshara )
थाईलैंड में बड़ी-बड़ी कठपुतलियों का प्रयोग आज भी इस देश के दक्षिणी भाग में रामलीला के दौरान होता है। 18वीं सदी के बहुत पहले से यह परम्परा प्रचलित है। मलेशिया में रामायण का प्रभाव केवल छाया नाटक परम्परा में ही मिलता है। छाया नाटक आंध्र की परम्परा से बहुत मिलती-जुलती है।
कंबोडिया में रामलीला के समय बड़ी-बड़ी मनमोहक कठपुतियां इस्तेमाल की जाती हंै। जो प्रतिमाशास्त्र तथा वस्त्र-सज्ज और अलंकरण की दृष्टि से प्राचीन अंकोरवाट की मूर्तियां सी लगती हैं।
आधुनिकता की चकाचौंध में लुप्त होती कठपुतली कला
कला सदा से सृजन के साथ मनोरंजन और रोजगार के अवसर सुलभ कराती रही है, फिर चाहे वह चित्र, नृत्य, शिल्पकला हो या कठपुतली कला। प्राचीनकाल से कठपुतली का तमाशा लोगों के मनोरंजन और रोजगार का साधन बना रहा। कठपुतलियों के माध्यम से नृत्य ही नहीं नाटकों का प्रदर्शन भी किया जाता था। समय के साथ कठपुतलियों के स्वरूप और परिधान में परिवर्तन आते रहे। कठपुतली-कला का भारत के सामाजिक जीवन में विशेष स्थान रहा है।
राजा-महाराजाओं के महलों से आम व्यक्तियों तक इस कला ने अपना महत्व स्थापित किया हुआ था, किन्तु आधुनिकता की लहर में कठपुतली कला लुप्त होती जा रही है।
टी.वी. जैसे मनोरंजन के साधनों ने कठपुतली जैसी लोककलाओं को सबसे अधिक प्रभावित किया है। गांव-गांव में टेलीविजन पहुंचने के कारण इन लोककलाओं के दर्शकों का अभाव हो गया है। परिणामस्वरूप कठपुतली कलाकारों के सामने रोजी-रोटी का संकट उत्पन्न हो गया है।
एक समय था जब कठपुतलियों के माध्यम से समाज को नाना प्रकार के संदेश दिये जाते थे। स्वतंत्रता संग्राम में कठपुतली कला ने क्रान्तिकारी काम किये, किन्तु आज के तकनीकी विकास के युग में दुनिया तेजी से भाग रही है। कठपुतली वालों की सुनने वाला कोई नहीं है।
इसलिए कठपुतली कला से जुड़े अधिकांश लोगों ने मजदूरी करके अपना जीवन यापन करना शुरू कर दिया है। जो लोग पुश्तैनी धरोहर के रूप में इस कला से अब भी जुड़े हैं, वे कठपुतली का तमाशा दिखाने के साथ इनको बनाने और बेचने का भी काम करते हैं।
प्राय: गली-मोहल्लों में दिखाया जाने वाला कठपुतली का तमाशा अब मेलों-प्रदर्शनियों तक सिमट कर रह गया। जयपुर से बारह कि.मी. दूर चोखी ढाणी में नित्य दिखाया जाने वाला कठपुतली का खेल भी बेजान सा नजर आता है। कठपुतली कला को लुप्त होने से बचाने के लिए इसे जहां सरकारी संरक्षण की आवश्यकता है, वहीं लोककलाओं से जुड़ी संस्थाओं को भी इसे पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए आगे आना चाहिए।
– डॉ. रानी कमलेश अग्रवाल